Sunday, October 16, 2011

मेरी साधना -13

-चेतना के स्वाभाविक जागरण से सब जाग उठे; ज्ञान की उज्जल प्रदीप्ति से सब दीप्त हो जाएँ; स्फूर्ति के मंगलमय प्रांगण में सब प्रवेश कर जाएँ;- सबको कर्तव्य-पथ-गामी बनाने के लिए शंखधारी विष्णु के गुणों को मैं धारण करूँ;- उद्बोधन का महा-शंख बजाऊं;- महानिशा की समाप्ति का ढिंढोरा पीटूं| प्रकाश,जागृति और ज्ञान का अखंड साम्राज्य हो तब|

मेरे मानस के गूढ़तम प्रदेश की निश्छल पुकार है! माँ, शक्तिवर दे!


-मैं शासित-पराये हाथ की कठपुतली क्यों? अन्यों के साध्य-पूर्ति का साधन क्यों? राजनीती मेरी चेरी पर अब मैं उसका दास- नहीं खिलौना? यह असह्य है देव ! सुदर्शन चक्र चलाने का सामर्थ्य प्राप्त करूँ; शत्रुओं के गर्व का चक्र को कलेवा दूँ;- राजनीती मेरे चक्र द्वारा संचालित और नियंत्रित हो; मेरा उस पर शत प्रतिशत अधिकार और वश हो|
यह मेरे धर्म का आदेश का है;- शिरोधार्य करना मेरा धर्म है| यह तुच्छ अभिलाषा पूर्ण हो देव!


- मैं अपने स्वभाव को भूल गया हूँ इसीलिए चारों ओर पृथ्वी दस्युओं से परिपूर्ण, अधर्म से आवृत, दीनों के करुण-क्रंदन से कम्पायमान, असहायों की विवशताभरी चीत्कार से गुंजित हो कातर दृष्टि से निहार रही है| विष्णु की प्रबल गदा मेरे हाथ का आयुद्ध बनकर इन दुष्टों का मस्तक विदीर्ण करे| तब मैं माँ दुर्गा को शोणित,मांस और मज्जा का रुचिकर भोग लगाऊं;-
भगवान रूद्र के गले को रुंड-मालाओं से सजाऊं|


- मैं एक विचित्र सामंजस्य करना चाहता हूँ| आसक्ति-रहित होकर सभी कर्मों को करना चाहता हूँ;- भोग लिप्सा में निर्लिप्त रहते हुए सभी भोगों को भोगना चाहता हूँ;- बिना उन्मत्त हुए एश्वर्य-सूरा का छक कर पान करना चाहता हूँ| मैं कीचड़ में जन्म लेकर भी; जल की सत्ता में निवास करके भी सदैव उसके धरातल से ऊपर उठा हुआ रहना चाहता हूँ| कमलापति भगवान विष्णु के करकमल का यही तात्पर्य है; विदेह राज जनक के विदेह्त्व का यही अर्थ है|


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