Sunday, September 8, 2013

राजपूत और भविष्य : अन्तरावलोकन भाग- 5

भाग 4 से आगे..........

राजपूत जाति में स्त्री-शिक्षा की तो और भी दुर्गति है| अनपढ़, अन्धविश्वासी और अज्ञानी माताओं द्वारा पोषित और संस्कृत संतानें समाज के लिए वरदान स्वरूप कैसे हो सकती है? आजकल कुछ संपन्न घराने की बालिकाओं को पाश्चात्य पद्धति की शिक्षा देने के लिए कई इसाई मिशनरी स्कूलों में भर्ती कराया जाता है| इस प्रकार की शिक्षा के दुष्परिणाम दिनों दिन दिखाई पड़ रहे है| इस प्रकार की कुसंस्कारजन्य शिक्षा से तो स्त्रियों को अशिक्षित रखना कहीं अधिक श्रेयष्कर होगा| स्त्री-शिक्षा इस समय समाज की बड़ी आवश्यकता और युग की प्रभावशाली मांग है| इस विषय की और गम्भीरतापूर्वक सोचना आवश्यक है| सामाजिक रुढियों में सबसे भयंकर टीका और कन्या-विक्रय की प्रथाएँ है| इन प्रथाओं के कारण अनमेल, वृद्ध आदि विवाह होते रहते अहि| विवाह बंधन विशुद्ध प्रेमतत्त्व के आधार पर न होकर आर्थिक परिस्थिति के आधार पर होता है| इससे कई प्रकार की पारिवारिक विषमतायें और व्यक्तिगत कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है| कतिपय राजपूत परिवारों द्वारा शारीरिक कार्य के प्रति घृणा करना भी एक रूढी है| श्रम प्रधान इस युग में श्रम से घृणा करके कोई जीवित नहीं रह सकता| इस समाज-वादी युग में अब श्रम करके जीविकोपार्जन करना आवश्यक हो गया है| अतएव शारीरिक श्रम और उधम इस युग में गौरव की वस्तु अहि, लज्जा की नहीं| जिन परिवारों की स्त्रियाँ रूढीवश श्रम से घृणा करती है, आज के इस प्रतिस्पर्धा और उत्पादन के युग में उनकी दयनीय और असहाय दशा होना अवश्यम्भावी है| अनैतिक कार्यों से सदैव घृणा करनी चाहिये, शारीरिक उद्धम से नहीं|

किसी भी जाति की आंतरिक कमजोरियां तभी प्रकाश में आती है जब वह जाति प्रगति के पैर पर कदम रखती है| निंद्रितजाति की आंतरिक कमजोरियां केवल विचारकों के मनन और विवेचन आदि की वस्तुएं होती है| पर प्रश्न यह है कि जब राजपूत जाति प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होने लगे तब उसका गंतव्य स्थान कहाँ और क्या हो? बिना लक्ष्य के प्रगति का कुछ भी तात्पर्य नहीं होता| एक जीवित और प्रगतिशील जाति के सामने अवश्य जातिय और सामाजिक लक्ष्य होना चाहिये और वह लक्ष्य ऐसा सर्वव्यापी और परिपूर्ण होना चाहिये जिसके अंतर्गत जाति का राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक लक्ष्य स्वत: ही आ जाये| राजपूत जाति का क्या लक्ष्य होना चाहिये? इस प्रश्न पर आगे प्रकाश डाला जायेगा| पर इस समय देखना यही है कि गत सैकड़ों वर्षों से समस्त राजपूत जाति लक्ष्य-भ्रष्ट और लक्ष्य-विहीन होकर अन्धकार में भटक रही है| उसका सैंकड़ों वर्षों से एक सर्वमान्य लक्ष्य कभी नहीं रहा| लक्ष्य की एकता संगठन की प्रथम और आवश्यक शर्त है, अतएव सर्वमान्य और स्वाभाविक लक्ष्य के अभाव के कारण ही राजपूत जाति अब तक छिन्न-भिन्न और असंगठित रही है|

