Wednesday, October 30, 2013

परिचय -१ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

पिछले भाग से आगे......
विश्व साहित्य के आदि काव्य-ग्रंथ बाल्मीकि रामायण को दो बार पढ़ डाला| तुलना के लिए साथ में करोड़ों हिन्दुओं के परम श्रद्धेय ग्रंथ तुलसीकृत रामायण को भी पढ़ गया| राम-राज्य के आदर्श से अचम्भित हो उठा और गौरव से मस्तक उन्नत हो गया| कितनी सुन्दर समाज-व्यवस्था, कितनी आदर्श परिवार-व्यवस्था, कितनी निष्कपट राज्य-व्यवस्था, कितनी कल्याणकारी अर्थ-व्यवस्था और इन सब व्यवस्थाओं को नियंत्रण में रखने वाली कितनी उच्च और महान धर्म-व्यवस्था थी ? आज भी भारत उन्हीं व्यवस्थाओं से गर्व कर सकता है|

और ये व्यवस्थाएं मेरे पूर्वजों द्वारा निर्मित, रक्षित और संचालित थी| मैं आज पुरुषोतम भगवान् राम की देह और परम्परा का प्रतिनिधित्त्व करता हूँ| ओह ! मैं कितना अभागा, मूढ़मति और अल्पदर्शी हूँ कि इस प्रकार की सर्वंगीण सुन्दर परम्परा के प्रतिनिधित्त्व का दम भरने वाला होकर भी आज के इन विदेशी, विजातीय, अल्पजीवी और अपूर्ण वादों के फंदे में फंस गया| मेरी आत्मा व्यग्रतापूर्वक किसी की खोज कर रही थी; वह मुझे अनायास ही रामायण में मिल गया, इच्छित फल की प्राप्ति से पूर्ण सुख मिला|

इसके उपरांत विश्व-साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत को भी दो बार पढ़ डाला| भारतीय साहित्य में महाभारत एक अथाह सागर के समान गहराई और विशालयुक्त ग्रंथ है, जिसमें जितनी डुबकियाँ लगाईं जाये उतने ही अनुपम रत्न प्राप्त होते है| इसी महाभारत रूपी महासागर में गीता जैसा अमूल्य रत्न भी है जिसका मूल्यांकन न कोई संसार का जौहरी अब तक कर सका है और न ही कर सकता है|

इसी महाभारत में मेरे उन पूर्वजों की गौरव-गाथाओं और महिमा का वर्णन है जिन्होंने विश्वविजय किया था, जो इस भूखंड के चक्रवर्ती सम्राट थे और उसी वंश के दीपक की लौ होते हुए आज............?

महाभारत का युद्ध भाइयों-भाइयों का साधारण गृह-युद्ध नहीं था, वह धर्म और अधर्म का युद्ध था---क्षात्र-धर्म के औचित्य और स्वरूप को स्थिर करने का उदाहरण था| यदि दुर्योधन पांडवों को पांच गांव भी दे देता तो वह नर संहार नहीं होता| वे पांच गांव पाण्डवों को कितने प्रिय थे ? उनपर उनका पैतृक अधिकार था; वे उनकी परम्परागत संपत्ति थी| पैतृक अधिकारों की रक्षा ही स्वधर्म की रक्षा है; पैतृक अधिकार ही जन्म सिद्ध अधिकार है| इन्हीं जन्म-सिद्ध अधिकारों की रक्षा और स्वाभाविक कर्तव्य-पूर्ति में कोई तात्विक अंतर नहीं होता है| इसी कर्तव्य-पूर्ति के लिए मर मिटने से स्वर्ग अनायास ही प्राप्त हो जाता है| पैतृक अधिकारों के लिए संघर्ष धर्म युद्ध का ही एक स्वरूप है और इसी धर्म-युद्ध का अवसर क्षत्रिय को दुर्लभता से प्राप्त होता है| इन्हीं पैतृक और परम्परागत अधिकारों की रक्षा के लिए महाभारत का धर्म-युद्ध लड़ा गया जिसमें अट्ठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हो गया, पर किसी ने भी धर्मराज युधिष्टर को पापी नहीं कहा| वास्तव में उनका पक्ष धर्म, न्याय, सत्य और औचित्य का ही था| और आज हमारे पैतृक और परम्परागत अधिकारों की क्या दशा है ? महाभारत की कहानी पढ़ी बहुतों ने है पर उससे सीखा कदाचित किसी ने कुछ भी नहीं|

महाभारत पढ़ लेने के उपरांत कोटि-कोटि हिन्दुओं के परम श्रद्धेय धर्म-ग्रन्थ श्रीमदभागवत को पढने की इच्छा प्रबल हुई| भगवत में गूढ़तम आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धांतों को कितनी सरलता और वैज्ञानिकतापूर्वक जीवन के उदाहरणों द्वारा समझाया गया है| भागवत की कथाओं ने मुझे नवीन रूप से प्रेरणा दी| मेरे पूर्वजों को धर्म और दर्शन के अमूर्त सिद्धांतों को व्यावहारिक जीवन में ढाल कर मूर्त स्वरूप देने का कितना अधिक श्रेय है; यह सत्य इस ग्रन्थ को पढ़ लेने के उपरांत ही ज्ञात हुआ| परब्रह्म परमात्मा के रूप में जिस भागवत कृष्ण की भक्ति का भागवत में प्रतिपादन किया गया है, वे सौलह कला अवतार, दुष्ट-विनाशक भगवान् कृष्ण हमारे ही तो पूर्वज थे और आज हम उनकी संतानें दाने दाने को.............|

