Wednesday, October 26, 2011

मेरी साधना -17

- मेरे देखते ही देखते वह समाज-भवन ढहने लगा| भगवान राम और कृष्ण, कर्ण और युधिष्टर, बुद्ध और चंद्रगुप्त का समाज इतना निर्बल, पंगु, साहसहीन, निर्लज्ज और मूढ़ निकलेगा;- यह विचारातीत था| पर मैंने देखा उसका चतुर्मुखी पतन उन आँखों से जिनसे कभी विश्व-विजय, वैभव-विलास और सर्वोत्कर्ष के सुखद युग देख चुका था| मैं लज्जित हूँ; कुछ भी नहीं कर सका|
कायर की भांति मैंने अपने शत्रुओं को कोसना आरम्भ किया| मैं तिलमिला उठा पर क्रोध से नहीं, वेदना से|


- मैं अपने समाज भवन को ढहता देख चिल्ला उठा,- हाँ देव! यह कैसी दुर्दशा है मेरे समाज की| बिना कारण ही कार्य हो रहा है- यह क्यों?

"तू पागल है, इतना भी नहीं समझता कि इसने अपनी उपयोगिता खो दी है| अनुपयोगी को साथ रखकर अस्तित्व जीवित नहीं रह सकता;- यह विधि का अटल नियम है|"
देव की इस वाणी को मैंने सुना अवश्य पर समझा बहुत विलम्ब से!


-यह उपयोगिता क्या है,कोई समझाओ तो इसे| इतने में इतिहास बोल उठा,-

"जड़ और चेतन, चर और अचर, स्थूल और सूक्ष्म, जीव और जगत के जीवन-अस्तित्व की एक मात्र शर्त;- ईश्वरीय विधान में सहायक होने वाला गुण|"

ओह! अब समझा| तब तो स्व-धर्म का पर्यायवाची ही कहना चाहिए इसे| मेरे समाज को जीवित रहने के लिए इसे तो ग्रहण करना ही पड़ेगा| इस गूढ़ रहस्य, परम तत्व को जानते हुए भी मैं कैसे भूल गया था! मैं कितना भोला हूँ!


-मेरे समाज के भौतिक अध्:पतन और उसकी मानसिकता पराजय का पर्यायवसान उसकी आत्म-दुर्बलता और निराशामुलक मनोदशा के रूप से मेरी साधना पर भी पड़ा है| इसीलिए तो मेरी साधना आज मंद-गामिनी हो स्थिर-स्थित सी हो रही है| तब समाज का आवश्यक अंग बना कर कार्य करना पड़ेगा, क्योंकि मेरी साधना परिस्थिति-निरपेक्ष होते हुए भी समाज-सापेक्ष है|

लेखक : स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील

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