Saturday, October 29, 2011

मेरी साधना -18

- ओ देवी! सिंह-वाहिनी, असुर-संहारिणी, शुम्भ-निशुम्भ-निपातिनी, चक्र-धारिणी, रक्त-बीज-नाशिनी तेरा यह रौद्र रूप शत शत कोटि बार वन्दनीय है| समस्त विश्व का धारण और संहार करने वाला तेरा यह प्रचंड चंडी रूप स्तुत्य है| तू जीवन का जीवन, प्राणों की प्राण, आत्मा की आत्मा है| विश्व के कण-कण में तेरी सत्ता व्याप्त है| तो तू कहाँ है और कहाँ नहीं?

- तू इतनी प्रचंड रूपा, क्रूर-कर्मा, क्षमा-सिंधु और दयामयी है| क्यों न हो, जग जननी जो ठहरी| समस्त-विश्व की श्रद्धा और भक्ति का आलम्बन और वात्सल्य का आश्रय, भिन्नता में अभिन्नता को धारण किये हुए, अनेक-रूपा होते हुए भी एक-रूपा, तू सिंह पर आरूढ़ कितनी शोभायमान हो रही है| शक्ति, शील और सौन्दर्य के अनुपम सामंजस्यपूर्ण इस रूप का मेरे मन-मंदिर में निवास हो! देवी प्रार्थना है!

-मुझे संतोष नहीं है केवल तेरे गुण-गान करने में- यह तो वृद्ध अपंगो का काम है| मुझे मान्य नहीं है तेरा स्वरुप-शब्द चित्रण; यह तो कवियों के मष्तिष्क का व्यायाम है| मैं स्वीकार नहीं करता केवल तेरी व्याख्या और लीला-वर्णन को- यह खाली बैठों की निष्क्रियता है| तेरा केवल मानसिक चिंतन भी एकांकी और अपूर्ण है| मैं तो मन, वचन और कर्म में तेरी शक्ति का आव्हान करता हूँ| शरीर,मस्तिष्क और आत्मा में तेरा साक्षात् निवास चाहता हूँ| बोल स्वीकार है माँ ?

- माँ! शक्ति के क्षेत्र में तेरी सर्वोतमता की परम्परा को मैं जीवित रखना चाहता हूँ| एक अजेय और अखंड शक्ति का निर्माण मेरे जीवन का परम लक्ष्य है| यह कैसे होगा माँ ? मेरे अकेले के शक्ति-संपन्न होने होने से ? नहीं| समाज के प्रत्येक घटक को समान रूप से शक्ति-शाली बना कर सांघिक शक्ति का निर्माण करने से| तो इसके लिए जीवनव्यापी और जीवनपर्यन्त साधना की आवश्यकता होगी| कैसे प्रारंभ करूं इस साधना को मैं??

Wednesday, October 26, 2011

मेरी साधना -17

- मेरे देखते ही देखते वह समाज-भवन ढहने लगा| भगवान राम और कृष्ण, कर्ण और युधिष्टर, बुद्ध और चंद्रगुप्त का समाज इतना निर्बल, पंगु, साहसहीन, निर्लज्ज और मूढ़ निकलेगा;- यह विचारातीत था| पर मैंने देखा उसका चतुर्मुखी पतन उन आँखों से जिनसे कभी विश्व-विजय, वैभव-विलास और सर्वोत्कर्ष के सुखद युग देख चुका था| मैं लज्जित हूँ; कुछ भी नहीं कर सका|
कायर की भांति मैंने अपने शत्रुओं को कोसना आरम्भ किया| मैं तिलमिला उठा पर क्रोध से नहीं, वेदना से|


- मैं अपने समाज भवन को ढहता देख चिल्ला उठा,- हाँ देव! यह कैसी दुर्दशा है मेरे समाज की| बिना कारण ही कार्य हो रहा है- यह क्यों?

"तू पागल है, इतना भी नहीं समझता कि इसने अपनी उपयोगिता खो दी है| अनुपयोगी को साथ रखकर अस्तित्व जीवित नहीं रह सकता;- यह विधि का अटल नियम है|"
देव की इस वाणी को मैंने सुना अवश्य पर समझा बहुत विलम्ब से!


-यह उपयोगिता क्या है,कोई समझाओ तो इसे| इतने में इतिहास बोल उठा,-

"जड़ और चेतन, चर और अचर, स्थूल और सूक्ष्म, जीव और जगत के जीवन-अस्तित्व की एक मात्र शर्त;- ईश्वरीय विधान में सहायक होने वाला गुण|"

ओह! अब समझा| तब तो स्व-धर्म का पर्यायवाची ही कहना चाहिए इसे| मेरे समाज को जीवित रहने के लिए इसे तो ग्रहण करना ही पड़ेगा| इस गूढ़ रहस्य, परम तत्व को जानते हुए भी मैं कैसे भूल गया था! मैं कितना भोला हूँ!


