Sunday, October 13, 2013

नई प्रणाली : नया दृष्टिकोण - 3 (राजपूत और भविष्य)

भाग दो से आगे....
पूंजी-जीवी बनियों और बुद्धिजीवी ब्राह्मण अब तक बल-जीवी क्षत्रियों को निरुपयोगी और राजनैतिक, आर्थिक आदि दृष्टियों से सत्ताहीन ही बना सकें है| वे अभी तक उनके सामाजिक अस्तित्व को सर्वथा समाप्त करने में फलीभूत नहीं हुए है| पर आगामी नए युग का यह शुद्र्त्व-प्रधान नया उत्थान केवल क्षत्रियों संस्थाओं को ही नहीं, वरन क्षत्रियों को भी क्षत्रियोचित गुणो के साथ जीवित नहीं रहने देगा| यह समाजवाद का कार्यक्रम और साम्यवाद का उत्थान हिन्दू जाति और विशेषत: द्विजातियों को विध्वंस करने के लिए अणुबम के सदृश घातक और विनाशकारी सिद्ध होने वाला है| आने वाला कल क्षत्रियों के अस्तित्व के लिए अतीव भयंकर है| परिस्थितियां इस प्रकार से बनाई जा रही है कि राजपूत गांवों में भी अपने परम्परागत गुणों, रीति-रिवाजों, सामाजिक व्यवस्थाओं और सम्मान के साथ जीवित नहीं रह सकेंगे| हाँ ! बुद्धिजीवी वर्गों की भांति शूद्रों के गुणों और कर्मों को अपनाकर जीवन के भौतिक अस्तित्व को कोई भी स्थिर रख सकता है| इस प्रकार का भौतिक अस्तित्व कैसा हो सकता है इसकी आज हम आसानी से कल्पना कर सकते है| सम्पूर्ण राजपूत जाति और राष्ट्र पर इतना व्यवस्थित और भयंकर खतरा शायद इतिहास में पहले कभी भी नहीं आया| आज तो राजपूत जाति का अस्तित्व तक खतरे में पड़ गया है|

तो प्रश्न उठता है कि राजपूत आज क्या करे ? वे आज अपने चिरसंचित राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अस्तित्व की रक्षा कैसे करे ? वे एक जाति और राष्ट्र के रूप में कैसे जीवित रहे ? भविष्य उनके लिए कैसा है ? प्रश्नों का एक ही उतर हो सकता है कि बुद्धि और पुरुषार्थ का सामंजस्य कर वे आगे बढ़ें |

भविष्य हमारे सामने निर्विकार और निर्लिप्त भाव से खड़ा है, न वह उज्जवल है और न अंधकारमय| उसको वर्तमान की काली छाया से सुरक्षित रखना हमारी बुद्धि का कौशल होगा और प्रकाश की प्राणमयी व्याप्ति कर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करना हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर रहेगा| वह सब प्रकार से हमारे अधीन है| तब हमें भविष्य को निश्चित रूप से प्रकाशमान ही बनाना है, इसलिए आत्मा,मन,बुद्धि और शरीर की समस्त शक्ति को एकाग्र कर उठो, आओ और व्यवस्थित रूप से कर्म-रूपी पुरुषार्थ के लिए कटिबद्ध हो जाओ|

राजनैतिक क्षेत्र में इस कर्म-रूपी पुरुषार्थ की रूप-रेख क्या होगी, इसे समझ लेना आवश्यक है| समस्या त्रिकोणात्मक रूप में हमारे सामने है| एक और युग-धर्म हमारे सामने है जिसके अनुसार प्रजातंत्रीय, समाजवादी अथवा साम्यवादी शासन प्रणाली में से किसी के भी अंतर्गत श्रमजीवी वर्गों का अभ्युत्थान निश्चित सा है| इसको रोकने का प्रयास निरर्थक सिद्ध होगा| दूसरी और इन श्रमजीवी शक्तियों के माध्यम से नए पनपने वाले शुद्र्वाद में पाश्चात्य देशों के निकृष्टतम गुणों का समावेश हो गया है जो मुख्यत: राष्ट्र के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के लिए हानिकारक है| तीसरी और प्रश्न यह है कि राजपूत किस प्रकार इस आने वाले युग में अपनी अपनी उपयोगिता बढ़ा कर क्षत्रियोचित गुणों सहित जीवित रह सकते है ? समस्या का दूसरा रूप पहले का ही पूरक है व तीसरा इन दोनों का विरोधी|

हमें युगधर्म की अवहेलना नहीं करनी चाहिए| पिछले युगों को न पहचान कर बैठे रहने का दुष्परिणाम हुआ है वह हमारी आँखे खोलने के लिए पर्याप्त होना चाहिए| अन्य बुद्धिजीवी तत्वों की भांति यदि हम युग धर्म को पहचान कर कार्य करते तो इस बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभाव को बहुत कम किया जा सकता था और हमें इतनी हानि भी नहीं उठानी पड़ती| जिस समय यह बुद्धिजीवी वर्ग मिलकर नए युग का सूत्रपात कर था तथा नवीन विचारधारा और दृष्टिकोण का सृजन कर रहा था, उस समय हम युग के घटनाचक्र और तथ्यों की और आँख मूंद कर बीते युग की बासी प्रणाली और उसके मृत सिद्धांतों से ही चिपटे रहे| गत बीस वर्षों का अमूल्य समय हमने निरर्थक खो दिया| परिणाम यह हुआ कि तुच्छातीतुच्छ शक्तियों से ही मार खा बैठे| युग परिवर्तन के समय स्वयं को नए युग के अनुसार परिवर्तित नहीं कर सकने की विवशता का नाम ही मृत्यु है और उसी मृत्यु का हमने आव्हान किया| पर युग परिवर्तन के इस समय में हमें विकासोन्मुख होकर निश्चित रूप से रूप से विकासोन्मुख शक्तियों का साथ देना है|

क्रमश:...

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