Friday, October 14, 2011

मेरी साधना -12

-पर मुझे आवश्यकता है धर्म के व्यावहारिक स्वरूप की; उसके मूर्तिमान अस्तित्व की,- गोचर,व्यक्त,प्रकट और स्थूल की उपासना की| मैं समाज-सीमाओं में आबद्ध समाज-धर्म से आगे जा भी नहीं सकता| क्षितिज के उस पार,अवनि के कोलाहल से परे नि:स्तब्ध एकांत साधना मेरे-गुण स्वभाव के प्रतिकूल पड़ती थी|

अतएव मैं परम्परा से परीक्षित,आत्मा से स्वीकृत और हृदय से समर्थित उस गोचर तत्व का उपासक बन पड़ा जिससे भारतीय इतिहास की 'मधुमयी भूमिका' का जन्म, पोषण और रक्षण होता आया है|



-व्यष्टि रूप में हित-साधन की कामना-डोर को विद्रोही बनकर मैंने तोड़ने का प्रयत्न किया| मैंने समष्टि में ही व्यष्टि का हित समाहित पाया| परमेष्टि मेरी दृष्टि में समिष्टि का ही विराट रूप है| अतएव मेरी साधना का आधार वह समाज रूपी समष्टि बना जिसमे मैं जन्मा और परिपोषित हुआ;-

जिसके गौरव से मेरी देह और आत्मा का अणु-परमाणु पुलकित,गौरान्वित और त्वरित हो उठा था;- जिसको पाकर मैंने जीवन की सार्थकता ही प्राप्त करली थी|


-जानता के सम्पूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाले व्यापकत्व को लिय हुए; कर्म-सौन्दर्य की योजना के सभी संभव रूपों से नियोजित;- शक्ति और क्षमा, वैभव और विनय, पराक्रम और माधुर्य, तेज और कोमलता, सुख-भोग और दुःख-कातरता,प्रताप और कठिन-धर्म-पथ-आलम्बन आदि परस्पर विरोधी गुणों से युक्त;- अनेकत्व में एकत्व की सत्ता का प्रतीक;-
क्षात्र धर्म मेरा समाज-धर्म,स्व-धर्म और स्वाभाविक कर्तव्य है|


-शौर्य,तेज,धैर्य,युद्ध-प्रियता,दानशीलता और प्रजा के प्रति ईश्वरीय भाव के आदर्श माप-दंड- क्षात्र-धर्म रूपी कर्म को मैं स्वाभाविक रूप से आत्मसात करूँ| मेरी यह प्रार्थना स्वीकार हो;- इस जीवन के लिए भी और भावी जीवन के लिए भी;-
सुख में भी दुःख में भी|


क्रमश:

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