Monday, October 21, 2013

समस्या के रचनात्मक पहलू - अंतिम. (राजपूत और भविष्य)

भाग - २ से आगे.....

वर्तमान समय में शिक्षितों और अन्य युवकों में शस्त्र रखने के प्रति जो आलस्य और घृणा की भावना उत्पन्न होने लग गई है वह निस्सन्देह घातक है| शस्त्र रखने में शर्म करना अपने अपने अस्तित्व की सार्थकता के प्रति उपेक्षा करना है| अतएव प्रत्येक राजपूत को हर समय अपने साथ कोई न कोई शस्त्र अवश्य रखना चाहिये और विशेष अवसरों पर विशेष प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर जाना चाहिये| हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिये कि राजपूत और तलवार का साथ अटूट और पवित्र है| यही नहीं, तलवार स्वयं भगवती का रूप है और यदि हम उसकी रक्षा और उसका सम्मान अवश्य करेगी| जिन व्यक्तियों के पास लाइसेंस के शस्त्रास्त्र है उनको उन्हें सदैव अपने पास रखना चाहिये और जिनके पास इस प्रकार के शस्त्रास्त्र नहीं है उनको तलवार अथवा लाठी तो सदैव अपने पास रखनी ही चाहिये| दफ्तरों में काम करने वाले बाबुओं से लगाकर व्यस्क विद्यार्थियों तक को अपने पास छोटा-मोटा शस्त्र अवश्य रखना चाहिये| माता-पिताओं को अपने बालकों में शस्त्र बाँध कर चलने व शस्त्र रखने के संस्कारों का निर्माण करना चाहिये| बालिकाओं और स्त्रियों को भी अपने पास कोई न कोई छोटा शस्त्र रखने की आदत डालनी चाहिये|

जिस प्रकार सदैव शस्त्र रखना आवश्यक है, उसी प्रकार शस्त्रों का प्रयोग जानना भी उतना ही आवश्यक है| शस्त्रास्त्र केवल श्रृंगार और सजावट की वस्तुएं न होकर प्रयोग और व्यवहार की वस्तुएं होनी चाहिये| जिस शस्त्र को हम अपने पास रखें उसको दक्षतापूर्ण ढंग से प्रयोग में लाना भी हमें आना चाहिये| बिना प्रयोग जाने किसी शस्त्र को अपने पास रखना हास्यास्पद ही नहीं वरन प्राणों को संकट में डालना भी है| अभिभावकों को बचपन में ही बच्चों को यथासंभव शस्त्रों का प्रयोग सिखा देना चाहिये|

किसी भी समाजिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए आवश्यक है कि उस समाज का प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी और सबल हो| आर्थिक-स्वावलंबन आगे चलकर राजनैतिक स्वतंत्रता और स्वावलंबन को जन्म देता है- राज्य सरकार के कानूनों द्वारा इन वर्षों में राजपूतों की आर्थिक स्थिति पर भीषण प्रहार हुए है| अब तक राजपूतों के पास आर्थिक जीवन को सुरक्षित रखने वाले दो बड़े साधन थे- भूमि और नौकरी| इन दोनों साधनों को प्रभावित करने वाले वातावरण पर चौथे अध्याय में प्रकाश में डाला जा चुका है| इतना सब होते हुए भी राजपूतों के पास आज भी जीवन-निर्वाह का मुख्य साधन भूमि ही है| राजपूतों को भूमि के अतिरिक्त किसी अन्य साधन को स्थायी रूप से अपनाना ही नहीं चाहिये, क्योंकि भूमि से राजपूतों का पवित्र रागात्मक सम्बन्ध रहा है| आज की इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी राजपूतों को सदैव भूपति अथवा भूस्वामी बन कर रहने का ही प्रयास करना चाहिये| जिनके अधिकार में कृषि योग्य पर्याप्त भूमि न हो, उन्हें भूमि प्राप्त करने का अपना प्रयत्न जारी रखना चाहिए|

