Monday, October 14, 2013

नई प्रणाली : नया दृष्टिकोण - 5 (राजपूत और भविष्य)

भाग चार से आगे....

क्षेत्रीय दृष्टिकोण से यदि विचार करें तो आज शहरी क्षेत्रों का ग्रामीण क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष प्रभुत्व है| भारत की अस्सी प्रतिशत ग्रामीण जनता व्यावहारिक रूप से आज शहरों की बीस प्रतिशत जनता द्वारा शासित हो रही है| गांवों के श्रम और बलिदान से आज शहर वैभवशाली और संपन्न है| शहरों की चकाचोंध उत्पन्न करने वाली लक्ष्मी गांवों के भूखे, नंगे, अशिक्षित, रोगी और असहाय करोड़ों ग्रामवासियों के खून और पसीने का परिणाम है| आज भारत के शहर शासक और गांव शासित है, शहर शोषक और गांव शोषित है| इसी शहरी जनता का बुद्दिजीवी तत्व गांवों को ढाल बनाकर राजपूतों को पद-दलित करने वाला और उसका वास्तविक शत्रु है| शहर ही इन बुद्दिजीवी तत्वों के मुख्य रूप से निवास स्थान है|

पर हमें शत्रु और मित्र का यह श्रेणी विभाजन जातिवाद अथवा क्षेत्रवाद के आधार पर नहीं करना चाहिये| अन्य सब देशों की भांति भारत भी आज मुख्यत: दो वर्गों में विभाजित है- एक बुद्दिजीवी वर्ग और दूसरा श्रमजीवी-वर्ग| आज भारत की सत्ता अल्प-संख्यक बुद्धिजीवी के हाथों में है| यही वर्ग आज वास्तविक रूप से कानून का निर्माता, उसे क्रियान्वित करने वाला और न्यायाधीश आदि सब कुछ है| अपने बुद्धि-कौशल, साधन और सत्ता द्वारा भोले भाले, निर्धन, अशिक्षित और असंगठित बहुसंख्यक श्रमजीवी वर्ग से चुनावों में मत प्राप्त करके सत्ता प्राप्त करना इस बुद्दिजीवी-वर्ग के लिए बाएं हाथ का खेल हो गया है| वास्तव में आज का शोषक और सब बुराइयों की जड़, यह बुद्धिजीवी-वर्ग ही है, जो भारत की जनसँख्या के ९०% अंश श्रमजीवी-वर्ग पर शासन करता है| श्रमजीवी-वर्ग के अभ्युथान के इस युग में यही बुद्दिजीवी-वर्ग फिर से श्रमजीवी-वर्ग पर हावी होकर उनका नेता, पथ प्रदर्शक, उद्धारक बनने की कोशिश कर रहा है| अतएव सावधान इस बात से रहना है कि श्रमजीवी अभ्युथान के इस युग में बुद्धिजीवी-वर्ग फिर से कहीं नेता बनकर युग धर्म के साथ खिलवाड़ न करने लग जाये|

समाजवादी शासन, कल्याणकारी राज्य, सर्वोदय और बुद्धिजीवियों द्वारा नियंत्रित और परिचालित आज अनेकों “संघ” और “यज्ञों” के लुभावने सिद्धांतों की ओट में श्रमजीवी-वर्ग पर जो जो सत्ता बनाये रखने की चालें है, उनमें सावधान रहने की आवश्यकता है| श्रमजीवी वर्ग की अब तक जो अवहेलना होती रही है, उसे अब समाप्त करना होगा| उसे समाज में अपना वास्तविक स्थान मिलना चाहिये| वह स्वयं अपने भाग्य का निर्णायक हो और यह तभी संभव हो सकता है जब श्रमजीवी-वर्गों में राजनैतिक चेतना का संचार कर उनके राजनैतिक अधिकारों और स्थान को सुरक्षित कर दिया जाये| इसका तात्पर्य होगा सत्ता का बुद्धिजीवी तत्वों के हाथों से निकल कर श्रमजीवी-वर्गों के हाथों में आना और यही एक प्रक्रिया श्रमजीवी अभ्युत्थान की एक मात्र शर्त हो सकती है| शुद्रत्त्व के निकृष्टतम गुणों सहित जो अभ्युत्थान होने जा रहा है उसे रूपांतरित कर भारतीय संस्कृति और वातावरण के अनुकूल श्रमजीवी अभ्युत्थान के रूप में प्रकट करना है| इस प्रकार के अभ्युत्थान में कन्धा भिड़ा कर हमें योग देना है|

