Wednesday, March 23, 2011

मेरी साधना - 3

अपनी मानस-वेदना ने मुझे निश्चल नहीं रहने दिया | मरू-प्रदेश में तृषित मृग की भांति विवेक-शून्य होकर मैं अंधकार में पथ ढूंढ़ने के लिए बाध्य हुआ | खूब भटका; ठोकरे खाकर धराशायी हुआ; मस्तक विदीर्ण हुआ; रुधिर बह चला | क्षीण-काय पराजित-मना जो मैं कर्म-संन्यास की और उन्मुख हुआ; - आत्म-लघुत्व की हीनमनोवृति से पराभूत हुआ; मैं अश्रुजल से असफलता-कालिमा को धोने लगा |कारण था,-
" सम्यक ज्ञान का अभाव |"

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