पर इस कृषि-कर्म में एक सबसे बड़ा खतरा है जिससे हमें सदैव सावधान रहना चाहिये| कृषि कार्य को पूर्णत: अपना लेने से स्वाभाविक क्षात्र-वृति का नाश होता है| तलवार पकड़ने वाले हाथों में हल पकड़ लेने पर तलवार और उसकी शक्ति के प्रति श्रद्धा घट जाती है और हल और उसकी शक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ जाती है| तलवार के जीवट-पूर्ण, स्वाभिमानी और खौफनाक जीवन के स्थान पर भाग्यवादी, शांतिमय और हीन हल के जीवन का आरम्भ होता है| इससे क्षात्र-वृति शनै: शनै: वैश्य और शुद्र-वृति में बदल जाती है, रजोगुणी महत्वाकांक्षा और कीर्ति-उपार्जन की इच्छा का स्थान तमोगुणी लोभवृति और अधिक अन्न उपजाने की इच्छा ले लेती है| यही कारण है कि विजयी जाति सदैव से ही विजित जाति के क्षात्र-संस्कारों और वृति को समाप्त करने के लिए उसके हाथों में हल पकड़वाती है| राजपूतों को आज नहरी इलाकों में कृषि के लिए बसाने वाली योजना इसी प्रकार उनकी क्षात्र-वृति को नष्ट करने वाली योजना है| पर जीवनयापन का कोई अन्य उपाय उपलब्ध न होने के कारण हमारे सामने केवल खेती का ही धन्धा रह जाता है| अतएव इस खेती के धंधे को हमें साधनरूप में ही अपनाना है, साध्य रूप में नहीं| हल के साथ तलवार का संयोग कराना है और बलजीवी और श्रमजीवी शक्तियों का एकीकरण करके बलजीवी शक्तियों की ही प्रधानता स्थापित करनी है|

अतएव प्रत्येक राजपूत परिवार को अपने जीवनयापन के लिए मुख्य धंधे के रूप में कृषि को ही स्वीकार करना चाहिये| वस्तुस्थिति भी यही है कि राजपूतों के पास कृषि के अतिरिक्त और कोई धंधा है भी नहीं| पर इस कार्य को करते समय महाजनों के शोषण और रूढिगत कार्यों से सदैव सावधान रहना चाहिये|

आर्थिक दृष्टि से संपन्न राजपूत परिवारों को कृषि की उन्नति और आर्थिक उत्पादन के लिए वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करना चाहिए तथा अपनी संतानों को इस विषय की सर्वोच्च शिक्षा दिलाने की व्यवस्था करनी चाहिये| इस दशा में सरकारी सहायता का स्वागत कर उसे अधिकाधिक रूप में प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये| सामूहिक और सहयोगी कृषि-पद्धति को अब आर्थिक महत्त्व देने की आवश्यकता है| इस प्रणाली द्वारा श्रम और पूंजी की बचत होती है और उत्पादन भी अपेक्षाकृत अधिक होता है| साधारण फसलों की अपेक्षा व्यापारिक फसलों के उत्पादन की और अधिक ध्यान देना होगा| जहाँ सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है वहां सावन फसल बहुत अधिक मात्रा में बोनी चाहिये| वर्ष के अवकाश के दिनों में धनोपार्जन अथवा पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ करते रहना आवश्यक है| स्त्री समाज की श्रमशक्ति को भी इसी प्रकार उत्पादन के कार्यों में लगाना अब आवश्यक हो गया है, अतएव इस प्रकार की योजनाओं को कार्यान्वित करना आवश्यक है जिससे राजपूत स्त्रियाँ अपनी मर्यादा को सुरक्षित रखती हुई उत्पादन कार्यों में योग दे सके|

कृषि का सहयोगी दूसरा प्रभावशाली और उपादेय धन्धा पशु-पालन है| पशु-पालन की और हमारी रूचि होना आवश्यक है| कारण कि उसने कृषिकार्य में तो महत्त्वपूर्ण योग मिलता ही है पर साथ के साथ वे जीवन-निर्वाह के भी अनन्य साधन है| गाय और भैंस रखना प्रत्येक राजपूत की पारिवारिक आवश्यकता है| गायों और भैंसादि की उचित देख-रेख करना तथा पालन-पोषण और विकास के वैज्ञानिक और सही उपायों से हमारी जानकारी होना आवश्यक है| बैलों के लालन-पालन और उनकी उचित देख-रेख से बहुत अधिक आर्थिक लाभ होने की संभावना रहती है| भेड़-बकरी पालना भी बहुत अधिक लाभदायी है| इनकी नस्लों में सुधार करना तथा नये वैज्ञानिक तरीकों से उनका विकास करना हमें आना चाहिये| पशु-पालन से असंख्य लाभ है और कृषि-कार्य तो उनके बिना सुचारू रूप से चल ही नहीं सकता| यह बड़ा ही खेद का विषय है कि आर्थिक दृष्टि से भार स्वरूप होने के कारण राजपूतों ने घोड़े पालना और रखना छोड़ दिया है| घोड़ों और राजपूतों का सम्बन्ध हजारों वर्ष प्राचीन का है, अतएव थोड़ी सी कठिनाई के आते ही इस सम्बन्ध को भूल कर घोड़ों को घर से बाहर निकाल देना किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता| घोड़ा जाति का जो राजपूतों पर महान उपकार है, उसे भूलकर एकदम कृतध्न हो जाना हमारी परम्परा के विरुद्ध एवं हमारे अस्तित्व के लिए भी महान घातक है| इस प्रश्न को लाभ और हानि की तराजू में न तोलकर विशुद्ध भावनात्मक और दूरदर्शी दृष्टिकोण से देखना चाहिये| जिस प्रकार शस्त्र और राजपूत का अटूट सम्बन्ध है, उसी प्रकार घोड़ों और राजपूतों का भी अभिन्न सम्बन्ध है| क्या कोई आर्थिक विवशता के वशीभूत होकर अपनी संतानों को त्याग देता है ? घोड़ों और राजपूतों का सम्बन्ध भी कुछ इसी प्रकार का है, अतएव जो राजपूत घोड़े रखने में समर्थ है उन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुसार अधिक से अधिक घोड़े रखना चाहिये फिर घोड़ा इतना निरुपयोगी पशु भी नहीं है| यदि ठीक ढंग से उनका लालन-पालन किया जाये तो हजारों रूपये प्रति वर्ष उनसे आमदनी भी हो सकती है तथा और भी कई प्रकार से उनको उपयोग में लिया जा सकता है|