भविष्य में राजपूतों को श्रमजीवी अभ्युत्थान में सहायक होने के लिए पहले उस वर्ग के साथ एकाकार होना होगा| उसके साथ एकाकार होने का अर्थ है समान स्वार्थ और हितों को एकाकार करना| यह एकाकार मुख्यत: राजनैतिक और आर्थिक हितों के एकाकार के रूप में होगा, पर ऐसा करते समय सामाजिक जीवन के घृणात्मक और विभेदात्मक पहलुओं का शुद्धिकरण आवश्यक है|

आज राजपूत राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से अन्य श्रमजीवी-वर्गों के समकक्ष ही है| श्रम द्वारा उपार्जित धन से ही उनका भरण-पोषण हो रहा है| इस प्रकार राजपूत आज मुख्य रूप से कृषक वर्ग का ही एक अंग है| अतएव राजनैतिक और आर्थिक स्वार्थ अन्य कृषक-वर्ग के स्वार्थों से भिन्न कदापि नहीं हो सकते| इस प्रकार राजपूत जाति का स्थान मुख्यत: शारीरिक परिश्रम द्वारा जीवनयापन करने वाले भारत की नब्बे प्रतिशत जनसँख्या के अंतर्गत है| अन्य श्रमजीवी वर्गों की भांति राजपूत जाति का भी सब से बड़ा शत्रु शहरों में रहने वाला बुद्दिजीवी-वर्ग है| अतएव समान स्वार्थ, हित, समस्या और समान-विरोधी होने के कारण राजपूत और अन्य श्रमजीवी-वर्ग एक है| आवश्यकता इस बात की है, कि जब उन्हें इस बुद्धिजीवी-वर्ग के शोषण से छुटकारा प्राप्त करने के समान उद्देश्य की माला में पिरो दिया जाय|

ऐतिहासिक तथ्यों का विश्लेषण करने और घटनाक्रम को सरलता से समझाने के लिए श्रमजीवी-वर्गों को अब तक शुद्र संज्ञा से अभिभूत किया जाता रहा है| पर शुद्रत्त्व के साथ हीन भावनाओं का आरोपण होने के कारण तथा उसके दुर्गुणों का परिष्कार करने की बात को ध्यान में रखते हुए श्रमजीवी-समुदाय को भविष्य में पुरुषार्थी समुदाय के नाम से पुकारना अधिक उपयुक्त होगा| श्रमजीवी संज्ञा भी इस वर्ग की सम्पूर्ण और वास्तविक अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है| शुद्रत्त्व के निकृष्ट गुणों को तिरोहित करने तथा राजपूतों का राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से उनके साथ एकाकार हो जाने के उपरांत इस वर्ग का पुरुषार्थी नामकरण अत्युतम होगा|अतएव इस नए युग को पुरुषार्थी अभ्युदय का युग बनाना पड़ेगा| यही युग धर्म है और यही है आज की व्यावहारिक राजनीति|

