Wednesday, October 19, 2011

मेरी साधना -15

-मैंने अमरता और क्षणभंगुरता के रहस्य को समझ लिया है| स्व-धर्म रूपी अमृत के आस्वादन से मैं देवत्व की अमर योनि का अधिकारी और धर्म-विमुखता रूपी गरल-सीकर पान कर मृत्यु का ग्रास बन सकता हूँ|
तो मैं क्या करूं?- मैं मृत्यु और जीवन दोनों का रसास्वादन करना चाहता हूँ;- मर कर भी जीवित रहना चाहता हूँ|मैंने सत्य से साक्षात्कार कर लिया है,- देखो,प्रतिध्वनि उठती है- "वीर एक बार मर कर अमर हो जाता है पर कायर हजार जीवन जी कर भी मर जाता है|"


-धर्म का कारण, अर्थ का साधन, काम का उपाय और मोक्ष का सोपान समस्त कारणों के कारण की भांति केवल एक ही है- क्षात्र-धर्म|
ज्ञान की शुष्कता में जीवन का माधुर्य कहाँ? भक्ति की साधना में कर्तव्य का बोध कहाँ? कर्म अकेला जड़ है| इन तीनों का सुन्दर संगम; मनुष्य की समस्त ज्ञानात्मक, रागात्मक और कर्मात्मक प्रवृतियाँ और कियाओं का प्रश्रय-स्थल;- लौकिक और आध्यात्मिक शक्तियों का समन्वय-केन्द्र;- सर्व-कल्याण का मूल स्त्रोत कौन है?
केवल क्षात्र धर्म|


-स्वतंत्रता जिसका सुन्दर परिधान; स्वाभिमान आत्मा और गौरव जीवन है| वह परतंत्रता,पराजय,अपमान और अपयश को ग्रहण नहीं कर सकता| स्वार्थ,भीरुता और अकर्मण्यता काले नाग से भी अधिक भयानक है| कारण कि वह तो केवल मनुष्य के शरीर को ही डसता है पर ये उसके शरीर,आत्मा और यश तीनों को का नाश कर देते है|


-हम देख नहीं रहे है संघर्ष की उस चिर परम्परा को! धर्म और अधर्म,सत्य और असत्य,न्याय और अन्याय,भलाई और बुराई का अस्तित्व क्या समाप्त हो गया?
दैवी और दानवी शक्तियों का द्वन्द किस युग में नहीं हुआ; किस युग में नहीं होगा? फिर कौन कह रहा - अब क्षात्र-धर्म की आवयश्कता नहीं?
वे लोग ईश्वरीय विधानको समझने में असमर्थ है और वे लोग भी जो जानते नहीं कि यह संसार द्वंद्वात्मक है|

स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील : परिचय

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