Friday, September 28, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -4

भाग -३ से आगे .......

ये सब कार्य लुभावनें सिद्धांतों की ओट लेकर, कहीं शोषण से कहीं दासता से और कहीं सामंतशाही के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के नाम पर कराये गए| कहीं राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समानता की दुहाई दी गयी तो कहीं राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय की स्थापना की प्रतिज्ञाएं की गयी| इस प्रकार मुट्ठी भर सिद्धांतहीन बुद्धिजीवी वर्ग ने राजपूतों और अन्य श्रमिक वर्गों को परस्पर लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करना शुरू कर दिया| अपने स्वार्थ को अक्षुण्ण रखने के लिए इन स्वार्थी तत्वों ने राजस्थान में जाट-राजपूत नाम से एक नई समस्या उत्पन्न कर दी| जाट अब भस्मासुर की भांति इन्हीं की शक्ति से सशक्त होकर “जाटस्तान” की स्थापना के मधुर पर असंभव स्वप्न देखने लग गए| कह नहीं सकते कि हिन्दू मुस्लिम समस्या के समाधान की भांति इस समस्या का समाधान भी देश के लिए कितना महंगा पड़ेगा ? जो राजपूत देशी राज्यों के अतिरिक्त उस समय ब्रिटिश भारत में रहते थे उनके साथ कुछ परिवर्तित उपायों द्वारा बर्ताव किया गया| उनकी मूल समस्या भी देशी राज्यों के राजपूतों से भिन्न थी, अतएव उनका लक्ष्य बिंदु रक्षात्मक न होकर प्रहारात्मक था| देशी राज्यों के राजपूत, जहाँ मुख्यत: कांग्रेसी संगठनों द्वारा उत्पन्न वातावरण के विरुद्ध अपनी रक्षा में लगे रहे, वहां अन्य प्रान्तों के राजपूत कांग्रेस के साथ होकर अंग्रेजों से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए सक्रिय रूप से लगे रहे| उनके पास राज्यों और जागीरों के रूप में खोने को कुछ नहीं था| हाँ, जमींदारी आदि की रक्षा के लिए उन्हें भी यदाकदा कांग्रेस के विरुद्ध मोर्चा बनाना पड़ता था| जिन प्रान्तों के राजपूतों ने भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में योग दिया उनमे मुख्य स्थान उतर-प्रदेश और बिहार के राजपूतों का है| इन दोनों प्रान्तों में धन-जन से राजपूतों द्वारा कांग्रेस की पूर्ण सहायता की गयी| जहाँ-जहाँ आन्दोलन हुए, जीवन और संपत्ति के लिए खतरा उत्पन्न हुआ, वहां वहां क्षत्रियोचित सरल स्वभाव के कारण राजपूत सबसे आगे रहे| अहिंसात्मक आन्दोलन उनकी जन्म-जात प्रवृति के प्रतिकूल पड़ते थे, पर फिर भी उन्होंने उनमे तन-मन और धन से पूर्ण सहयोग दिया|

यद्यपि उनमे कोई ख्याति प्राप्त नेता नहीं हो सका तथापि राजपूतों ने बड़ी संख्या में स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लिया| सन 1942 ई. के हिंसात्मक आन्दोलन में बिहार के राजपूतों ने जो साहसपूर्ण कार्य किये वे हमारे लिए आज भी गर्व की वस्तु है| पर इन सब बलिदानों और त्याग का अंत में परिणाम क्या हुआ? इस समस्त परिश्रम और त्याग का श्रेय उन्ही बुध्हिजिवी तत्वों को मिला जिनकी संख्या आन्दोलनों में भाग लेने वाले राजपूतों से कहीं अधिक कम थी| किसी भी प्रेस से उनका उल्लेख तक नहीं किया| किसी भी नेता ने उसकी प्रशंसा में दो शब्द तक नहीं कहे| आज राजस्थान,पंजाब,सौराष्ट्र,मालवा,उड़ीसा,और विन्ध्य-प्रदेश के राजपूत यह जानते ही नही कि उनके उत्तर-प्रदेश और बिहार के भाइयों ने भारत कि स्वतंत्रता-प्राप्ति में महत्वपूर्ण योग दिया था| वे उसके लिए कटे,मरे और बलिदान हुए थे| स्वतंत्रता आन्दोलनों के लिखे जाने वाले नए इतिहासों में उनका कहीं नाम तक नहीं| यह इसलिए कि आज का प्रभुत्व-संपन्न,बुद्धिजीवी-वर्ग राजपूतों के स्वाभिमान को जाग्रत कर,अपने महत्व को कम करना नहीं चाहता| यह वर्ग नहीं चाहता की श्रद्धा उनके अतिरिक्त और भी कोई बँटा ले|

