Tuesday, September 10, 2013

राजपूत और भविष्य : 'वास्तविक नेतृत्व' भाग-2

भाग - 1 से आगे....
एक सफल और योग्य नेतृत्व के लिए सम्पूर्ण समाज का विश्वास प्राप्त करने के पूर्व अपने सहयोगियों और साथियों का विश्वास प्राप्त करना कहीं अधिक उपयुक्त है । वस्तुतः सहयोगियों और साथियों का क्षेत्र ही नेतृत्व की सफलता की पहली कसौटी है । जो व्यक्ति कुछ साथियों से विश्वास, प्रेम और सदभावना प्राप्त नहीं कर सकता वह समाज का विश्वास, उससे प्रेम और सदभावना भी प्राप्त नहीं कर सकता है । जिसकी आज्ञा में कुछ व्यक्ति ही चलने को तत्पर नहीं उस नेता की आज्ञा में सम्पूर्ण समाज कभी भी नहीं चल सकता है । इसी भाँती जो नेता अपने सहयोगियों और साथियों के साथ विश्वासघात कर सकता है वह समाज के साथ भी विश्वासघात कर सकता है । जिस नेता का अपने सहयोगियों और साथियों में भी आदर नहीं होता, उसका यदि समाज आदर करता भी है तो केवल अज्ञानता और रूढीवश । दुर्भाग्य से राजपूत समाज में इस प्रकार के नेता नामधारी प्राणी भी मिल जायेंगे, जिनमे किसी साथी एवं सहयोगी का तो विश्वास नहीं रहता पर समाज के कुछ अंश का विश्वास जरुर रहता है । समाज तो साधारतः किसी भी नेता के बाह्य व्यक्तित्व को देख कर ही प्रभावित होता है, उसकी स्वभावजन्य विशेषतायों और त्रुटियों को, आंतरिक कमजोरियों को और विशेषताओं को न तो वह देख सकता है और न ही समझ पाता है । यही कारण है कि आज बहुत से नेता वीरता और त्याग की खाल के नीचे कायरता और स्वार्थ के वास्तविक रूप को छिपा कर समाज का शोषण करते हैं । इन छद्दमवेशी नेताओं की पोल तो उनका निकटतम सहयोगी वर्ग ही जान सकता है । अतः किसी भी नेता की कार्य-क्षमता और गुणों का मुल्यांकन करने के पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि उसके निकटतम सहयोगियों की दृष्टि में उसका वास्तविक मूल्य क्या है ?

जब कोई भी व्यक्ति समाज को अपने सिद्धांतों पर चलाने की अभिलाषा लेकर कार्यक्षेत्र में उतरता है तब पहले-पहल वह अकेला ही होता है । उस व्यक्ति का प्रथम कार्य-क्षेत्र केवल एक से दो, दो से तीन और तीन से चार होने तक सिमित रहता है । जब वह व्यक्ति दो, तीन अथवा चार व्यक्तियों का विश्वास, प्रेम अथवा अपने उद्धेश्य के प्रति उनकी अटूट निष्ठा प्राप्त कर लेता है तब इन कार्यों को उसके नेतृत्व की पूर्ण सफलता का पूर्व आभास समझ लेना चाहिए । और यदि किसी भी नेता को उसकी उद्देश्य प्राप्ति में योग देने वाले एक सौ कर्मठ त्यागी और निष्टावान सहयोगी प्राप्त हो जायें तो उसकी सफलता में किसी भी प्रकार के संदेह की गूंजाइश नहीं रहती है । समाज के सच्चे शुभचिंतक और वास्तविक नेता को सदैव व्यक्तियों के निर्माण की और ध्यान देना चाहिए । वह नेता ही क्या जिसे सदैव अपने ही साथियों से पददलित होने का खतरा बना रहता है । इस प्रकार क्षीण और अयोग्य नेतृत्व सदैव अपने ही साथियों को अन्धकार में रख कर, उनके सर्वांगीण विकास का उचित अवसर आने नहीं देता । वास्तव में योग्य नेता तो वह है जो अपने जीवनकाल में ही अपने जैसे हजारों व्यक्तियों का निर्माण कर दे । इस विषय में 'मेरी साधना' के इन वाक्यों को सदैव याद रखना चाहिए ।

"बीज के लघु आकार में छाया, शीतलता और मधुर फलदायी विशाल वृक्ष समाहित है इसलिए उसका महत्व नहीं है और इसलिए भी नहीं कि वह वृक्ष की उत्पत्ति का कारण है, वरन उसका महत्व इस बात में है कि उसमें अपने जैसे सैंकड़ों बीजों के निर्माण की शक्ति भरी पड़ी है।"

