Friday, October 21, 2011

मेरी साधना -16

-मैं सुनूं - अपने पूर्वजों का उपालम्भ,ऋषियों का आदेश,राष्ट्र की पुकार,समाज क्रन्दन,दुष्टों का अट्टहास और आत्मा की ध्वनि|

मैं देखूं- विध्वंस का नृत्य, सर्व-नाश का दृश्य, सत्य का दमन और जीवन का पतन|

अनुभव करूं- इनके प्रति भारी उत्तरदायित्व को, मोटी ऋण राशि को, कृतज्ञता और अल्पज्ञता को|

प्रयत्न करूं - उत्तरदायित्व वहन करने का, ऋण से उऋण होने का, कृतज्ञता-प्रकाशन और अल्पज्ञाता विसर्जन का - आत्मा की आहुति और जीवन का दान देकर|


- मैंने अपने समाजालय को खूब टटोला तो क्या देखता हूँ- वह तो बहुत पहले ही जीर्ण हो चूका है| इसकी नीवों में दीमक और प्राचीरों में आद्रता व्याप्त है| छत के मानसिक तंतु अत्यंत ही अस्तव्यस्त होकर अंदर निषिद्ध तत्वों को प्रवेश करा रहे है| और साथ-साथ यह आलय तो भीतर से अपवित्र भी है|

तो कैसे स्थापना करूं इसमें अपने आराध्य-देव को?
मुझे बाह्य स्वरुपाकृति से वास्तव में धोखा हो गया था|

लेखक : स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील

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