दूसरा महत्त्वशाली पशु ऊंट है| यह बैलों से बढ़कर मरुप्रदेश में जीवन-निर्वाह का साधन है| अच्छी नस्ल के ऊंट पालना और रखना बहुत ही उपयोगी व्यवसाय है| ऊंट की उपयोगिता और उस पर मितव्ययिता सर्वविदित है, अतएव ऊँटों के टोले (समूह) रखना और पालना लाभदायक है| जो राजपूत घोड़ा नहीं रख सकता उसे कम से कम एक ऊंट तो अपने घर में अवश्य रखना चाहिये| जो राजपूत इन दोनों पशुओं को एक साथ रख सकते है, वे बड़े भाग्यशाली है|

खेती और पशु-पालन के अतिरिक्त जीवन-निर्वाह का राजपूतों के लिए अन्य प्रभावशाली साधन नौकरी है| गत वर्षों में भारतीय सेना से निष्कासित होने के कारण आज हजारों राजपूत नवयुवक नौकरी की खोज में घूम रहे है| कांग्रेस सरकार का राजपूतों के साथ सौतेली माँ का सा व्यवहार होने के कारण आज के शिक्षित और नौजवान राजपूतों को नौकरी मिलना बहुत कठिन है| फिर भी अपनी योग्यता, रूचि और अवसर के अनुसार राजपूतों को प्रत्येक विभाग में नौकरी प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये| अपने परम्परागत संस्कारों के कारण सेना और पुलिस विभागों में वे अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते है| अतएव राजपूतों को सेना में अधिकाधिक संख्या में भर्ती होने का प्रयास करना चाहिये| जिस किसी विभाग में वे जाये- अनुशासन, ईमानदारी, कार्यदक्षता और सच्चरित्रता में उन्हें उच्चाधिकारियों और सहयोगियों के सामने आदर्श रखना चाहिये| उन्हें सदैव ध्यान रखना चाहिये कि वे सब स्थानों पर महान राजपूत-चरित्र का प्रतिनिधित्त्व करते है| अतएव कोई ऐसा कार्य न कर बैठे जिससे उनकी महान परम्परा व जाति पर कलंक लग जाय| उच्च कोटि की कर्तव्यशीलता उनके नौकरी के जीवन का लक्ष्य होना चाहिये| नौकरी के अतिरिक्त भी कई स्वतंत्र और अर्द्ध-स्वतंत्र धंधे ऐसे है जिनसे आज हजारों राजपूत जीवनयापन कर रहे है| व्यापार, वकालत, डाक्टरी आदि इसी प्रकार के धंधे है| इन सब धंधों को करते हुए भी सामाजिक ध्येय की पूर्ति में योग देना प्रत्येक राजपूत का कर्तव्य है| मशीनरी और हुनर-प्रधान धंधों में अब राजपूतों को विशेष रूचि लेनी चाहिये|

नौकरी आदि से जीवनयापन की समस्या हो हल हो जाती है पर यह धंधा स्वेच्छा से अपने कन्धों पर विवशता और दासता की गठरी लादने के समान है| अतएव जो व्यक्ति समाज को अपना जीवन देने का व्रत लेते है उन्हें इन व्यक्तिवादी और उदारवादी धंधों में पड़ कर जीवन-निर्वाह के लिए अन्य धंधों को अपनाना चाहिये|

इस प्रकार हमें पहले अपने जातीय-जीवन को सुरक्षित रखते हुए और उसके माध्यम से सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में कार्य करते हुए सामाजिक जीवन को सबल बनाने की चेष्टा करनी चाहिये| ध्यान रहे, हम पहले अपने घर को व्यवस्थित करके ही आगे बढ़ सकते है|

-: समाप्त :-

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