इस प्रकार देशी राज्यों के बाहर के राजपूतों ने निष्काम कर्म के सिद्धांत पर कार्य अवश्य किया,पर वास्तव में देखा जाय तो इस बुद्धिजीवी-वर्ग ने अन्य वर्गों की भांति इनका भी पूर्ण रूप से राजनैतिक शोषण किया है| कांग्रेस के सब से शक्तिशाली गढ़ उत्तर-प्रदेश और बिहार ने यदि उसे स्वतंत्रता के पूर्व राजपूतों की सहायता प्राप्त न होती तो भारत में आज कांग्रेस की क्या दशा होती,इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है|

ऊपर लिखा जा चूका है कि राजपूतों को प्रभावहीन बनाने की यह पृष्ठ-भूमि भारत के स्वतंत्र होने के पहले ही बना ली गई थी| अतएव जब भारत से अंग्रेजी सत्ता उठा ली गई तब पहले से ही राजनैतिक दृष्टि से निराश,कार्य-शक्ति की दृष्टि से अचेत, सामाजिक दृष्टि से विश्रंखलित,मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निराश,कार्य-शक्ति की दृष्टि से परावलम्बी और बौद्धिक दृष्टि से पंगु राजपूत के सर्वव्यापी प्रभाव को समाप्त करने में अधिक कौशल और परिश्रम नही करना पड़ा|

राजपूतों के इस सर्वव्यापी प्रभाव को समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम उनके राजनैतिक प्रभुत्व को समाप्त करना आवश्यक था,क्योंकि राजनैतिक प्रभुत्व सभी युगों में अन्य सभी प्रकार के प्रभुत्व का मूल रहा है| जिस जाती या समाज का आर्थिक,सामजिक और सांस्कृतिक प्रभाव समाप्त करना हो उस जाती अथवा समाज का सबसे पूर्व राजनैतिक प्रभुत्व समाप्त करना आवश्यक हो जाता है,क्योकि राजनैतिक प्रभुत्व की समाप्ति के साथ ही साथ जाती अथवा समाज के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की ही समाप्ति हो जाती है|

भारत में राजपूतों का राजनैतिक प्रभुत्व उनके उन छोटे-बड़े सैंकड़ों राज्यों के कारण था जो हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण तक और बंगाल और उड़ीसा से लेकर सिंध और उतर-पश्चिम सीमा प्रदेश तक फैले हुए थे| यधपि इन राज्यों पर वंशानुगत परम्परा के कारण केवल राजाओं का ही स्वामित्व समझा जाता रहा है पर वास्तविक दृष्टि से वे राज्य सब राजपूतों की सामाजिक धरोहर थे| राजपूत समाज के सामाजिक ढांचे के अध्ययन से यह बात भली भांति प्रकट हो जाती है कि जोधपुर राठौड़ों का, मेवाड़ सिसोदियों का,जयपुर कच्छवाहों का, जैसलमेर भाटियों का और बूंदी हाड़ों का राज्य था| ये राज्य राजाओं की व्यक्तिगत संपत्ति न होकर जातिगत इकाइयां थे| इन राज्यों के अतिरिक्त राजपूतों के स्वामित्व में विभिन्न छोटी-बड़ी जागीरें भी राजनैतिक इकाइयों के रूप में थी| अतएव राजपूतों के राजनैतिक प्रभुत्व को नष्ट करने के लिए पहले उन सब राज्यों और बाद में जागीरों को समाप्त करना आवश्यक था|



क्रमश: ....


Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है|
rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat

1 comment:

  1. आजकल के हालात और बदलते सामाजिक परिवेश को देखते हुए तो सही में "मौत के मुहं " में ही हैं

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