-मेरे समाज के भौतिक अध्:पतन और उसकी मानसिकता पराजय का पर्यायवसान उसकी आत्म-दुर्बलता और निराशामुलक मनोदशा के रूप से मेरी साधना पर भी पड़ा है| इसीलिए तो मेरी साधना आज मंद-गामिनी हो स्थिर-स्थित सी हो रही है| तब समाज का आवश्यक अंग बना कर कार्य करना पड़ेगा, क्योंकि मेरी साधना परिस्थिति-निरपेक्ष होते हुए भी समाज-सापेक्ष है|

लेखक : स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील

Friday, October 21, 2011

मेरी साधना -16

-मैं सुनूं - अपने पूर्वजों का उपालम्भ,ऋषियों का आदेश,राष्ट्र की पुकार,समाज क्रन्दन,दुष्टों का अट्टहास और आत्मा की ध्वनि|

मैं देखूं- विध्वंस का नृत्य, सर्व-नाश का दृश्य, सत्य का दमन और जीवन का पतन|

अनुभव करूं- इनके प्रति भारी उत्तरदायित्व को, मोटी ऋण राशि को, कृतज्ञता और अल्पज्ञता को|

प्रयत्न करूं - उत्तरदायित्व वहन करने का, ऋण से उऋण होने का, कृतज्ञता-प्रकाशन और अल्पज्ञाता विसर्जन का - आत्मा की आहुति और जीवन का दान देकर|


- मैंने अपने समाजालय को खूब टटोला तो क्या देखता हूँ- वह तो बहुत पहले ही जीर्ण हो चूका है| इसकी नीवों में दीमक और प्राचीरों में आद्रता व्याप्त है| छत के मानसिक तंतु अत्यंत ही अस्तव्यस्त होकर अंदर निषिद्ध तत्वों को प्रवेश करा रहे है| और साथ-साथ यह आलय तो भीतर से अपवित्र भी है|

तो कैसे स्थापना करूं इसमें अपने आराध्य-देव को?
मुझे बाह्य स्वरुपाकृति से वास्तव में धोखा हो गया था|

लेखक : स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील

Wednesday, October 19, 2011

मेरी साधना -15

-मैंने अमरता और क्षणभंगुरता के रहस्य को समझ लिया है| स्व-धर्म रूपी अमृत के आस्वादन से मैं देवत्व की अमर योनि का अधिकारी और धर्म-विमुखता रूपी गरल-सीकर पान कर मृत्यु का ग्रास बन सकता हूँ|
तो मैं क्या करूं?- मैं मृत्यु और जीवन दोनों का रसास्वादन करना चाहता हूँ;- मर कर भी जीवित रहना चाहता हूँ|मैंने सत्य से साक्षात्कार कर लिया है,- देखो,प्रतिध्वनि उठती है- "वीर एक बार मर कर अमर हो जाता है पर कायर हजार जीवन जी कर भी मर जाता है|"


-धर्म का कारण, अर्थ का साधन, काम का उपाय और मोक्ष का सोपान समस्त कारणों के कारण की भांति केवल एक ही है- क्षात्र-धर्म|
ज्ञान की शुष्कता में जीवन का माधुर्य कहाँ? भक्ति की साधना में कर्तव्य का बोध कहाँ? कर्म अकेला जड़ है| इन तीनों का सुन्दर संगम; मनुष्य की समस्त ज्ञानात्मक, रागात्मक और कर्मात्मक प्रवृतियाँ और कियाओं का प्रश्रय-स्थल;- लौकिक और आध्यात्मिक शक्तियों का समन्वय-केन्द्र;- सर्व-कल्याण का मूल स्त्रोत कौन है?
केवल क्षात्र धर्म|


-स्वतंत्रता जिसका सुन्दर परिधान; स्वाभिमान आत्मा और गौरव जीवन है| वह परतंत्रता,पराजय,अपमान और अपयश को ग्रहण नहीं कर सकता| स्वार्थ,भीरुता और अकर्मण्यता काले नाग से भी अधिक भयानक है| कारण कि वह तो केवल मनुष्य के शरीर को ही डसता है पर ये उसके शरीर,आत्मा और यश तीनों को का नाश कर देते है|


-हम देख नहीं रहे है संघर्ष की उस चिर परम्परा को! धर्म और अधर्म,सत्य और असत्य,न्याय और अन्याय,भलाई और बुराई का अस्तित्व क्या समाप्त हो गया?
दैवी और दानवी शक्तियों का द्वन्द किस युग में नहीं हुआ; किस युग में नहीं होगा? फिर कौन कह रहा - अब क्षात्र-धर्म की आवयश्कता नहीं?
वे लोग ईश्वरीय विधानको समझने में असमर्थ है और वे लोग भी जो जानते नहीं कि यह संसार द्वंद्वात्मक है|

स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील : परिचय

Monday, October 17, 2011

मेरी साधना -14

- जरा समझूँ भगवान के मंगलमय विधान को| विष्णु शक्ति का आव्हान करूं| अमृत रूपी तत्वों की वृद्धि,पोषण और रक्षण में योग दूँ| उन्हें क्षय से बचाऊं| क्षत्रिय-संज्ञा को सार्थक करूं| फिर मैं ही रूद्र बनकर विषरूपी तत्वों का संहार करूं| मेरे प्रचंड आघातों से विप्लव का कलेजा फट जाए; कठोर हुंकारों से प्रलय का हृदय दहल उठे,- सर्वनाश का महातांडवी दृश्य उपस्थित हो जाय|
यह मेरे धर्म की प्रकृति है| इसे सोचूं,समझूँ,अनुभव और धारण करूं|


-मैं सुनता क्यों नहीं इस पुकार को! देखो- कितनी असहायता,कायरता.दीनता,विवशता और वेदना है! इसमें मेरा सोया वीरत्व जाग उठे;- प्रलयकालीन मेघ की भांति मैं गर्जन कर उठूँ;- देश की सीमाओं का अतिक्रमण कर,परिस्थिति-बंधनों को तोड़कर, काल के कुचक्र की अवहेलना कर, दुष्कर्मकर्ता का संहार करूं; क्षात्र-धर्म के औचित्य और उसकी आवश्यकता का सिक्का जमाऊं;- उसके देश,काल और परिस्थिति-निरपेक्षता के स्वभाव को सत्य सिद्ध करूं|
हुतात्माएँ मेरी सहायता करें|


