Friday, November 2, 2012

राजपूत और भविष्य : अंतरावलोकन -1

राजपूत जाति के पतन के कारणों पर एक पक्षीय विचार हम गत अध्याय में कर चुकें है| विपक्षी हमारे विनाश के लिए कितने उतरदायी है और हम स्वयं अपने विनाश के लिए कितने उत्तरदायी है, समस्या के इन दोनों पहलुओं पर सम्यक रीती के विचार करने पर ही हम अपने पतन के वास्तविक कारणों को समझने में पूर्ण समर्थ हो सकेंगे| वास्तव में विपक्षी शक्तियां वहीँ प्रहार करती है जहाँ कंजोरी पहले से विधमान होती है| कमजोरी पर किया गया प्रहार ही मनोवांछित फलदायी होता है| इसके विपरीत, जहाँ कोई कमजोरी ही नहीं होती वहां विरोधी शक्ति का प्रहार व्यर्थ हो जाता है| हमारे विरोधियों को प्राप्त सफलता ही हमारी स्वयं की अपूर्णताओं और कमजोरियों का ठोस और प्रत्यक्ष प्रमाण है| वास्तव में किसी राष्ट, समाज अथवा जाति के पतन के कारण उनके स्वयं के भीतर ही निहित होते है| विरोधी तो केवल उन्हीं कारणों का लाभ मात्र उठाते है| बाहरी शक्ति किसी भी अन्य शक्ति का नाश नहीं कर सकती| वह तो केवल उस नाश के लिए निमित्त मात्र बनती है| अत: हमें पतन के कारणों को ढूंढने के लिए केवल विरोधियों को ही न कोसना चाहिये, वरन स्वयं अन्तरावलोकन और आत्म-निरिक्षण करके समझना चाहिये कि हमारी वे कौन-सी आंतरिक कमजोरियां है, जिनके कारण हमें पतन का महा-विषैला फल आज चखना पड़ रहा है|

राजपूत जाति की प्रथम और मुख्य आंतरिक कमजोरी उसका अब तक का अयोग्य और अदूरदर्शी नेतृत्व रहा है| योग्य नेतृत्व के स्वरूप और गुणों पर हम एक पृथक अध्याय में चर्चा करेंगे| यहाँ तो केवल राजपूत समाज के वर्तमान नेतृत्व की प्रकृति और स्वरूप का ही विश्लेषण किया जायेगा|

राजपूतों की समाज-व्यवस्था में संसार की अन्य वीर जातियों की समाज-व्यवस्था की भांति एकचालकानुवर्तित की मान्यता आदि काल से चली आ रही है| राजतंत्र एकवंशानुगत अधिकार होने के कारण राजपूत जाति का नेतृत्व भी वंशानुगत हो गया| इस प्रकार का नेतृत्व अन्य नेतृत्वों की अपेक्षा अधिक शक्ति-संपन्न, कार्य-कुशल, व्यावहारिक, स्वाभाविक और समर्थ हो सकता है पर इसके वंशानुगत होने के कारण उसमें मूलभूत कमजोरियां उत्पन्न हो जाती है| यह आवश्यक नहीं कि एक योग्य राजा का लड़का भी योग्य ही हो| इस प्रकार का वंशानुगत नेतृत्व योग्यता आदि वास्तविक गुणों पर आधारित न रह कर केवल सामाजिक रुढ़िवादी और जन्म पर आधारित रहता है| राजपूत जाति के अब तक राजनैतिक सामाजिक आदि सभी प्रकार के नेता राजा लोग रहते आये है| इस प्रकार का नेतृत्व सदैव परिस्थिति सापेक्ष रहता आया है| दैवयोग से यदि राजा योग्य,साहसी और दूरदर्शी हुआ तो समाज उन्नत हो गया और यदि राजा इन गुणों से शून्य हुआ तो समाज गड्ढे में गिर गया| दुर्भाग्य से गत सात सौ वर्षों के इतिहास में महाराणा सांगा के अतिरिक्त और कोई राजपूत राजा इतना योग्य, दूरदर्शी और प्रभावशाली नहीं हुआ जो बिखरी हुई राजपूत शक्ति को बटोर कर एक ध्वज के नीचे ला सकता था| राजपूत जाति में एक महान जाति के सब गुण होते हुए भी केवल राजाओं की मुर्खता, अदुरदर्शिता, भीरुता, स्वार्थ और अहंप्रधान मनोवृति के कारण मुसलमान काल में राजपूत शक्ति छिन्न-भिन्न होकर या तो परस्पर लड़ती रही या शत्रुओं के उद्देश्य साधन बनती रही| राजपूत जाति मध्ययुग में सबसे अधिक लड़ी, सबसे अधिक कटी-मरी, सबसे अधिक उसने त्याग और बलिदान किया पर तो भी गुलाम ही बनी रही| क्यों ? राजाओं के असामाजिक दृष्टिकोण, अभिमान और अयोग्य नेतृत्व के कारण|

