Thursday, March 31, 2011

मेरी साधना -8

पर भागवत-सन्देश का अमर अंकुर मेरे हृदय -स्थल पर प्रस्फुटित हो चला था | इस बार मैंने उसे श्रद्धा और विश्वास के जल से सींचाना प्रारंभ किया | देखा- सफलता की अदभुत सम्भावना है इस प्रयोग में | शीतलता,स्निग्धता,अनुकूल आहार पेय और रक्षण के वातावरण में परिपोषित यह पौधा आशातीत वृद्धि को प्राप्त होने लगा | अपूर्ण तर्क ने पुन: आपत्ति की,पर " तुम्हे भी अपना उचित स्थान मिलेगा |" कह कर उसे चलता किया |

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मेरी साधना -7

फिर भी मैं सत्य प्रतीत होने वाले मिथ्यावादों की और उन्मुख होता गया | मैंने उदघोष किया-
" ये धर्म-शास्त्र मिथ्या है;- यह समाज-विधान रूढी ग्रस्त है ; - यह परम्परा विज्ञानं-सम्मत और पूर्ण नहीं है |"
प्रतिक्षण नवीनता की खोज में मैं पूर्णता से अपूर्णता की और खिंचता ही गया | कारण समझने की चेष्टा की तो ज्ञात हुआ मैं उस श्रद्धा और विश्वास को बहुत पहले ही खो चूका था जिनका सहारा लेकर ज्ञान स्थायित्व के दृढ आसन पर आरूढ़ होता था |

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Saturday, March 26, 2011

मेरी साधना- 6

मैंने उस अमर राग में प्रसारित सन्देश को बौद्धिक कसौटी पर कसा | व्यभिचारिणी बुद्धि ने अंग-प्रत्यांग प्रदर्शनों से मुझे भ्रमित किया | उसकी विवध भाव-भंगी और धूर्त चेष्टाएँ मेरी आत्मा की संकल्पात्मक स्थिरता को चलायमान करने में फलीभूत हुई | मै उस मोहिनी बुद्धि के पीछे खूब दौड़ा ; - उसके आदेशों का यथाविधि पालन किया पर प्राप्त हुई -
"केवल अपूर्णता की |"

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मेरी साधना- 5

एक स्वर्णिम प्रभात मेरा मानस-मयूर मुग्ध हो अकस्मात नाच उठा | उसने अपने रत्न जडित उत्साह-पंख फैलाकर अज्ञात प्रसन्नता का आत्म-स्फुलिंग के रूप में प्रत्युतर दिया | प्रकृति का अणु-परमाणु भावी आनंद का संदेशवाहक बन पड़ा | मधुर और वेगवती ध्वनि वितरण करती हुई मंगलवती आत्म-वीणा झंकृत हो उठी |
वादक था स्वयम परमेश्वर;सन्देश था साध्यज्ञान और राग थी सत्य-वाहिनी |

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Thursday, March 24, 2011

मेरी साधना- 4

मेरे मानस-प्रदेश पर भौतिक विफलता के अवसान की सरिता दो धाराओं में प्रवाहित होने लगी | आत्म-विसर्जन की धारा का उदगम मेरे मानस-स्थल का क्षुद्र अहं था | कर्म-त्याग की प्रेरक शक्ति थी मेरे द्वारा अनुभूत ज्ञान की अपूर्णता | अंतरद्वन्द की आंधी से मेरी आत्मा कम्पित हो उठी | भीतर का सत्व विजयी हुआ,- बोला---
" दोनों ही मार्ग असत्य है | साधक ! और प्रयत्न कर - वह स्थल दूर नहीं है,जहाँ सत्य और प्रकाश अखंड रूप से निवास करते है |"

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Wednesday, March 23, 2011

मेरी साधना - 3

अपनी मानस-वेदना ने मुझे निश्चल नहीं रहने दिया | मरू-प्रदेश में तृषित मृग की भांति विवेक-शून्य होकर मैं अंधकार में पथ ढूंढ़ने के लिए बाध्य हुआ | खूब भटका; ठोकरे खाकर धराशायी हुआ; मस्तक विदीर्ण हुआ; रुधिर बह चला | क्षीण-काय पराजित-मना जो मैं कर्म-संन्यास की और उन्मुख हुआ; - आत्म-लघुत्व की हीनमनोवृति से पराभूत हुआ; मैं अश्रुजल से असफलता-कालिमा को धोने लगा |कारण था,-
" सम्यक ज्ञान का अभाव |"

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मेरी साधना -2

बहु-दिशा-स्थित पथ-निर्देशक स्थलों की और मैं स्वभावत: आकर्षित हुआ | प्रचंड प्रकाश-राशि से उन्मीलित मेरे नेत्रों ने अपना स्वाभाविक धर्म छोड़ दिया | मैंने उस प्रकाश-पुंज में पथ-शोधन करना चाहा | देखा- प्रकाश के बाह्य आवरण से आच्छादित अंधकार घनीभूत होकर बैठा है | कारण ? अंतर्वेदना की चिंगारी बहुत पहले ही नि:शेष हो चुकी थी |

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Tuesday, March 22, 2011

मेरी साधना-1

आत्म-प्रबोध के प्रथम जागरण की अनुभूति मुझे हृदय के आवेग,लक्ष्य की अस्पष्टता एवं कामनाओं के बाहुल्य के रूप में हुई | अहम् का बहुपथ-गामिनी आकांक्षाओं से संयोग हुआ |
अल्हड़ उत्साह,बाल आशा,मधुर वेदना और भोले विश्वास के उस झूले में झूलने को तत्पर हुआ जिसमे अनुभव और परिक्षण की डोरी का अभाव था | परिणाम शून्य | फिर भी अंतर्चेतना से ध्वनित होकर कोई निरंतर बोल रहा था -
"मैं भी कुछ करूँ |"