जब हम सामाजिक उद्देश्य की कल्पना करते है तब निश्चित ही उसमें कुछ ऐसे शाश्वत गुण होने चाहिये जो देश, काल और परिस्थिति-निरपेक्ष हो| केवल सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली वस्तु सामाजिक लक्ष्य न होकर साधन-मात्र ही कही जा सकती है| लक्ष्य सदैव सत्य, सकारात्मक और महान होना चाहिये|

राजपूत इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि सैंकड़ों वर्षों से इस जाति के सामने कोई भी शाश्वत, गुण-संपन्न और सकारात्मक लक्ष्य नहीं रहा है| जो कुछ भी राज्यादी उनके पास बचे थे, उनकी येनकेन प्रकारेण रक्षा करते रहने में ही राजपूतों ने अपने लक्ष्य की इतिश्री समझ ली| इस प्रकार के रक्षात्मक कार्य सदैव ही खतरों से भरे रहते है| विकासोन्मुख समाज की प्रथम पहचान सामाजिक महत्वाकांक्षा की चलायमान और क्रियान्विति करते रहने की उसकी क्षमता से होती है और पतनोन्मुख समाज की भावना अन्तर्निहित रहती है| आक्रमणात्मक नीति के स्थान पर केवल रक्षात्मक नीति अपनाने का तात्पर्य है प्रगति के स्थान पर पतन को स्वीकारना| रक्षात्मक कार्यों में उच्च कोटि के वीरत्त्व की अभिव्यंजना होती है, पर पराक्रम का उनमें नितांत अभाव रहता है और बिना पराक्रम के महान जाति और राष्ट्र के रूप में अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहा जा सकता| गत सैकड़ों वर्षों से राजपूत इसी प्रकार के रक्षात्मक कार्यों में लगे रहे| परिणाम यह हुआ कि न तो वे अपने हितों की रक्षा ही कर सके और न ही कोई नई चीज प्राप्त कर सके| जब हम विरोधी शक्ति के प्रति प्रहारात्मक नीति नहीं अपनायेंगे तब तक साधारण रक्षात्मक कार्य भी असफल सिद्ध होते रहेंगे| रक्षात्मक कार्यों के असफल सिद्ध होने से निराशामूलक प्रवृति का जन्म होता है, पर प्रहारात्मक नीति के एक बार असफल हो जाने पर समाज की विशेष हानि नहीं होती और न निराशा मूलक स्थिति ही उत्पन्न होती है| भविष्य में हमारे कार्यक्रमों और नीति का लक्ष्य विरोधी शक्ति के सिद्धांतों और नीति पर निरंतर और भीषण प्रहार करना होना चाहिये| चारों और से विरोधियों पर प्रहार पर प्रहार करके उनको अपनी रक्षा की चिंता में रक्षात्मक स्तर पर उतर आने के लिए विवश करना बहुत अब्दी सफलता होगी|

वे तब तक हमारे ऊपर प्रहार करते हुए बंद नहीं होंगे जब तक उनकी स्वयं की स्थिति और प्रभाव को क्षति पहुँचने का भय उत्पन्न न होगा| इस प्रकार रक्षात्मक से प्रहारात्मक बनने से सुरक्षा की स्थिति ही बनी रहेगी और साथ के साथ नई सफलता-प्राप्ति से उत्साह और साहस भी बने रहेंगे| अतएव हमारे भावी कार्यक्रमों की प्रवृति और प्रकृति प्रहारात्मक होनी चाहिये|

उद्देश्य-प्राप्ति की सफलता अथवा असफलता उस उद्देश्य तक पहुँचने के ढंग पर निर्भर होती है| राजपूत जाति ने अपने ध्येय की सिद्धि के लिए जो कुछ भी अब तक किया वह योजनाबद्ध नहीं था| केवल भावुकता तथा किन्ही परिस्थितियों के वशीभूत किया गया कार्य सुनिश्चित और सुविचारित योजना का अंग नहीं कहा जा सकता| प्रत्येक कसौटी और पहलू पर गम्भीरतापूर्वक सोच-विचार कर कसा गया और किया गया कार्य नि:संदेह निश्चित फलदायी होता है| अतएव आवश्यकता इस बात की है कि इन कमियों को पूरा करके समाज के सामने एक निश्चित ध्येय रखा जाय और उस ध्येय तक पहुँचने के लिए एक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और निश्चित प्रणाली रखी जाय|

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