-देखो! - मेरे लिए स्वर्ग के द्वार खुले है; अप्सराएँ वर-माला लिए हुए प्रतीक्षा कर रही है मुझे वरण करने को| धर्म-युद्ध का दुर्लभ और अमूल्य अवसर उपस्थित हुआ है| मेरा परम सौभाग्य है! तो वीरोचित रूप से मृत्यु का आलिंगन कर जीवन के अमरत्व को सहज ही में क्यों न प्राप्त करलूं|
एक क्षत्रियोचित मृत्यु लाखों जीवनों से श्रेयष्कर है पर लाखों जीवन एक ऐसी मृत्यु बिना व्यर्थ है;- ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक सूर्य के बिना समस्त ग्रह और नक्षत्र मंडल| इस सत्य को न भूलूं|


-आचरण-हीन ज्ञानी ईश्वर द्वारा प्रेषित संघर्ष के कटु अवसर से बचने के लिए सदैव ज्ञान का दुरूपयोग करते है| वे अपनी आत्म-दुर्बलता, सुषुप्त भीरुता और परिस्थितिजन्य विवशता को तर्क और विश्वास की ढाल के नीचे छिपा कर स्वयं के बचाव का आयोजन करते है| पर मुझे समझना होगा कि संघर्ष-विमुख होने से वह अपकीर्ति होगी जो सहस्त्रों कुम्भीपाक नरकों से कहीं अधिक भयावह है|
स्वाभिमान से जिऊ और गौरव से मरुँ| अपकीर्ति तेरा नाश हो!

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Sunday, October 16, 2011

मेरी साधना -13

-चेतना के स्वाभाविक जागरण से सब जाग उठे; ज्ञान की उज्जल प्रदीप्ति से सब दीप्त हो जाएँ; स्फूर्ति के मंगलमय प्रांगण में सब प्रवेश कर जाएँ;- सबको कर्तव्य-पथ-गामी बनाने के लिए शंखधारी विष्णु के गुणों को मैं धारण करूँ;- उद्बोधन का महा-शंख बजाऊं;- महानिशा की समाप्ति का ढिंढोरा पीटूं| प्रकाश,जागृति और ज्ञान का अखंड साम्राज्य हो तब|

मेरे मानस के गूढ़तम प्रदेश की निश्छल पुकार है! माँ, शक्तिवर दे!


-मैं शासित-पराये हाथ की कठपुतली क्यों? अन्यों के साध्य-पूर्ति का साधन क्यों? राजनीती मेरी चेरी पर अब मैं उसका दास- नहीं खिलौना? यह असह्य है देव ! सुदर्शन चक्र चलाने का सामर्थ्य प्राप्त करूँ; शत्रुओं के गर्व का चक्र को कलेवा दूँ;- राजनीती मेरे चक्र द्वारा संचालित और नियंत्रित हो; मेरा उस पर शत प्रतिशत अधिकार और वश हो|
यह मेरे धर्म का आदेश का है;- शिरोधार्य करना मेरा धर्म है| यह तुच्छ अभिलाषा पूर्ण हो देव!


- मैं अपने स्वभाव को भूल गया हूँ इसीलिए चारों ओर पृथ्वी दस्युओं से परिपूर्ण, अधर्म से आवृत, दीनों के करुण-क्रंदन से कम्पायमान, असहायों की विवशताभरी चीत्कार से गुंजित हो कातर दृष्टि से निहार रही है| विष्णु की प्रबल गदा मेरे हाथ का आयुद्ध बनकर इन दुष्टों का मस्तक विदीर्ण करे| तब मैं माँ दुर्गा को शोणित,मांस और मज्जा का रुचिकर भोग लगाऊं;-
भगवान रूद्र के गले को रुंड-मालाओं से सजाऊं|


- मैं एक विचित्र सामंजस्य करना चाहता हूँ| आसक्ति-रहित होकर सभी कर्मों को करना चाहता हूँ;- भोग लिप्सा में निर्लिप्त रहते हुए सभी भोगों को भोगना चाहता हूँ;- बिना उन्मत्त हुए एश्वर्य-सूरा का छक कर पान करना चाहता हूँ| मैं कीचड़ में जन्म लेकर भी; जल की सत्ता में निवास करके भी सदैव उसके धरातल से ऊपर उठा हुआ रहना चाहता हूँ| कमलापति भगवान विष्णु के करकमल का यही तात्पर्य है; विदेह राज जनक के विदेह्त्व का यही अर्थ है|


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Friday, October 14, 2011

मेरी साधना -12

-पर मुझे आवश्यकता है धर्म के व्यावहारिक स्वरूप की; उसके मूर्तिमान अस्तित्व की,- गोचर,व्यक्त,प्रकट और स्थूल की उपासना की| मैं समाज-सीमाओं में आबद्ध समाज-धर्म से आगे जा भी नहीं सकता| क्षितिज के उस पार,अवनि के कोलाहल से परे नि:स्तब्ध एकांत साधना मेरे-गुण स्वभाव के प्रतिकूल पड़ती थी|

अतएव मैं परम्परा से परीक्षित,आत्मा से स्वीकृत और हृदय से समर्थित उस गोचर तत्व का उपासक बन पड़ा जिससे भारतीय इतिहास की 'मधुमयी भूमिका' का जन्म, पोषण और रक्षण होता आया है|



-व्यष्टि रूप में हित-साधन की कामना-डोर को विद्रोही बनकर मैंने तोड़ने का प्रयत्न किया| मैंने समष्टि में ही व्यष्टि का हित समाहित पाया| परमेष्टि मेरी दृष्टि में समिष्टि का ही विराट रूप है| अतएव मेरी साधना का आधार वह समाज रूपी समष्टि बना जिसमे मैं जन्मा और परिपोषित हुआ;-

