Monday, October 14, 2013

अतीत से वर्तमान तक - भाग १ (राजपूत और भविष्य)

आदि सभ्यता के उस स्वर्णिम प्रभात में जब मनुष्य ने लौकिक और पारलौकिक, सर्वाभ्युदय और विकास की विभिन्न पगडंडियों पर पैर रखा, ठीक उसी समय उसमें प्रगतिशील मनुष्यता का प्रादुर्भाव हुआ| इसी मनुष्यत्व को सार्थक, विस्तृत, विकसित और सुरक्षित करने के लिए ही उसे एक नियमतंत्र अथवा व्यवस्था को उत्पन्न और स्वीकार करना पड़ा| तदुपरांत विकास की विभिन्न धाराओं में प्रवाहित होने वाले मानव जीवन की सम्पूर्ण रुपरेखा शनै: शनै: रूपातंरित और परिवर्तित होकर मानव द्वारा उत्पन्न और स्वीकृत उस व्यवस्था से एकीभूत हो गई| मानव द्वारा उत्पन्न और स्वीकृत इसी व्यवस्था का विकास, रक्षण, पोषण,परिवर्तन और परिवर्धन समझा जाने लगा| वर्गीकरण की दृष्टि से यही स्वोत्पादित और स्व-स्वीकृत व्यवस्था, धर्म व्यवस्था, समाज व्यवस्था, शासन व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था आदि रूपों में विभाजित होकर सम्पूर्ण मानव-समाज के सह अस्तित्व और प्रगति की महत्त्वपूर्ण आधार-शीला बन गई|

त्रिगुणात्मक प्रकृति के आधार पर भारत में इसी व्यवस्था को अधिक स्वाभाविक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक बनाकर चिर-स्थायित्व प्रदान करने के लिए चातुर्वणर्य-धर्म की सृष्टि की गई| सम्यक चिंतन, मनन और परिक्षण के उपरांत भारत ने यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि मानवता की पूर्णता के लिये; उसके पूर्ण कल्याण और विकास के लिये केवल भौतिक उत्कर्ष ही आवश्यक नहीं है, अपितु आध्यात्मिक उत्कर्ष भी उतना ही आवश्यक है| चातुर्वणर्य व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्य की लौकिक और परलौकिक अथवा भौतिक और आध्यात्मिक आदि सब प्रकार की उन्नति संभव बना दी गई| मनुष्य की चतुर्मुखी प्रगति का आधार बनकर वर्ण-व्यवस्था ने जिस समाज व्यवस्था को जन्म दिया वह अत्यंत ही दीर्घजीवी और सफल सिद्ध हुई| पुरुषार्थ- चतुष्ट्य के रूप में मानव के सम्पूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति इसी व्यवस्था द्वारा होने लगी|

निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता कि कितने लाख वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने इस वर्ण-व्यवस्था को अपनाकर सामाजिक जीवन में महत्त्वशाली अनुशासन को स्वीकार किया था और यह भी निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता कि एक व्यवस्था को आधार मानकर चलने पर सर्वप्रथम प्रगति और विकास की क्या रूप रेखा रही होगी| पर यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस व्यवस्था के प्रभातकाल से ही इसके रक्षण, पोषण, संवर्धन आदि का दायित्त्व इस व्यवस्था के मुख्य अंग शासन-तंत्र पर पड़ा था| और यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस शासन-तंत्र को सुव्यवस्थिति रूप से संचालित करने का मुख्य उत्तरदायित्त्व था क्षत्रियों पर| अतएव अतीत के उस सुदूर प्रभात में भी मानवता के रक्षण, पोषण और उसके लौकिक और पारलौकिक उत्कर्ष के लिये यदि कोई एक वर्ण उत्तरदायी था तो वह वर्ण मुख्य रूप से क्षत्रिय वर्ण; यदि कोई एक जाति उत्तरदायी थी तो वह जाति क्षत्रिय जाति थी मुख्य रूप से क्षत्रिय जाति और यदि कोई एक व्यक्ति उत्तरदायी था तो वह व्यक्ति भी मुख्य रूप से था क्षत्रिय|