नेता के उद्देश्य और कार्य-प्रणाली के प्रति निष्ठावान होकर आने वालों की अपेक्षा पहले-पहल अधिक संख्या उन भावुक नवयुवकों की होती है जो केवल उनके बाह्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ही सामाजिक-क्षेत्र में उतर पड़ते हैं । जब इस प्रकार के नवयुवक पहले-पहल कार्य-क्षेत्र में आते हैं तब उनकी अपनी मनोभावनाएं, काल्पनिक सफलतायें और निजी और पारिवारिक समस्याएँ भी उनके साथ होती हैं । योग्य नेता वही होगा जो इन सब समस्याओं की गहराई में प्रवेश कर नवागंतुक व्यक्तियों का विश्वास संपादन कर सके । ऐसे व्यक्तियों की अन्य आवश्यकताएं तो सामाजिक ध्येय और प्रणाली के अंतर्गत आकर सामूहिक रूप से पूरी की जा सकती है पर उनकी निजी अथवा पारिवारिक समस्याओं को पृथक रूप से सुलझाने की आवश्यकता बनी रहती है ।

आज के राजपूत समाज में एक कार्यकर्ता की सबसे महत्वपूर्ण निजी पारिवारिक समस्या उदरपूर्ति की है । इस समाज में कर्मठ और योग्य व्यक्ति सदैव श्रमजीवी मध्यम-श्रेणी में से होते आये हैं । अब तक के अनुभव ने सिद्ध कर दिया है कि उदरपूर्ति की समस्या से निश्चिन्त धनवान व्यक्ति सामाजिक क्षेत्र में कार्य करने में या तो सर्वथा अयोग्य सिद्ध होते हैं अथवा वास्तविक योग्यता के साथ तुलनात्मक परिक्षण के समय आत्म-लघुत्व की भावना से पराभूत होकर कार्य-क्षेत्र से हठ जाते हैं । जो मध्यमवर्गीय युवक किसी नेता के चारों और सामान्य ध्येय पूर्ति के निमित्त जीवन-दान देने के बदले ख़रीदा नहीं जा सकता । राजपूत समाज के अब तक के नेतृत्व ने सदैव यही प्रयास किया है कि इस प्रकार के लोगों की आत्मा को खरीद कर उन्हें अपना अनुयायी बनाया जाय । इसलिए ऐसे नेतृत्व के प्रति कर्मठ कार्यकर्ताओं की श्रद्धा घटती रहती है ।

यद्धपि नेता को अपने साथियों को प्रलोभन देकर या वेतनादि के बहाने अनुकूल बनाने का कभी भी प्रयत्न नहीं करना चाहिए तथापि उनकी व्यक्तिगत और पारिवारिक आवश्यकताओं का उसे सदैव ध्यान रखना चाहिए । जो व्यक्ति समाज के निमित्त अपने जीवन देने की अभिलाषा से कार्य-क्षेत्र में कूद पड़ते हैं, उनके बूढ़े माता-पिता और बाल-बच्चो के भरण-पोषण का उत्तरदायित्व नेता को स्वतः अपने ऊपर ले लेना चाहिए, जिससे से अपने साथियों में से अधिकतम व्यक्तियों के जीवन निर्वाह की समस्या पूर्ण अथवा आंशिक रूप से सुलझ सके। अपने सहयोगी कार्यकर्ताओं के स्वाभिमान और नैतिकता को अक्षुण रखते हुए नेता को उनकी आर्थिक विवशता और कठिनाइओं को दूर करना चाहिए । जो नेता यह नहीं कर सकता, उसमें और सब गुणों के होते हुए भी नेतृत्व के व्यावहारिक पक्ष का अभाव समझना चाहिए । अपने साथियों को सब प्रकार के उचित अभावों और आवश्यकताओं से मुक्त रखना योग्य नेतृत्व की व्यावहारिक कसौटी है ।

अपने सहयोगियों को आर्थिक चिंता और पारिवारिक समस्याओं से मुक्त रखने के निश्चित रूप से दो परिणाम होंगे । उनकी कार्यक्षमता बढ़ेगी, अनुशासन और उत्तरदायित्व के प्रति वे अधिक जागरूक होंगे और अनैतिक, अवसरवादी और पथ भ्रष्ट होकर उनके पतित होने का कम अवसर रहेगा । अपने साथियों को चिंता से मुक्त रखना स्वयं अपने को चिंताओं से मुक्त रखने और अपनी ही कार्य-कुशलता को बढ़ाने के समान है । निराशा और निरुत्साह, चिंतायें और समस्याएँ, असफलताएँ और पराजय उस नेता को कभी भी हतप्रभ नहीं कर सकती जिसे अनेकों चिंतामुक्त, प्रसन्न-चित्त और कर्मठ चेहरे सदैव घेरे रहते हैं ।

क्रमश :........

2 comments:

  1. राजपूत समाज वर्षों से एक स्थायी नेतृत्व को तलाश रहा है मगर आपसी उठा-पटक की बदौलत आज तक सफलता हाथ नहीं लगा। बिना स्थायी और समर्पित नेतृत्व के बिना राजपूत समाज अपने ओहदे की गरिमा बनाए रखने मे असक्षम है।

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