जिसके गौरव से मेरी देह और आत्मा का अणु-परमाणु पुलकित,गौरान्वित और त्वरित हो उठा था;- जिसको पाकर मैंने जीवन की सार्थकता ही प्राप्त करली थी|


-जानता के सम्पूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाले व्यापकत्व को लिय हुए; कर्म-सौन्दर्य की योजना के सभी संभव रूपों से नियोजित;- शक्ति और क्षमा, वैभव और विनय, पराक्रम और माधुर्य, तेज और कोमलता, सुख-भोग और दुःख-कातरता,प्रताप और कठिन-धर्म-पथ-आलम्बन आदि परस्पर विरोधी गुणों से युक्त;- अनेकत्व में एकत्व की सत्ता का प्रतीक;-
क्षात्र धर्म मेरा समाज-धर्म,स्व-धर्म और स्वाभाविक कर्तव्य है|


-शौर्य,तेज,धैर्य,युद्ध-प्रियता,दानशीलता और प्रजा के प्रति ईश्वरीय भाव के आदर्श माप-दंड- क्षात्र-धर्म रूपी कर्म को मैं स्वाभाविक रूप से आत्मसात करूँ| मेरी यह प्रार्थना स्वीकार हो;- इस जीवन के लिए भी और भावी जीवन के लिए भी;-
सुख में भी दुःख में भी|


क्रमश:

Thursday, October 13, 2011

जय जंगलधर बादशाह

उस दिन बादशाह औरंगजेब लम्बी बीमारी से उठ कर पहली बार दरबार में आया था | दीवाने ख़ास का वह दरबार खचाखच भरा हुआ था | बीमारी की थकावट और साम्राज्य की नित नई उत्पन्न होती समस्याओं के कारण बादशाह का चेहरा गंभीर था | बादशाह ने मयूर सिंहासन पर बैठकर ज्योंहि अपनी दृष्टि चारों और दौड़ाई,उसे एक विशेष दूत सामने आता हुआ दिखाई पड़ा | दूत ने दरबारी शिष्टाचार के अनुसार झुक कर अभिवादन किया | बादशाह ने गंभीर स्वर में पूछा -
" कहाँ से आ रहे हो ?"
"अजमेर से जहाँपनाह |"
और दुसरे क्षण उसने एक बंद लिफाफा बादशाह के हाथ में दे दिया | ये पत्र अजमेर के सूबेदार की और से बादशाह की सेवा में भेजा गया था | उस पत्र में कई बातें लिखी हुई थी,किन्तु बादशाह की दृष्टि एक वाक्यांश पर जाकर उलझ गई | वह वाक्यांश क्या था -
" उदयपुर के महाराणा राजसिंह का देहांत हो गया है और ......|"
उसने इस वाक्यांश को कई बार पढ़ा | उसकी गंभीर मुखाकृति प्रसन्नता की असाधारण मुद्रा में बदल गई | बहुत ही कम अवसरों पर उस कूटनीतिज्ञ बादशाह के आंतरिक भाव अनुभावों के रूप में प्रकट होते थे | पर उस दिन वह अपने चेहरे पर अठखेलियाँ करती हुई प्रसन्नता की रेखा को छिपा नहीं सका | सभी चतुर दरबारियों ने अनुमान लगा लिया था कि उस पत्र में कोई असाधारण प्रसन्नता सूचक संवाद अवश्य था | बादशाह कुछ देर तक उसी मुद्रा में बैठा -बैठा सोचता रहा फिर उसने कहा -
" अब दरबार बरखास्त किया जाता है |"
और उठकर वह अपने निजी कक्ष में चला गया |
उसी रात्री के दुसरे प्रहर में बादशाह के निजी कक्ष में शहर काजी और सुन्नी सम्प्रदाय के कुछ प्रतिष्ठित मौलवियों की एक गुप्त मंत्रणा हुई | उस मंत्रणा में वाद-विवाद बिलकुल नहीं हुआ | केवल भावी योजना को क्रियान्वित करने के दो -तीन सुझाव आये | बादशाह ने उन सब सुझावों का समन्वय करते हुए व्यवहारिक योजना की रूप रेखा सब को बतला दी | जब वे लोग मंत्रणा कक्ष से बाहर निकले,तब उनके चेहरों को किसी किसी अज्ञात प्रसन्नता की हिलोरें थपथपाकर प्रफुल्लित बना रही थी |

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मेरी साधना-11

स्वमाता और मातृत्व-आरोपित अन्य स्त्री में वात्सल्य का मूल स्रोत एकसा होते हुए भी उसका उपयोग स्व पर आकर भिन्न भिन्न हो जाता है| स्वमाता और विमाता का भी अंतर प्राकृतिक है| यही अवस्था और संबंध स्वधर्म और विश्व धर्म की है; - यही प्राकृतिक अंतर स्वधर्म और पर-धर्म में है| अतएव मुझे समझना होगा कि मानव-धर्म और स्वधर्म के मूल सिद्धांत एक होते हुए भी मेरे लिए केवल स्वधर्म ही कल्याणकारी है-
धर्म में स्व का अंश ही महत्त्वपूर्ण है|



विश्व प्रेम का प्रदर्शन और मानवता के कल्याण की बातें मेरी दृष्टि में पाखंड और राजनैतिक छल मात्र है| मेरी पहुँच के बाहर,शून्य के उच्च धरातल पर स्थित उच्चादर्शों और गुढ़ सिद्धांतों की गठरी से मैंने अपने मस्तिष्क को अनावश्यक रूप से बोझिल करना स्वीकार नहीं किया - इसलिए कि ऐसी भावना महान होने के कारण स्तुत्य तो है पर अव्यवहारिक और असंभव होने के कारण त्याज्य भी |