गंगा यमुना की पवित्र भूमि, ब्रह्पुत्र की बीहड़ घाटियाँ, पंचनद द्वारा सिंचित पंजाब और सिन्धुप्रदेश, कृष्णा, कावेरी और नर्मदा के उर्वर प्रांगण, गिरिराज हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण और प्रशान्त महासागर से लगाकर ईरान के अति पश्चिमी भाग के भूमि खंड के अतिरिक्त भी जहाँ जहाँ आदि सभ्यता ने चेतन रूप से प्रवेश किया उन सभी स्थानों पर क्षत्रियों का ही शासन था| आज विश्व अथवा संसार के नाम के पुकारे जाने वाले पौराणिक जम्बूद्वीप पर एकछत्र सार्वभौम राज्य की यदि किसी एक जाति ने कभी स्थापना की तो वह एकमात्र क्षत्रिय जाति ही थी| हमें भूलना जाना नहीं चाहिये कि इस पृथ्वी को वर्तमान आकर और स्वरूप देने वाले और उसका दोहन कर समस्त जीवनोपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति भी क्षत्रिय राजा पृथु ही थे| सम्पूर्ण मानवता की क्षय से अर्थात दुष्टों, भूख, अज्ञान, उत्पीड़न और अन्याय से, आधिदैविक, दैहिक और भौतिक व्याधियों से रक्षा करने का उत्तरदायित्व यदि किसी मनुष्य का था तो वह मनुष्य क्षत्रिय ही था| क्षत्रिय इस धरा पर पृथ्वी-पालक, साक्षात् भगवान् नारायण का प्रतीक और प्रतिरूप था|

देवासुर संग्राम हुए;- क्षत्रियों से सहायता ली गई| स्वयं देवता क्षात्र-तेज, क्षात्र-शक्ति, और क्षात्र-अन्तर्दृष्टि के बिना अपूर्ण और असमर्थ थे| एक और क्षत्रियों द्वारा रक्षित-शांति के समय वेदों की रचना हुई, दूसरी और सार्वभौमिक सिद्धांतों के प्रणेता उपनिषदों के अधिकांश आचार्य क्षत्रिय ही थे| ज्ञान काण्ड में हमारे देश का आदर्श आध्यात्मिक संस्कृति-संपन्न वैराग्यमान ब्राह्मणत्व रहा तो ज्ञानोंमुख कर्मकांड के देश का आदर्श निस्प्रह, निर्लिप्त, प्रबल शक्ति-संपन्न क्रियाशील क्षत्रियत्व ही था| आज कोई बता सकता है, संसार में वह कौनसी जाति है जिसमें अवतरित मर्यादापुरुषोतम भगवान् राम की तीस कोटि नरनारी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में उपासना करते हों ? कोई बता सकता है, वह कौनसी जाति है, जिसमें लीलापुरुषोतम योगिराज भगवान् कृष्ण उत्पन्न हुए है, और कोई यह भी बतावे, संसार की वह कौनसी महान जाति है जिसमें ढाई सहस्त्र वर्ष पूर्व उत्पन्न महापुरुष की पियूष वाणी ने आज भी संसार की लगभग आधी जनसँख्या को मंत्रमुग्ध कर सम्यक ज्ञान और कर्म-पथ पर अग्रसर कर रखा है| और मैं आगे पूछता हूँ, संसार में सर्वप्रथम शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले स्वामी महावीर कौन थे? अपरिमित शक्ति, अलौकिक शील, अनुपम सौन्दर्य, क्षमा, तेज, वैभव, माधुर्य आदि गुणों के समंज्यस्यात्मक रूप के मूर्तिमान अधिष्ठता किस देश में और किस जाति में कौन हुए है? इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है – क्षत्रिय |

