Monday, October 17, 2011

मेरी साधना -14

- जरा समझूँ भगवान के मंगलमय विधान को| विष्णु शक्ति का आव्हान करूं| अमृत रूपी तत्वों की वृद्धि,पोषण और रक्षण में योग दूँ| उन्हें क्षय से बचाऊं| क्षत्रिय-संज्ञा को सार्थक करूं| फिर मैं ही रूद्र बनकर विषरूपी तत्वों का संहार करूं| मेरे प्रचंड आघातों से विप्लव का कलेजा फट जाए; कठोर हुंकारों से प्रलय का हृदय दहल उठे,- सर्वनाश का महातांडवी दृश्य उपस्थित हो जाय|
यह मेरे धर्म की प्रकृति है| इसे सोचूं,समझूँ,अनुभव और धारण करूं|


-मैं सुनता क्यों नहीं इस पुकार को! देखो- कितनी असहायता,कायरता.दीनता,विवशता और वेदना है! इसमें मेरा सोया वीरत्व जाग उठे;- प्रलयकालीन मेघ की भांति मैं गर्जन कर उठूँ;- देश की सीमाओं का अतिक्रमण कर,परिस्थिति-बंधनों को तोड़कर, काल के कुचक्र की अवहेलना कर, दुष्कर्मकर्ता का संहार करूं; क्षात्र-धर्म के औचित्य और उसकी आवश्यकता का सिक्का जमाऊं;- उसके देश,काल और परिस्थिति-निरपेक्षता के स्वभाव को सत्य सिद्ध करूं|
हुतात्माएँ मेरी सहायता करें|


-देखो! - मेरे लिए स्वर्ग के द्वार खुले है; अप्सराएँ वर-माला लिए हुए प्रतीक्षा कर रही है मुझे वरण करने को| धर्म-युद्ध का दुर्लभ और अमूल्य अवसर उपस्थित हुआ है| मेरा परम सौभाग्य है! तो वीरोचित रूप से मृत्यु का आलिंगन कर जीवन के अमरत्व को सहज ही में क्यों न प्राप्त करलूं|
एक क्षत्रियोचित मृत्यु लाखों जीवनों से श्रेयष्कर है पर लाखों जीवन एक ऐसी मृत्यु बिना व्यर्थ है;- ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक सूर्य के बिना समस्त ग्रह और नक्षत्र मंडल| इस सत्य को न भूलूं|


-आचरण-हीन ज्ञानी ईश्वर द्वारा प्रेषित संघर्ष के कटु अवसर से बचने के लिए सदैव ज्ञान का दुरूपयोग करते है| वे अपनी आत्म-दुर्बलता, सुषुप्त भीरुता और परिस्थितिजन्य विवशता को तर्क और विश्वास की ढाल के नीचे छिपा कर स्वयं के बचाव का आयोजन करते है| पर मुझे समझना होगा कि संघर्ष-विमुख होने से वह अपकीर्ति होगी जो सहस्त्रों कुम्भीपाक नरकों से कहीं अधिक भयावह है|
स्वाभिमान से जिऊ और गौरव से मरुँ| अपकीर्ति तेरा नाश हो!

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