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Monday, October 10, 2011

पवित्र पर्व - 2

भाग-1 से आगे-

जिस समय प्राची के पर्दे में से सप्तमी का चन्द्रमा मुँह निकालकर झाँकने लगा था| ठीक उसी समय ५०-६० घुड़सवार भगवान वाराहजी के मंदिर के सामने जाकर उतर पड़े| थोड़ी देर विश्राम कर लेने के उपरांत फिर वे घोड़ों पर सवार हुए और पुष्कर के पूर्वी घाटों पर विश्राम करती हुई शाही सेना पर उसी समय टूट पड़े| बात की बात में उन्होंने सैकड़ों मुसलमानों को तलवार के घाट उतार दिया और सब गायों को बंधन-मुक्त कर दिया| इस अचानक आक्रमण से चोट खाकर अब शाही सेना भी सावधान हो चुकी थी| उसने भी चांदनी के खुले प्रकाश में प्रत्याक्रमण कर दिया| दोनों ओर से भयंकर मारकाट होने लगी| रात्री की निस्तब्धता को चीर कर पुष्कर की सुनी गलियों में टकराती हुई- "जय वाराह,जय पुष्कर राज," "अल्लाहो अकबर" की ध्वनि,प्रतिध्वनि ने आसपास के समस्त गांवों को सजग और सतर्क कर दिया| सप्तमी की सारी रात और अष्टमी के सारे दिन यह युद्ध होता रहा| पुष्कर की समस्त गलियां रक्त के कीचड़ से सन चुकी थी| अष्टमी का सूर्य पश्चिम क्षितिज में ज्योंही गोता लगाने की तैयारी कर रहा था, त्योंही पश्चिम क्षतिज पर से धूलिका का एक बादल-सा उठता हुआ दिखाई पड़ा| सैकड़ों कंठो से एक साथ निकला रहा था -

"रण बंका राठौड|"

वाराहजी के मंदिर के दरवाजे से घोड़ा लगाकर लड़ते हुए राजसिंह से एक सवार ने आकर कहा-

"सावधान ! कुंवर केशरीसिंह रियां,ठाकुर गोकुलसिंह बजोली,ठाकुर हठीसिंह,जगतसिंह,सुजाणसिंह आदि अपनी-अपनी सेनाओं को लेकर आ पहुंचे है|"
इतने में और भी समीप आती हुई ध्वनि सुनाई दी-

"रण बंका राठौड|"

राजसिंह ने खिसककर आँखों पर आये हुए मोड़ को ऊपर खींचते हुए प्रत्युतर दिया-

"रण बंका राठौड|"

और दूसरे ही क्षण वे घोड़ा कूदा कर शाही सेना के मध्य में जा पहुंचे|

जब कुंवर केशरीसिंह रियां और अन्य सरदार युद्ध स्थल पर पहुंचे तब उन्होंने देखा कि एक बिना सिर का दूल्हा-योद्धा शाही सेना से घिरा हुआ दोनों हाथों से तलवार चला रहा था| फिर एक भयंकर उदघोष हुआ-"रण बंका राठौड|"प्रत्युतर आया "अल्लाहो अकबर" और खचाखच सपासप तलवारे चलने लगी गयी| उस रात्रि को भी भयंकर मारकाट होती रही| भगवान कृष्ण के जन्म महोत्सव को तलवारों की खनखनाहट के बीच युद्ध-घोषों की वीरोचित ध्वनि के द्वारा मनाया गया| नवमी के दिन भी इसी प्रकार पुष्कर के घर-घर के सामने युद्ध होता रहा| समस्त गलियां लाशों से भर गई| पुचकार राज की पवित्र भूमि हिंदू-मुश्लिम रक्त से रंजित होकर और भी पवित्र होती गई|

नवमी की संध्या को एक घुड़सवार अलसाई हुई चाल से आलनियावास की ओर जा रहा था| वह मार्ग में पूछने वालों को उत्तर दे रहा था-

"आलनियावास के कुंवर राजसिंहजी,आनंदसिंहजी,चतुरसिंहजी,रूपसिंहजी.रियां के कुंवर केसरीसिंहजी,बाजोली के ठाकुर गोकुलसिंहजी,तथा ठाकुर हठीसिंघजी,जगतसिंघजी,सुजाणसिंहजी आदि मेड़तिया सरदार वीरगति को प्राप्त हो गए है|

और थोड़ा रूककर वह फिर कहता था- " तहव्वरखां की पूरी सेना मारी गयी है और वह भागकर तारागढ़ पर चढ़ गया है|"

समाप्त

Sunday, October 9, 2011

पवित्र पर्व- 1

संवत १७३७ विक्रमी के भाद्रपद मास की कृष्ण सप्तमी का दोपहर ढल चूका था| बादलों की शीतल छाया के नीचे आलनियावास की नदी में कुंवर राजसिंह सिर पर मोड़ बांधें दूल्हा के भेष में घोड़ी पर सवार होकर देवपूजन को जा रहे थे| पीछे दो रथ थे,जिनमे से एक में दुल्हन और उसकी सहेलियां बैठी थी|दूसरे रथ में अन्य स्त्रियां बैठी मांगलिक गीत गा रही थी| आगे कलावन्त सारंग राग अलाप रहा था| मांगलिक ढोल बज रहे थे|सारे आलनियावास गांव पर विवाहोत्सव और मांगलिक अनुष्ठानों की बहार-सी छाई हुई थी|