जिस समय संसार की अन्य जातियां बच्चों की भांति लड़खड़ाती हुई उठने का प्रयास कर रही थी उस समय भारतवर्ष में क्षत्रिय महान साम्राज्यों के अधिष्ठाता थे; साहित्य, कला, कौशल के परम उन्नायक थे| वैभव, ऐश्वर्य, सुख, शांति के जन्मदाता थे| स्वर्णयुगीन भारत, ज्ञानगुरु भारत और विश्व-विजयी भारत के शासक क्षत्रिय ही थे| विदेशियों के आक्रमण प्रारंभ हुए| यवन, शक, हुण, कुषाण आदि प्रचंड जातियां क्षत्रिय बाहुबल के आगे नतमस्तक हुई| वे क्षत्रिय ही तो थे जिन्होंने इन आक्रांता जातियों का अस्तित्व तक को भारत में आज ऐतिहासिक खोज की वस्तु बना रखा है| वे क्षत्रिय ही तो थे जिन्होंने हजारों वर्षों तक इस कर्म-भूमि पवित्र भारतवर्ष की ढाल बनकर शत्रुओं से रक्षा की| और वे भी तो क्षत्रिय ही थे जो अन्याय और अत्याचार के दमन के लिए भाइयों से भी लड़ते रहे| हम हमारे उन पूर्वजों को कैसे भूल सकते है, जिन्होंने देश-भर में शौर्य और तेज के बल से प्रबल राज्यों का निर्माण कर इतिहास के राजपूत-काल को जन्म दिया|

फिर विदेशियों के आक्रमण हुए| इस्लाम का प्रचंड तूफ़ान उठा, जिसने देखते ही देखते संसार रंगमंच से अतीव प्राचीन संस्कृतियों, सुव्यवस्थिति साम्राज्यों, दीर्घकालीन व्यवस्थाओं को एक के बाद एक करके धराशायी कर दिया| यह आक्रमण केवल शारीरिक ही नहीं था अपितु दार्शनिक और सैद्धांतिक पृष्ठ-भूमि को भी साथ लिए हुए था| भारत में इस सुव्यवस्थित आक्रमण का सामना मुख्य रूप से क्षत्रियों को ही करना पड़ा| लोमहर्षक युद्ध हुए| सिर कटने पर भी तलवार चलाते रहने का अनुपम वीरत्त्व प्रदर्शित हुआ|

एक वर्ष तक नहीं, पांच सात वर्षों तक भी नहीं, एक शताब्दी दो शताब्दी तक भी नहीं वरन निरंतर पौने पांच सौ वर्षों तक बाहुबल के प्रचंड पराक्रम द्वारा विदेशियों को मातृभूमि से दूर रखा गया| ईसा की बारहवीं शताब्दी के संध्याकाल में फिर इस्लामी आक्रमणों ने प्रचण्ड रूप धारण किया| साम्राज्य नष्ट हुए, जातियां समाप्त हुई; स्वतंत्रता विलुप्त हुई पर संघर्ष बंद नहीं हुआ| कोई इतिहासज्ञ है जिसे मैं पूछूं कि राजपूतों के अतिरिक्त संसार में कोई और भी अन्य जाति हुई है जिसने धर्म और सम्मान की रक्षा के लिए सैकड़ों शाके किये हों? कोई अतीत की घटनाओं की साक्षी देने वाला है जो यह प्रमाणित कर सके कि मर्यादा और सतीत्व की रक्षा के लिये राजपूत नारियों के अतिरिक्त और भी ऐसी नारियां संसार में हुई है जिन्होंने हँसते हँसते जौहर द्वारा प्राणों का इतने सुन्दर रूप से विसर्जन किया हो ? एक दो जौहर नहीं, बीसों जौहर हुए| अग्नि स्नान की इतनी व्यापक, विस्तृत और अदभुत झांकी संसार के इतिहास में अन्यत्र कहाँ मिलेगी|

स्वतंत्रता विलुप्त हुई पर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रयत्न कभी विलुप्त नहीं हुआ| पतन हुआ अवश्य पर उसे स्वीकार नहीं किया गया| साम, दाम, दण्ड, भेद आदि सभी उपायों से धर्म, स्वतंत्रता, मर्यादा और स्वाभिमान की रक्षा का प्रयास होता रहा| इस्लाम का प्रबल प्रवाह भारतवर्ष में सैकड़ों वर्षों तक क्षत्रियरूपी दृढ़ चट्टान से टकराकर अति क्षीण और निस्तेज होकर स्वत: शांत हो गया|

क्रमश:...

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