दो तीन पुराणों को पढ़ा| उनको पढ़ लेने के उपरांत एक ही धारणा की पुष्टि हुई कि मैं जिस परम्परा का, रक्त, जन्म और संस्कारों से प्रतिनिधित्त्व करता हूँ वह अतीव आदर्शवान, उच्च, निर्भीक और अद्वितीय है;- वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्य, धूर्तता और उत्पीड़न के सामने झुकना और नतमस्तक होना जानती ही नहीं है| वह पराजय और पतन को विजय और उल्लास में बदलना तो जानती है पर उन्हें मन-वचन और कर्म से स्वीकार करना जानती ही नहीं है|

रघुवंशी राजाओं के गौरव की अमर गाथा और उज्जवल महिमा का वर्णन मैंने “रघुवंश” में पढ़ा| स्वाभिमान के अलौकिक आनंद से देह और आत्मा पुलकित हो उठी| वे परम यशस्वी रघुवंशी सम्राट मेरे पूर्वज थे| उनके गौरव और बड़प्पन की तुलना संसार में किससे की जा सकती है ? इसी महिमामय, गौरवमय और निष्कलंक वंश की उज्जवल कीर्ति का वर्णन करने में सरस्वती-पुत्र, कवि-कुल-कलम दिवाकर, कवि शिरोमणि महाकवि कालिदास ने अपनी भावुकता, काव्य-मर्मज्ञता, कला-परिश्रम, शक्ति और वाणी की परम सार्थकता समझी| यदि मैं “रघुवंश” नहीं पढता तो जान ही नहीं सकता था कि मेरी वंश-परम्परा कितनी महान, उज्जवल और देदीप्यमान है|

उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य के कुछ और भी ग्रंथ पढ़े| उन सब में एक ही ध्वनी प्रतिध्वनित हो रही थी कि इस भू-मंडल पर मेरे पूर्वजों का चरित्र और व्यक्तित्त्व श्रेष्ठतम था| मुझे अनुभव हुआ, मैं उन श्रेष्ठतम महापुरुषों की निष्कृठतम संतान आज भारस्वरूप होकर दीनतापूर्वक क्षुद्र जीवनयापन कर रहा हूँ|

प्राकृत (पाली) और अपभ्रंश भाषाओँ और अमूल्य भाषाओँ का साहित्य पढने का अधिक सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है| इन भाषाओँ में भी अथाह और अमूल्य साहित्य भरा पड़ा है| इन भाषाओँ का लगभग सभी उपलब्ध साहित्य बौद्ध और जैन धर्मावलम्बियों द्वारा सृजित और निर्मित है| अनुमान लगा सकता है कि इस साहित्य का वर्ण्य-विषय मुख्य रूप से मेरे ही पूर्वजों का चरित्र था| इसके नायक, पात्र, दृष्टान्त और उदाहरण सब वे ही थे| कारण कि जिस महान मानवी, बौद्ध और जैन मतों का प्रवर्तन इस संसार में कर्म-शुद्धि और अहिंसा का पाठ पढ़ाने के लिए हुआ था, वह क्षत्रिय-पुत्र भगवान् बुद्ध और महावीर द्वारा ही हुआ था| क्षत्रिय-परम्परा को बौद्ध और जैन-परम्परा के प्रति सदैव उदार और हितैषी रहना चाहिये तथा बौद्ध और जैन-परम्परा को सदैव क्षत्रिय-परम्परा के प्रति श्रद्धालु, नमनशील और कृतज्ञ रहना चाहिये|

हिंदी के आदि काव्य-ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो की प्रत्येक घटना राजपूत चरित्र से सम्बंधित है ही, इस पर अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं| इसके उपरांत हिंदी साहित्य के लगभग सभी महा-काव्यों, खंड-काव्यों और मुक्तक-काव्यों का मैंने अनुशीलन कर डाला| गध्य साहित्य के सभी प्रचलित स्वरूपों को पढ़ डाला| कुछ गुजराती और बंगला से हिंदी में अनुदित ग्रंथ भी पढ़े| हिंदी साहित्य में कल तक महाकाव्यों का धीरोदात नायक क्षत्रियों के अतिरिक्त और कोई हो नहीं सकता था| किसी भी महाकाव्य के नायक में जो शास्त्रीय विशेषताएँ होनी चाहिये, वे सब केवल क्षत्रिय नायक में ही मिल सकती है| वीरगाथा-काल, सगुण भक्ति-काल और रीति-काल का प्रधान नायक किसी एकाध अपवाद को छोड़कर क्षत्रिय के अतिरिक्त और कोई नहीं है| आधुनिक काल में भी कई महाकाव्यों और खण्डकाव्यों के नायक क्षत्रिय ही है| पाश्चात्य शैली औरविचारधारा के आगमन के फलस्वरूप अब जाकर कहीं साहित्य में काल्पनिक और सामान्य नायकों का आयोजन होने लगा है| इस प्रकार क्षत्रिय-चरित्र से साहित्य, जीवन ग्रहण करते आया है; क्षत्रिय जीवन से वह प्रेरणा लेता आया है और क्षत्रिय-परम्परा की वह मुक्तकंठ से प्रशंसा करते और महिमा गाते हुए आया है| मेरे पूर्वजों के निर्मल और अलौकिक चरित्र का गान करके कितने ही काव्य-प्रेमी महाकवि बन गए है| राष्ट्रकवि मैथिलिशरण गुप्त के शब्दों में-