ठीक उसी समय हांफते हुए घोड़े पर एक सवार अजमेर की ओर से आया| उसने आगे बढ़कर कुंवर राजसिंह से कुछ कहा|थोड़ी देर तक उन दोनों में परस्पर वार्तालाप होती रही| कुछ ही क्षणों में मांगलिक गायन बंद हो गए| ढोलियों ने ढोल की ताल को बदल दिया| कलावन्त की राग का सुर भी बदल गया|

ठाकुर प्रतापसिंहजी गढ़ में एक बुर्ज पर चढ़कर वर्षा की संभावना पर विचार कर रहे थे| सहसा उन्होंने ढोल की बदली हुई ताल और कलावन्त के बदले हुए सुर को सुना|उन्होंने मन ही मन कहा-
"है,यह क्या?"उन्होंने फिर सावधानीपूर्वक कान लगाया| बात सच थी| विवाह के मांगलिक ढोल के स्थान पर अब मारू ढोल बज रहा था|कलावन्त की सिंधु राग उनके कानों में स्पष्ट आ रही थी|

"यह क्या उपद्रव खड़ा हो गया?यह क्या रहस्य है?रंग में यह भंग कैसा?" उन्होंने अपने आपसे यह प्रश्न पूछ डाले| उन्हें कुछ भी समझ नहीं आ रहा था| उन्होंने ज्यों ही दरवाजे की ओर देखा-कुंवर आनंदसिंह घोड़े को सरपट दौड़ाते हुए आते हुए दिखाई दिए| आनंदसिंह घोड़े से उतरे ही नहीं थे कि उन्होंने आतुरतावश पूछ लिया-"आनंद!यह क्या बात है,विवाह के देवपूजन के शुभ अवसर पर इस मारू ढोल और सिन्धु राग का क्या प्रयोजन?"आनन्दसिंह ने घोड़े पर चढ़े चढ़े ही उतर दिया-"अजमेर का फौजदार तहव्वर खां मेड़ता की पराजय का बदला लेने के लिए एक बड़ी सेना के साथ पुष्कर आ ठहरा है|कल कृष्ण जन्माष्टमी के दिन वह पुष्कर के पवित्र घाटों पर एक सौ गायों की कुर्बानी देगा| भगवान वाराहजी के मंदिर को ध्वंस करेगा,तथा ब्राह्मणों का कत्लेआम करेगा|"
ठाकुर प्रतापसिंहजी के मुँह से इतना ही निकला-"है,तब तो बड़ा अन्याय होगा और दूसरे क्षण वे गहरी विचार तन्द्रा में मग्न हो गए|

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बादशाह औरंगजेब का राजपूतों के अत यह युद्ध का समय था| जमरूद के थाने पर औरंगजेब ने विष देकर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह को मरवा दिया था और मारवाड़ पर अपनी सेना भेजकर उसने अधिकार कर लियाथा| बालक महाराज अजीतसिंह को वीरवर दुर्गादास आदि स्वामिभक्त सरदारों की सरंक्षण में सुरक्षित करके राठौड सरदारों ने मुगलों के थानों पर आक्रमण शुरू कर दिए थे| जोधपुर,सोजत,डीडवाना,सिवाना आदि शाही थाने लूट लिए गए थे|

यही सुनकर कुंवर राजसिंह ने भी अपने साथी मेड़तिया राठौड सरदारों को इकट्ठा करके मेड़ता पर आक्रमण कर दिया और वहां के शाही हाकिम सदुल्लाहखां को मारकर लूट लिया था| इस घटना के तुरंत बाद ही कुंवर राजसिंह का विवाह हो गया था|उस समय मेड़ता अजमेर सूबे में था|जब अजमेर के सूबेदार तहव्वरखां के पास मेड़ता की दुर्दशा का संवाद पहुंचा,तब वह आग बबूला हो उठा| उसी समय बादशाह औरंगजेब की हिंदू-मंदिर तोड़ने की नीति भी पुरे भारतवर्ष में दृढ़ता के साथ क्रियान्वित की जा रही थी| तहव्वरखां इस अवसर से दोहरा लाभ उठाना चाहता था| वह जन्माष्टमी के दिन पुष्कर के घाटों पर गायों की कुर्बानी कर तथा वाराहजी का मंदिर तोड़ कर पुण्य लाभ भी करना चाह रहा था और वहां से आगे बढ़कर राठौड़ों को दंड देता हुआ मेड़ता पर पुन:अधिकार करना चाहता था| इसीलिए एक सौ गायों को साथ लेकर जन्माष्टमी से दो दिन पहले ही एक बड़ी सेना सहित पुष्कर में आकार ठहर गया|

जन्माष्टमी के दो दिन पहले पवित्र धाम पुष्करराज पर मृत्यु की काली छाया पड़ चुकी थी| वह कालांतर में और भी घनीभूत होकर मृत्यु के महाभायावाने स्वरुप का प्रत्यक्ष सृजन करने में सफल हो रही थी| इसी प्रत्यक्ष प्रलय से चरों ओर मृत्यु के पहले की निराशा,विवशता और भयंकरता दिखाई दे रही थी| लोग भयातुर हो अपने-अपने घर छोड़कर भाग रहे थे|
समस्त तीर्थों के गुरु पुष्करराज ने निराशापूर्ण नि:श्वास छोड़ते हुए कदाचित सोचा होगा-

"समस्त पापों के क्षय की कामना लेकर यहाँ स्नान करने वाले वाले करोड़ों मनुष्यों में से पवित्रता को बचाने वाला क्या एक भी नहीं है? गौभक्त भगवान कृष्ण के जन्म-दिन पर कुर्बानी की प्रतिज्ञा में गायों से भर्राये हुए,असहाय कंठो से क्या यह मूक आर्तनाद नहीं निकला होगा-