राजाओं का यह नेतृत्व अंग्रेजी काल में आते आते सर्वथा निरर्थक, अयोग्य और प्रदर्शन की वस्तु मात्र रहा गया| राजपूतों की उपयोगिता नष्ट करने और उन्हें प्रभावहीन बनाने के लिए अंग्रेजों ने अपनी कुटनीतिक चाल से सर्वप्रथम हिन्दू-समाज के इसी परंपरागत नेतृत्व को निष्प्रभ और खोखला बनाना आरम्भ किया| राजकुमारों के शिक्षण के लिए पृथक शिक्षण संस्थायें खोली गई| उन शिक्षण संस्थाओं के शिक्षण और वातावरण ने हिन्दू समाज के उन स्वाभाविक नेताओं में ऐसे संस्कारों का बीजारोपण किया जो क्रत्रिमता, अहंभाव, दासता, परावलंबन, भीरुता एवं विलासिता आदि दुर्गुणों से ओतप्रेत थे| इन शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, भाषा, व्यवहार आदि का तो बेढंगा अनुकरण कराया जाता, पर अंग्रेजों की चारित्रिक विशेषताओं, उनके जातिय गुणों और बौद्धिक धरातल तक पहुँचने का कभी भी अभ्यास नहीं कराया जाता| दूसरी और भारतीय जन-जीवन, दर्शन, समस्याओं और परम्पराओं से ये विद्यार्थी कोसों दूर रखे जाते थे| इस प्रकार उनकी शिक्षा और संस्कारों से भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही प्रकार की मौलिकताओं और विशेषताओं को सावधानी पूर्वक दूर रखा जाता| एक सुन्दर और विशिष्ट गुणयुक्त पृष्ठ-भूमि सहित ये बालक उन संस्थाओं में प्रवेश करते और जब वहां से शिक्षित होकर निकलते तब राष्ट्रिय और सामाजिक जीवन में कहीं भी फीट न होने वाले केवल आवारा मात्र बनकर आते| सदैव चापलूस समुदाय से घिरे रहने और शिकार, राग-रंग आदि में मस्त रहने के कारण ये जन-जीवन से शैने: शैने: दूर हटते गए| दूसरी और शासन की समस्त व्यावहारिक और वास्तविक जिम्मेदारी अंग्रेजों के हाथों में आ चुकी थी|

अतएव ये हमारे वंशानुगत नेता राजा-महाराजा उपयोगिता विहीन होकर कोतल घोड़ों की भांति सदैव प्रदर्शन की वस्तु मात्र बने रहे| अंग्रेजों ने इनके अहं को तृप्त करने के लिए अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर उनके नामों के आगे उपाधियों के रूप में लगा दिए और तोपों से सलामी की प्रथा प्रचलित कर दी| फिर क्या था, हमारे ये स्वाभाविक नेता अंग्रेज प्रभु-शक्ति के गुणगान करके, वेश्याओं और चापलूसों को दान देकर और छिप-छिप कर वन्य पशुओं का आखेट करके अपने क्षत्रियत्व को सार्थक करने के मिथ्या स्वप्नों में झूमते रहे| हुआ वाही जो अंग्रेज चाहते थे| जिस समय देश के सच्चे नेतृत्व की आवश्यकता थी उस वक्त हमारे जन्मजात नेता राजा लोग अंग्रेज प्रभु-शक्ति को प्रसन्न करने में दिन-रात एक करते रहे| परिणाम यह हुआ कि देश का राजनैतिक नेतृत्व राजपूतों के हाथों से खिसक कर निम्न श्रेणी के बुद्धिजीवी तत्वों के हाथों में चला गया|

क्रमश:................


Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है| rajput or bhavishy,antravalokan, sw.aayuvan singh shekhawat

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