Monday, November 12, 2012

राजपूत और भविष्य : अंतरावलोकन -3

भाग-२ से आगे....

इन सब परिस्थितियों में राजपूत के नेतृत्व का प्रश्न एक अत्यंत ही जटिल समस्या है| इस कमी की पूर्ति सफलता के प्रथम सोपान की प्राप्ति है| सफल नेतृत्व की कसौटी के विषय में इसी पुस्तक में आगे विचार किया गया है, अतएव यहाँ अब दूसरी आंतरिक कमजोरियों की और ध्यान देना आवश्यक है|

राजपूतों के सामाजिक ढांचे की बनावट में एक मूलभूत कमजोरी रह गई, जिसके कारण एक राष्ट्र की सब विशेषताएँ होते हुए भी उन्होंने एक राष्ट्र के रूप में साम्राज्य-स्थापना का प्रयास मध्यकाल और मध्यकाल में कभी नहीं किया| यह मूलभूत कमजोरी थी उपजातियों (Clans) और उनके वंशानुगत नेताओं (राजाओं) को अधिक महत्व देना| राठौड, चौहान, सिसोदिया, कछवाह आदि खांपें अपने वंशानुगत नेताओं के नेतृत्व में परस्पर में लड़ती रही जिससे राजपूत राष्ट्र के जीवन-तंतु कालांतर में शिथिल पड़ मुर्झा गए| एक राष्ट्र, एक नेता के स्थान के स्थान पर अनेक उपजातियां, अनेक नेता होने के कारण उनके राजनैतिक स्वार्थों में भी अनेकता उत्पन्न हो गई, जिसके परिणाम स्वरुप एक ध्येय के स्थान पर परस्पर विरोधी अनेकों क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति का प्रयास होने लगा| इसी ध्येय और एक नेतृत्व के आभाव में, उच्चकोटि की वीतरा और त्याग के होते हुए भी राजपूत अपना साम्राज्य स्थापित नहीं कर सके|

अनेक सामानांतर नेतृत्वों में कोई भी कूटनीतिक अथवा राजनैतिक चाल सफल नहीं हो सकती, न किसी भी प्रकार का समझौता अथवा संधि ही की जा सकती है और न सामान्य ध्येय की पूर्ति ही संभव है| राजपूतों में आज भी राजनीति और कूटनीति का आभाव नहीं है पर उनका नेतृत्व कई स्थानों और टुकड़ों में बंटा हुआ है, इसीलिए उनका कोई भी कूटनीतिक कार्य सफल नहीं हो सकता| हमें अब इन उपजातियों की श्रेष्ठता के स्थान पर सम्पूर्ण राजपूत-राष्ट्र की श्रेष्ठता को आगे लाना है| वैवाहिक संबंधों के अतिरिक्त अब राठौड़, चौहान, कछवाह, सिसोदिया आदि के रूप में न सोचकर केवल एक महान राजपूत जाति के रूप में ही सोचना चाहिए| और विभिन्न वंशानुगत नेतृत्वों के स्थान पर सिद्धांतों और योग्यता के आधार पर केवल एक ही नेतृत्व स्वीकार करना चाहिए| एक नेता, एक ध्येय, एक राष्ट्र, एक जाति की उदात्त और सात्विक भावना ही हमें ऊपर उठा सकती है| उपजातियों और नेतृत्व के आधार पर राजपूत राष्ट्र को विभाजित करने वाले सब तत्वों और प्रयासों का सतर्कता और दृढ़ता-पूर्वक विरोध होना चाहिए|

राजपूतों की इस आंतरिक कमजोरी का कारण उनकी अहम्प्रधान मनोवृति रही है| यह अहं व्यक्तिगत बड़प्पन की भावना से लगातार कुलगत और स्वजातीय बड़प्पन की विकृत भावना तक पहुँच गया| इसी व्यक्तिगत अहं के कारण राजपूत जाति में सामाजिक अनुशासन और दृष्टिकोण का अभाव रहा है| सौभाग्य की बात यह रही कि यह मनोवृति अधिकतर बड़े जागीरदारों और अमीर वर्ग में ही रही है| इसी मनोवृति के कारण जागीरदारों का नि:स्वार्थ और वास्तविक संगठन कभी हो नहीं सकता| इस कुलगत अहं का आधार कुछ ऐतिहासिक और अर्ध-ऐतिहासिक धारणाएं और बहुत कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के प्रति अज्ञानता तथा घटनाचक्र को समझने की अक्षमता रही है| इस कुल अथवा वंश की श्रेष्ठता का मिथ्याभिमान होने के कारण सब राजपूत राज्य एक ध्वज के नीचे संगठित होकर सामूहिक रूप में किसी भी नीति का अनुसरण नहीं कर सके| चापलूसों और कई स्वार्थी कवियों ने भी इसी कुल-श्रेष्ठता के मिथ्याभिमा बहुत कुछ उकसाया है| अपने आश्रय दाताओं के कुलों को सर्वश्रेष्ठ तथा दूसरे राजपूतों के कुलों को निम्नतर और हल्का बताकर पृथकतामूलक भावनाओं को प्रोत्साहन देना एक जघन्य सामाजिक अपराध है| अब समय आ गया है कि राजपूतों में इस प्रकार की पृथकता और वैमनस्यमूलक भावनाओं का सर्वथा अंत होना चाहिए और इस व्यक्तिगत और कुलगत अहं को स्वाभिमान की सात्विक भावना में बदल देना चाहिए|

