Thursday, November 1, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -6

भाग पांच से आगे .....देशी राज्यों की इस प्रकार की समाप्ति के रूप में बुद्धिजीवी नेताओं के शब्दों में राष्ट्र की एकता पूर्ण हुई,इतिहासज्ञों के विचारों में वह एक रक्तहीन राज्य-क्रान्ति थी;-देश के अनुत्तरदायी विध्वंसक तत्वों की वाणी में वह बर्बर सामंतीय युग की स्वाभाविक इतिश्री थी और राजपूतों की दृष्टि में,उनके पूर्वजों द्वारा रक्त और श्रम-जल से सिंचित उन पैतृक,परम्परागत और सामजिक राज्यों का अंतिम रूप से विसर्जन था जिनके साथ उनका हृदय,मस्तिष्क और मानस का गूढतम रागात्मक और विचारात्मक सम्बन्ध जुड़ा हुआ था |
वे राज्य राजपूतों की सामजिक सम्पति थे और राजाओं को अपनी मधुर इच्छा मात्र पर उनको समाप्त करने का नैतिक और वैधानिक अधिकार न था| पर सब कुछ हो गया और किसी ने औचित्य को ध्यान में रखते हुए एक शब्द तक न कहा| सत्य और अहिंसा के पुजारी उस समय कदाचित पहली बार अपने नग्न रूप में सामने आये,पर किसका साहस था जो उनकी उस नग्नता को चुनौती देता!

इस प्रकार राज्यों के समाप्त करने के उपरान्त राजपूतों की जागीरों जैसी अन्य राजनैतिक इकाइयों को भी क़ानून आदि बना कर आसानी से समाप्त कर दिया गया| यह ही नहीं,गरीब राजपूतों से उनके जीवन-यापन का एकमात्र साधन भूमि को छीन कर उन्हें अपने ही घर में दर-दर का बिखारी बना दिया| राजपूतों के राजनैतिक प्रभुत्व की समाप्ति का सूत्रपात राज्यों की समाप्ति से समाप्ति से प्रारंभ होकर जागीरों और भू-स्वामित्व की समाप्ति तक पूर्ण हो गया| अब ये अपने ही घर में शासक,स्वामी से दास, स्वावलंबी से परावलम्बी और सम्मानित से अपमानित हो गए| इस प्रकार राजपूतों के प्रभाव को समाप्त करने की पहली और मुख्या शर्त तो पूरी हुई| पर प्रजातंत्र वाद में आर्थिक सबलता पुनः राजनैतिक प्रभुत्व को जन्म दे सकती है,अतएव राजपूतों को आर्थिक दृष्टि से पंगु बनाना भी उनके भावी प्रभाव के प्रसार को रोकने के लिए उतना ही आवश्यक था जितना कि उनके राजनैतिक प्रभुत्व को समाप्त करना| हम ऊपर देख चुके है कि राजपूतों के राज्यों,जागीरो आदि की समाप्ति आर्थिक पतन के रूप में भी हुई है | करोड़ों रुपयों की पैतृक और परम्परागत सम्पति किसी न किसी बहाने के रूप में ली गई और प्रतिफल में निजी-व्यय,क्षति-पूर्ति आदि के रूप में जो कुछ भी दिया गया है अथवा दिया जाने वाला है वह अपेक्षाकृत एकदम नगण्य तथा राजनैतिक दृष्टि से राजपूतों के लिए अत्यंत ही घातक एवं पतंदाई सिद्ध होने वाली वस्तु है|