राम, तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है,
कोई कवि बन जाय, सहज सम्भाव्य है|


भगवान् राम के आदर्श चरित्र का जिन्होंने जिस भाषा में, वर्णन कर दिया वे सभी संसार-साहित्य के उच्च कोटि के महाकवियों की श्रेणी में आ गए|

और यदि हम आदि-काल के पिंगल और तत्पश्चात पिंगल-मिश्रित काव्य का रसास्वादन करें तो उसमें जिस रोज और चमत्कारपूर्ण ढंग से क्षत्रिय-महिमा का वर्णन किया है,- वह किसी भी मरणासन्न, मृत-प्राय जाति को जीवनदान देने में पूर्ण समर्थ है| डिंगल काव्य और राजस्थानी साहित्य का एक एक अक्षर राजपूत शौर्य, तेज, वीरत्त्व, उदारता और बड़प्पन की महिमा गा-गा कर स्वयं-सार्थक और चमत्कृत हो उठा है| यदि डिंगल काव्य और राजस्थानी साहित्य को हम अपनी जातिगत निधि मानकर श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करें तो भी उसके महत्त्व की स्वीकृति पूर्ण रूप से नहीं हो सकती|

इस वसुंधरा के वक्षस्थल पर क्षत्रिय जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति विद्यमान न होगी, जिसके पीछे इतना साहित्य-बल हो; इतनी साहित्यिक प्रेरणा हो और जिसकी गौरव-गरिमा का वर्णन इतने व्यापक विशुद्ध, अटूट और प्रभावपूर्ण ढंग से हुआ हो| साहित्य का एक वाक्य, काव्य का एक शब्द राष्ट्रों का भाग्य-निर्माण और उनकी कायापलट करने में समर्थ हो सकता है| डिंगल काव्य के एक एक छोटे से दोहे ने अनेक बार ऐतिहासिक प्रवाह को बलपूर्वक मोड़कर दूसरी दिशा में बहा दिया; डूबती हुई गौरव की नाव को किनारे लगा दिया; सम्मान और कुल-गौरव की रक्षा के लिए वीरांगनाओं को अग्नि-स्नान और वीरों को धारा-तीर्थ में स्नान कर दिया| प्रेरणा, जीवन, आदर्श और पूर्णता का कितना अखंड, अक्षय, निरंतर और मधुर स्रोत हमारे घर में ही प्रवाहित हो रहा है| कितने सुविशाल, सुदीर्घ, सबल, गौरवशाली और व्यापक साहित्य देवता का वरद हस्त हमारी पीठ पर है|

मैं यह स्वीकार करने के लिए कभी तैयार नहीं कि जिस जाति के पास इतनी अमूल्य और अटूट साहित्यिक निधि हो वह स्वयं अपना महत्वांकन नहीं कर सकती| मैं कभी भी विश्वास नहीं कर सकती कि इतनी तीव्र साहित्यिक प्रेरणा होते हुए, किसी भी जाति का पतन भी हो सकता है और यदि क्षणिक पतन हो भी जाता है तो वह तत्काल ही उठ नहीं सकती| हमें अंतिम रूप से निश्चित करना होगा कि हम पतन और पराजय की इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकते; अपमानित और दीन बनकर जीवित नहीं रह सकते| इस साहित्य का अनुशीलन कर लेने के उपरांत कोई पतन, पराजय और दासता का अपमान सहते हुए जीवित भी रह सकता है? यह कल्पनातीत है और इसीलिये मेरा दृढ़ विश्वास है कि या तो राजपूत जाति को गौरवपूर्ण ढंग से जुंझते हुए सदैव के लिए समाप्त होना होगा या उसे पुन: उठ कर एक बार और विजय-श्री का मंगलमय उदघोष करना पड़ेगा; तीसरा विकल्प हमारे सामने है ही नहीं| क्या अब किसी राजपूत ने इस साहित्य को पढ़ा ही नहीं ? इस साहित्य ने मेरे मानस-प्रदेश पर एक विचित्र प्रकार की हलचल मचादी है| मैं चाहता हूँ कि प्रत्येक क्षत्रिय का मानस-प्रदेश इसी प्रकार की हलचल का केंद्र बन जाय|

क्रमश:.....

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