"दिलीप और कृष्ण की संतानों में से कोई शेष रहा हो तो आओ और इस समय रक्षा करो|"

भगवान वाराहजी ने क्या इसी दिन को अपने सच्चे भक्तों की परीक्षा का दिन नहीं चुना होगा|ब्राह्मणों ने ठीक इसी समय भगवान को अपने इन वचनों का स्मरण अवश्य दिलाया होगा_
"पारित्राणाय साधुनाम"


और ठीक ये सब बातें एक घुड़सवार थोड़े समय पहले कुंवर राजसिंह मेड़तिया को कह चूका था| क्षण-प्रतिक्षण सिन्धु राग की ध्वनि तीव्र और घनीभूत हो रही थी|इतने में कुंवर आनंदसिंह ने वापिस आकर कहा -

"दादाभाई,पिताजी ने कहलाया है कि पहले देव-पूजन कर लीजिए और फिर इस विषय पर सब मिलकर सोचेंगे|"
"वास्तव में मैं देव-पूजन ही करने जा रहा हूँ आनंद!तुम भी साथ आ जाओ| तीर्थराज पुष्कर जैसे पुण्य-स्थल में जन्माष्टमी से पवित्र पर्व पर गौ-माता की प्राण रक्षा,भगवान वाराहजी के मंदिर की प्रतिष्ठा-रक्षा,ब्राह्मणों की भय से मुक्ति और साथ के साथ स्वामी का बदला लेने का दुर्लभ अवसर अति भाग्यवान क्षत्रिय के अतिरिक्त किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकता,आनद!"

"किन्तु एक बार गढ़ में तो चलिए|"
"गढ़ में अवश्य चलता पर केसरिया कर लिया है,इसलिए लौटकर जाना पाप है|"
"यह केसरिया तो विवाह के निमित्त है,न कि युद्ध के निमित्त|"
"मैंने संकल्प द्वारा इन्हें युद्ध निमित्त ही मान लिया है|"

आनंदसिंह ने ये सब बातें आकर अपने पिता से कह दी| पिता ने सगर्व कहा-
"कोई बात नहीं यदि उसकी ऐसी ही इच्छा है तो तुम,चतरसिंह,रूपसिंह भी उसके साथ ही चले जाओ|"
थोड़ी देर में तीनों भाई और गढ़ के अन्य बचे खुचे लोग भी पुष्कर राज की ओर प्रयाण कर गए| मार्ग में उन्हें लौटते हुए जनाना रथ मिले| अब उनमे विवाह के मांगलिक गायनों के स्थान पर समर-प्रयाण के समय के मांगलिक-गीत गाये जा रहे थे| पहले दुल्हन लज्जावश चुप थी,पर अब वह उल्लासपूर्ण ढंग से इन गीतों में स्वयं योग दे रही थी|

क्रमश:..............

मेरी साधना-10

मेरी साधना का एक मात्र साध्य,मेरी जीवन-यात्रा का अभीष्ट स्था,मेरे बहुमुखी शक्ति-स्त्रोत का अवसान केंद्र,मेरी कामनाओं का स्वर्णिम लक्ष्य,मेरे प्राकृत स्वभाव का शांतिमय विचरण स्थल-मेरा कर्तव्य अंशी के अनादि विधान का वह अंश है जिसकी प्राप्ति,पूर्ति और पूर्णता में मेरे प्राकट्य का लक्ष्य,अस्तित्व की सार्थकता,जीवन की इतिश्री दूध में पानी की भांति अन्तर्निहित,शून्य में नक्षत्रों की स्थिति की भांति अंत:आश्रित है|
मैं उसके लिए और वह मेरे लिए है|

अविरल आत्म-मंथन,निरंतर भाव-विलोडन,सम्यक स्व-निरिक्षण,पूर्ण हृदय-परिक्षण द्वारा उपलब्ध तत्व और वेदों के अध्ययन,दर्शनों के चिंतन और इतिहास के मनन स्वरुप प्राप्त परिणाम-तत्व में विभिन्नता की सीमा रेखा का सर्वथा अभाव दिखाई दिया| ईश्वर द्वारा प्रसूत संदेश भी उसी तत्व की अभिव्यक्ति का कलात्मक रूप था|नाम रूपात्मक भेद असत्य सिद्ध हुआ|स्वधर्म और कर्तव्य की एकात्मा के दर्शन से आत्म-चक्षु आनंद-विभोर हो उठे,बोले-
"यही एक सत्य है|"

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Saturday, October 8, 2011

मेरी साधना-9

इस बार तर्क को श्रद्धा और विश्वास का सहगामी बनना पड़ा|श्रद्धा और विश्वास को ज्ञान के प्रति नमनशील होना पड़ा|तब एक अस्पष्ट,धूमिल एवं दूरस्त तत्व स्पष्टता,प्रकाश और निकटता की सीमा में प्रवेश करते देखा गया|निकटता की अंतिम परिधि का अति- क्रमण करने के उपरांत ज्ञात हुआ,-यही तो वह अमर तत्व है,जिसे मेरी उत्पत्ति के पहले ही ईश्वर ने मुझे दे दिया था,पर जिसकी पहचान मैं अब तक नहीं कर सका था|
उसकी उपलब्धि से मैं कृत-कृत्य हो गया|
वह था मेरा कर्तव्य-ज्ञान|