आर्थिक दृष्टि से हम राजपूत समाज के तीन विभाग कर सकते है-अमीर-वर्ग,गरीब-वर्ग या बड़ी-बड़ी जागीरें| इस वर्ग के अधिकांश दूरदर्शी व्यक्तियों ने गत वर्षों में पर्याप्त धन एकत्रित कर लिया है | इस धन को व्यवसाय आदि में लगाकर्र तथा अन्य नवीन अर्थ-उत्पादक साधनों को अपनाकर वे आर्थिक दृष्टि से आज भी पूर्ण सबल और समर्थ है|निजी व्यय और क्षति-पूर्ती के रूप में भी इन्हें कुछ रकम प्रति वर्ष मिल ही जाती है,अतएव इस समस्त परिवर्तन के कारण उनकी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है| अब इस अमीर-वर्ग ने अपने हितों और स्वार्थों को भारत के पूंजीपति बनियों के हितों और स्वार्थों के साथ एकाकार कर लिया है| अब न केवल आर्थिक दृष्टि से ही वरन राजनैतिक दृष्टि से भी बनियों और अमीर राजपूतों के स्वार्थ एक हो गए है | यही कारण है कि इस वर्ग में अब अधिकाधिक बनिया-वृति पनप रही है और यह बनियाँ वृत्ति न केवल क्षात्र-धर्म के मूल सिद्धांतों के अपितु राजपूतों के वर्तमान राजनैतिक,आर्थिक और सम्माजिक हितों के भी विरुद्ध पड़ती है|यही कारण है कि इस वर्ग के अधिकांश पूंजीपति लोग अपने अन्य भाइयों की आर्थिक अधोगति की और बिलकुल संवेदनशील न होकर उनके विरोधियों की शक्ति और सामर्थ्य बढाने में लगे हुए है| जिन राजपूतों के रक्त और पसीने के कारण वे अब तक श्रीमान बने रहे,अब अवसर पाकर वे उन्ही के विरोधियों से मिलकर उन्हें समूल नष्ट करने पर तुले हुए है|

मध्यम-वर्ग में राजपूत समाज का बुद्धिजीवी-वर्ग,नौकरीपेशा-वर्ग और छोटे जागीरदार आते है| वास्तव में यही वर्ग राजपूत समाज का मक्खन कहा सकता है| स्वयम परिश्रमी और उद्यम करके जीविकोपार्जन करते रहने के कारण यह वर्ग आर्थिक दृष्टि से काफी सबल और प्रभावशाली रहता आया है| इस वर्ग के जीविकोपार्जन के मुख्य दो साधन है-भूमि और नौकरी| जागीरों की समाप्ति से भूमि से प्राप्त आय का बहुत बड़ा अंश तो इनके हाथ से चला ही गया,अब इस वर्ग के पास नौकरी और कृषि-कर्म ये दो ही साधन जीवनयापन के रह गए है| कांग्रेसी बुद्धिजीवी वर्ग के कोप का आर्थिक दृष्टि से यही वर्ग सबसे अधिक भाजन बना है| इस वर्ग के अधिकांश लोग जब रियासती सेनाओं,ब्रिटिश सेनाओं और अन्य विभागों में नौकरियां करते समय अपने घरों से दूर रहते थे तब उनकी कृषि की जमीन को गाँव के अन्य कृषक जोतते और बोते थे| और उन्हें निर्धारित राशि अनाज अथवा रोकड़ के रूप में देते थे| जब देशी रियासतों का संघों आदि में विलीनीकरण हुआ तब सबसे पहले इन्ही हजारों नवयुवकों को सेना से निकला गया| उनका एकमात्र दोष था तो केवल यह है कि उन्होंने राजपूत समाज में जन्म लिया था| शासन के प्रत्येक क्षेत्र में राजपूत कर्मचारियों के साथ सौतेली माँ का सा व्यवहार किया जाने लगा| जब में जयपुर की सड़कों पर घूमते हुए,शिक्षित बेकार राजपूत नवयुवकों से उनकी नौकरी के विषय में पूछता हूँ तब तक गहरा निश्वास छोड़ते हुवे वे उत्तर देते है-"इस समय राजपूतों को नौकरी कहाँ?" और किसी राजपूत कर्मचारी से उसकी तरक्की के विषय में बात चीत करें तो वहां भी यही उत्तर मिलेगा, "राजपूत होने के कारण मेरा चान्स मार दिया गया|"

इस प्रकार इस मध्यम-वर्ग के जीविकोपार्जन का मुख्य सहारा नौकरी अब केवल भाग्य और चान्स का प्रश्न बनकर रह गया|

क्रमश: ....



Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है| rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat

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