राजपूतों की अहं-प्रधान मनोवृति उनके कई चारित्रिक दुर्गुणों के लिए उतरदायी है| इस मनोवृति का निकटतम सम्बन्ध स्वार्थ की मनोवृति से है| दोनों मनोवृतियों के संयोग के कारण कई प्रकार के पतनकारी दुर्गुणों का व्यक्ति में जन्म होता है| इसी प्रकार का एक दुर्गुण है तमोगुणी व्यक्तिवाद| यह तमोगुणी व्यक्तिवाद लगभग एक हजार वर्ष से राजपूत चरित्र को कुलषित करता आया है| इसी तमोगुणी व्यक्तिवाद-प्रधान दृष्टिकोण के कारण एक राजपूत अपने क्षुद्र-स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरे राजपूत का गला काटने के लिए तैयार हो जाता है| यही नहीं, वह शत्रुओं के हाथों की कठपुतली बनकर, स्वजाति, स्वधर्म, स्वराष्ट्र को पराजित, अपमानित और परतंत्र करने को सक्रीय योग देता है| मध्य युग में इस तमोगुणी व्यक्तिवाद का और भी विकास हुआ है| मुसलमानों की लक्ष्यपूर्ति में साधन बनकर जिन अधम राजपूतों ने स्वधर्म, स्वजाति और स्वराष्ट्र के साथ विश्वासघात किया, उनके कारण समस्त राजपूत जाति के उज्जवल भाल पर कालिमा का अमिट कलंक लग गया| आज भी इस प्रकार के नारकीय कीड़ों की राजपूत समाज में कमी नहीं है जो विरोधियों के हाथों में खिलौना बनकर अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति हेतु सद्प्रयत्नों का विरोध करते है| न केवल वे विरोध ही करते है पर पंच-मार्गी बनकर राजपूत जाति की कमजोरियों और विवशताओं का भी निर्लज्जतापूर्वक विरोधियों के समक्ष उद्घाटन करते है तथा अपनी सेवाओं को राजपूतों को कुचलने के लिए अर्पण करते है| इस युग में नाना प्रकार के प्रलोभनों तथा चरित्र निर्माण की शिक्षा और संस्कारों के अभाव के कारण यह प्रकृति और भी अधिक बढती हुई दिखाई दे रही है|

संगठित राजपूत शक्ति सदैव से ही अजेय है मेरा तो यह दृढ विश्वास है कि आज भी वह अजेय है| पर इस शक्ति को घर का भेदी राजपूत ही तोड़ सकता है| भूतकाल में भी ऐसा ही हुआ, और वर्तमान में भी ऐसा ही होगा| आज एक राजपूत अन्य किसी भी राजपूत के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सकता है; एक राजपूत द्वारा राजपूतों की कितनी ही हानि कराई जा सकती है| मेरा तो विश्वास है कि राजपूतों की हानि राजपूतों की सहायता और सहयोग के बिना हो ही नहीं सकती| एक अंग्रेज, अंग्रेज जाति के स्वार्थों के विरुद्ध कभी भी प्रयुक्त नहीं किया जा सकता| यही दशा मुसलमानों और अन्य संसार की जीवित जातियों की है पर यह कितने आश्चर्य और लज्जा की बात है कि राजपूत अपने जातिय हितों और आदर्शों के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सकता है| ऐसे ही व्यक्ति स्वार्थ और क्षुद्राकांक्षाओं के वशीभूत होकर राजपूत-राष्ट्र और जाति में सदैव फूट की स्थिति बनाये रखते है|

स्वजाति, स्वधर्म और स्वराष्ट्र के विरुद्ध विरोधी शक्तियों का साधन बनकर कार्य करना उतना ही नीचता और पाप-पूर्ण कार्य है जितना स्वयं अपनी माता के साथ व्यभिचार करना तथा उसे विरोधियों के हाथों में व्यभिचार के लिए सौंप देना| राजपूत जाति को इस प्रकार के अधम जाति-द्रोही और पापी व्यक्तियों को कभी भी क्षमा नहीं करना चाहिए| आवश्यकता इस बात की है कि राजपूत चरित्र के इस कालिमामय अंश तमोगुणी व्यक्तिवाद को संस्कारों द्वारा सतोगुणी जातिय-भाव में बदला जाय|

जिस प्रकार व्यक्तिगत और वंशानुगत श्रेष्ठता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ उसी भांति वर्तमान युग में राज्य अथवा स्थानगत श्रेष्ठता की भावना भी दिखाई देने लग गई है| अमुक राज्य के व्यक्ति श्रेष्ठ और अमुक राज्य के निकृष्ट, अमुक स्थान के व्यक्ति वीर और अमुक स्थान के कायर होते है, आदि क्षेत्रीय-श्रेष्ठता की मिथ्या भावना के कारण भी संगठन को धक्का पहुंचने की सम्भावना है| इस प्रकार की विषैली भावना का शीघ्र ही परित्याग आवश्यक है|

क्रमश:.................

Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है|
rajput or bhavishy,antravalokan, sw.aayuvan singh shekhawat

1 comment:

  1. I do not agree with the above. It seems to be based on half truth. More research is required before we come to some form of conclusion.
    Col D R Singh Sikarwar

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