Thursday, March 31, 2011

मेरी साधना -8

पर भागवत-सन्देश का अमर अंकुर मेरे हृदय -स्थल पर प्रस्फुटित हो चला था | इस बार मैंने उसे श्रद्धा और विश्वास के जल से सींचाना प्रारंभ किया | देखा- सफलता की अदभुत सम्भावना है इस प्रयोग में | शीतलता,स्निग्धता,अनुकूल आहार पेय और रक्षण के वातावरण में परिपोषित यह पौधा आशातीत वृद्धि को प्राप्त होने लगा | अपूर्ण तर्क ने पुन: आपत्ति की,पर " तुम्हे भी अपना उचित स्थान मिलेगा |" कह कर उसे चलता किया |

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मेरी साधना -7

फिर भी मैं सत्य प्रतीत होने वाले मिथ्यावादों की और उन्मुख होता गया | मैंने उदघोष किया-
" ये धर्म-शास्त्र मिथ्या है;- यह समाज-विधान रूढी ग्रस्त है ; - यह परम्परा विज्ञानं-सम्मत और पूर्ण नहीं है |"
प्रतिक्षण नवीनता की खोज में मैं पूर्णता से अपूर्णता की और खिंचता ही गया | कारण समझने की चेष्टा की तो ज्ञात हुआ मैं उस श्रद्धा और विश्वास को बहुत पहले ही खो चूका था जिनका सहारा लेकर ज्ञान स्थायित्व के दृढ आसन पर आरूढ़ होता था |

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Saturday, March 26, 2011

मेरी साधना- 6

मैंने उस अमर राग में प्रसारित सन्देश को बौद्धिक कसौटी पर कसा | व्यभिचारिणी बुद्धि ने अंग-प्रत्यांग प्रदर्शनों से मुझे भ्रमित किया | उसकी विवध भाव-भंगी और धूर्त चेष्टाएँ मेरी आत्मा की संकल्पात्मक स्थिरता को चलायमान करने में फलीभूत हुई | मै उस मोहिनी बुद्धि के पीछे खूब दौड़ा ; - उसके आदेशों का यथाविधि पालन किया पर प्राप्त हुई -
"केवल अपूर्णता की |"

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मेरी साधना- 5

एक स्वर्णिम प्रभात मेरा मानस-मयूर मुग्ध हो अकस्मात नाच उठा | उसने अपने रत्न जडित उत्साह-पंख फैलाकर अज्ञात प्रसन्नता का आत्म-स्फुलिंग के रूप में प्रत्युतर दिया | प्रकृति का अणु-परमाणु भावी आनंद का संदेशवाहक बन पड़ा | मधुर और वेगवती ध्वनि वितरण करती हुई मंगलवती आत्म-वीणा झंकृत हो उठी |
वादक था स्वयम परमेश्वर;सन्देश था साध्यज्ञान और राग थी सत्य-वाहिनी |

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Thursday, March 24, 2011

मेरी साधना- 4

मेरे मानस-प्रदेश पर भौतिक विफलता के अवसान की सरिता दो धाराओं में प्रवाहित होने लगी | आत्म-विसर्जन की धारा का उदगम मेरे मानस-स्थल का क्षुद्र अहं था | कर्म-त्याग की प्रेरक शक्ति थी मेरे द्वारा अनुभूत ज्ञान की अपूर्णता | अंतरद्वन्द की आंधी से मेरी आत्मा कम्पित हो उठी | भीतर का सत्व विजयी हुआ,- बोला---
" दोनों ही मार्ग असत्य है | साधक ! और प्रयत्न कर - वह स्थल दूर नहीं है,जहाँ सत्य और प्रकाश अखंड रूप से निवास करते है |"

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Wednesday, March 23, 2011

मेरी साधना - 3

अपनी मानस-वेदना ने मुझे निश्चल नहीं रहने दिया | मरू-प्रदेश में तृषित मृग की भांति विवेक-शून्य होकर मैं अंधकार में पथ ढूंढ़ने के लिए बाध्य हुआ | खूब भटका; ठोकरे खाकर धराशायी हुआ; मस्तक विदीर्ण हुआ; रुधिर बह चला | क्षीण-काय पराजित-मना जो मैं कर्म-संन्यास की और उन्मुख हुआ; - आत्म-लघुत्व की हीनमनोवृति से पराभूत हुआ; मैं अश्रुजल से असफलता-कालिमा को धोने लगा |कारण था,-
" सम्यक ज्ञान का अभाव |"

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मेरी साधना -2

बहु-दिशा-स्थित पथ-निर्देशक स्थलों की और मैं स्वभावत: आकर्षित हुआ | प्रचंड प्रकाश-राशि से उन्मीलित मेरे नेत्रों ने अपना स्वाभाविक धर्म छोड़ दिया | मैंने उस प्रकाश-पुंज में पथ-शोधन करना चाहा | देखा- प्रकाश के बाह्य आवरण से आच्छादित अंधकार घनीभूत होकर बैठा है | कारण ? अंतर्वेदना की चिंगारी बहुत पहले ही नि:शेष हो चुकी थी |

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Tuesday, March 22, 2011

मेरी साधना-1

आत्म-प्रबोध के प्रथम जागरण की अनुभूति मुझे हृदय के आवेग,लक्ष्य की अस्पष्टता एवं कामनाओं के बाहुल्य के रूप में हुई | अहम् का बहुपथ-गामिनी आकांक्षाओं से संयोग हुआ |
अल्हड़ उत्साह,बाल आशा,मधुर वेदना और भोले विश्वास के उस झूले में झूलने को तत्पर हुआ जिसमे अनुभव और परिक्षण की डोरी का अभाव था | परिणाम शून्य | फिर भी अंतर्चेतना से ध्वनित होकर कोई निरंतर बोल रहा था -
"मैं भी कुछ करूँ |"