अछूत समझी जाने वाली जातियों और अन्य श्रमजीवी-वर्गों द्वारा निर्मित यह पुरुषार्थी वर्ग राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत ही पिछड़ा हुआ है| समाजवाद, साम्यवाद आदि की ओट में बुद्धिजीवी-वर्ग पथ प्रदर्शक बन इस वर्ग के मूल्य पर अपना उल्लू सीधा करने में सलंग्न है| ऐसी दशा में इस दीन, असहाय और पथविचलित-वर्ग की रक्षा कर न्याय और सच्चाई की रक्षा करना क्षात्र धर्म का मूल सिद्धांत है| इस समय इस पुरुषार्थी वर्ग की हम रक्षा करने की स्थिति में न है न सही, पर उनका साथ देने की स्थिति में तो अवश्य है| हम इसी पुरुषार्थी वर्ग को साथ लेकर अपनी भावी राजनैतिक और आर्थिक योजना की रूप रेखा बना सकते है| हम इस पुरुषार्थी वर्ग के सुख दुःख उसकी समस्याएं और जीवन की गति में सहायक और भागीदार बन सकते है| यह परीक्षित तथ्य है कि यह पुरुषार्थी वर्ग भी बुद्धिजीवी-वर्ग की अपेक्षा अपने समान-कर्मी राजपूतों के नेतृत्व और सहयोग को ही अधिक पसंद करेगा| हमें अपना अस्तित्व रखने के लिए समाज के इस अत्यंत ही महत्त्वशाली अंग के साथ मिल कर भावी अभ्युत्थान का मार्ग प्रशस्त करना है| बलजीवी व श्रमजीवी शक्तियों का एकीकरण करना है|

भारत में जब तक चुनाव द्वारा सत्ता प्राप्ति की पद्धति प्रचलित रहेगी तब तक यहाँ पर पुरुषार्थी शक्तियों का ही शासन होगा| भारत एक कृषि-प्रधान देश है और रूस और चीन की भांति यहाँ की अधिकांश जनसँख्या के जीवन-निर्वाह का साधन भी कृषि ही है| औद्योगिकरण के उपरांत भी भारत में बहुमत किसानों का ही होगा| मजदुर और श्रमजीवी शक्तियों का प्रभाव अधिक बढ़ने का अवसर यहाँ नहीं है| इस प्रकार भारत में सदैव इसी पुरुषार्थी-वर्ग और विशेषत: कृषक-वर्ग के हाथों में सत्ता रहनी चाहिये| सौभाग्य से राजपूत इसी कृषि-वर्ग के अंतर्गत आते है, अतएव उन्हें कृषक-वर्ग के हितों को प्रमुखता देकर और उनको लाभ पहुंचाने वाले कार्यक्रमों को लेकर राजनैतिक कार्यक्षेत्र मंत कार्य करना चाहिये| अब कृषकों के लाभ में ही राजपूतों का लाभ है| कृषकों की हजारों समस्याएँ हो सकती है| उन समस्याओं के निराकरण के लिये प्रयत्न और संघर्ष करना अब हमारे लिए आवश्यक हो गया है|

कुछ लोग आज के शुद्र समझे जाने वाले और श्रमजीवी-वर्ग से गठबंधन की बात सुनकर चौंक सकते है| उनके चौंकने का कारण धर्म-संस्कृति आदि के प्रति कुछ रूढिगत और गलत धारणाएँ हो सकती है| पर वे इस बात को भूल जाते है कि जिस बुद्धिजीवी-वर्ग का साथ अब तक वे देते आये है, वह धार्मिक दृष्टि से कहीं अधिक पतित और नैतिकताहीन है| इतिहास भी साक्षी है कि जब जब राजपूतों और देश पर विपत्ति आई तब तब इसी पुरुषार्थी-वर्ग ने अपना रक्तदान और सर्वस्व देकर राजपूतों का साथ दिया था| राजपूत राज्यों की स्थापना और रक्षा में इसी पुरुषार्थी-वर्ग का जो सक्रीय सहयोग रहा है, वह इतिहास-मर्मज्ञों से छिपा हुआ नहीं है| यह बुद्धिजीवी-वर्ग उस समय भी देश के लिए भार था और अब भी वैसा ही है|

क्रमशः.....

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