Thursday, October 13, 2011

जय जंगलधर बादशाह

उस दिन बादशाह औरंगजेब लम्बी बीमारी से उठ कर पहली बार दरबार में आया था | दीवाने ख़ास का वह दरबार खचाखच भरा हुआ था | बीमारी की थकावट और साम्राज्य की नित नई उत्पन्न होती समस्याओं के कारण बादशाह का चेहरा गंभीर था | बादशाह ने मयूर सिंहासन पर बैठकर ज्योंहि अपनी दृष्टि चारों और दौड़ाई,उसे एक विशेष दूत सामने आता हुआ दिखाई पड़ा | दूत ने दरबारी शिष्टाचार के अनुसार झुक कर अभिवादन किया | बादशाह ने गंभीर स्वर में पूछा -
" कहाँ से आ रहे हो ?"
"अजमेर से जहाँपनाह |"
और दुसरे क्षण उसने एक बंद लिफाफा बादशाह के हाथ में दे दिया | ये पत्र अजमेर के सूबेदार की और से बादशाह की सेवा में भेजा गया था | उस पत्र में कई बातें लिखी हुई थी,किन्तु बादशाह की दृष्टि एक वाक्यांश पर जाकर उलझ गई | वह वाक्यांश क्या था -
" उदयपुर के महाराणा राजसिंह का देहांत हो गया है और ......|"
उसने इस वाक्यांश को कई बार पढ़ा | उसकी गंभीर मुखाकृति प्रसन्नता की असाधारण मुद्रा में बदल गई | बहुत ही कम अवसरों पर उस कूटनीतिज्ञ बादशाह के आंतरिक भाव अनुभावों के रूप में प्रकट होते थे | पर उस दिन वह अपने चेहरे पर अठखेलियाँ करती हुई प्रसन्नता की रेखा को छिपा नहीं सका | सभी चतुर दरबारियों ने अनुमान लगा लिया था कि उस पत्र में कोई असाधारण प्रसन्नता सूचक संवाद अवश्य था | बादशाह कुछ देर तक उसी मुद्रा में बैठा -बैठा सोचता रहा फिर उसने कहा -
" अब दरबार बरखास्त किया जाता है |"
और उठकर वह अपने निजी कक्ष में चला गया |
उसी रात्री के दुसरे प्रहर में बादशाह के निजी कक्ष में शहर काजी और सुन्नी सम्प्रदाय के कुछ प्रतिष्ठित मौलवियों की एक गुप्त मंत्रणा हुई | उस मंत्रणा में वाद-विवाद बिलकुल नहीं हुआ | केवल भावी योजना को क्रियान्वित करने के दो -तीन सुझाव आये | बादशाह ने उन सब सुझावों का समन्वय करते हुए व्यवहारिक योजना की रूप रेखा सब को बतला दी | जब वे लोग मंत्रणा कक्ष से बाहर निकले,तब उनके चेहरों को किसी किसी अज्ञात प्रसन्नता की हिलोरें थपथपाकर प्रफुल्लित बना रही थी |

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