Saturday, July 21, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में - १

सन् 1957में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उसी पुस्तक के अंश यहाँ प्रस्तुत है --
देश के विभाजन पर कांग्रेसी चालों का विश्लेषण करते हुए स्व.आयुवानसिंह जी ने उन तथ्यों व कारणों पर प्रकाश डाला है जिनके चलते देश के विभाजन की नींव रखी गयी -

स्वतंत्रता प्राप्त होने के पश्चात भारत में अपने प्रभुत्व को चिरस्थाई और सुरक्षित बनाये रखने की रुपरेखा बुद्धि-जीवी कांग्रेसियों ने ईस्वी १९२० के लगभग ही बना ली थी| प्रथम महायुद्ध के पश्चात भारत की स्वतंत्रता निश्चित-प्राय: सी दिखने लग गयी थी, अतएव स्वतंत्र भारत में में जो शक्तियाँ कांग्रेस के एकाधिपत्य और प्रभुत्व-प्रसारण में बाधक बं सकती थी, उनका सफाया करने की योजना भी कांग्रेस की बहुमुखी योजना का एक मुख्य अंग था| स्वतंत्रता से पहले दो मोर्चों पर एक साथ लड़ना अबुद्धिमतापूर्ण था, अतएव कांग्रेस ने प्रकटत: अंग्रेजों से तो विरोध बनाये रखा पर देश की अन्य विरोधी शक्तियों की समाप्ति के लिए समय और परिस्थिति के अनुसार विभिन्न गुप्त और प्रकट तरीके अपनाती रही| ये तरीके इतने वैज्ञानिक, बुद्धिमतापूर्ण एवं सुव्यस्थित थे कि विरोधी शक्तियों को स्वप्न में भी यह विचार नहीं आया कि उनके सर्वनाश के उपकरण बहुत बड़ी मात्रा में जुटाए जा रहे है|

स्वतंत्र भारत में सबसे बड़ी संभावित विरोधी शक्ति मुसलमानों की हो सकती थी| मुसलमानों को अपना साम्राज्य खोये हुए अभी तक पुरे सौ वर्ष भी नहीं हुए थे| अंग्रेजों की अजेय सैनिक शक्ति के सामने वे असमर्थ थे पर स्वतंत्र भारत में उनके विगत साम्राज्य की पुन:स्थापना की महत्वाकांक्षा को कोई रोक नहीं सकता था| देश के एक कोने से दुसरे कोने तक किलों,राजकीय मकबरों, शाही मस्जिदों और इसी प्रकार की अन्य सामग्री के रूप में बिखरे हुए साम्राज्य के भग्नावशेष सहज में ही प्रत्येक स्वाभिमानी और महत्वाकांक्षी मुसलमान बच्चे के मस्तिष्क में विगत साम्राज्य की याद और उसकी पुन:स्थापना की प्रेरणा उत्पन्न कर सकने में आज भी पूर्ण समर्थ है| इसके अतिरिक्त भारत की मुस्लिम जन-संख्या में कुछ ऐसी मौलिक विशेषताएँ भी थी जो उनकी किसी भी राजनैतिक  महत्वाकांक्षा की पूर्ति में प्रबल रूप से सहायक हो सकती थी|उनकी मुख्य विशेषता संख्या बल थी| धर्म अथवा मजहब के एक दृढ बंधन के बंधे हुए देश के कोने कोने में बिखरे हुए आठ-नौ करोड़ मुसलमान एक ऐसी प्रबल शक्ति थी जो किसी भी महती योजना को कार्यान्वित करने में सफल हो सकती थी|
बुद्धिजीवी कांग्रेसियों की अपेक्षा मुसलमान कुशल शासक, व्यावहारिक, राजनीतिज्ञ एवं योद्धा भी थे| अतएव भारत में निष्कंटक प्रभुत्व स्थापना के लिए सर्वप्रथम इसी मुस्लिम शक्ति से भारत को मुक्त करना आवश्यक था| भारत के नौ करोड़ मुसलमान कांग्रेस के सामने एक जटिल समस्या के रूप में थे| वे एक पृथक परम्परा,संस्कृति,भाषा, मान्यताएं और आदर्श वाली स्वतंत्र और सबल जाति के रूप में थे| उनका विरोध करके उन्हें समाप्त करना असंभव था, अतएव इस प्रबल मुस्लिम शक्ति से छुटकारा पाने के लिए कूटनीति और मनोवैज्ञानिक उपायों से काम लिया गया|

भारत को मुस्लिम शक्ति से मुक्त करने के लिए हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य  आवश्यक था| इस वैमनस्य के कीटाणु हिन्दू-मुस्लिम धर्मों की पृथकता के रूप में पहले से ही विद्यमान थे. अतएव कांग्रेस ने इस वैमनस्य को राजनैतिक और कुटनीतिक उपायों द्वारा और भी अधिक बढ़ाना आरम्भ किया| गाँधी जी के सर्वेसर्वा होते ही मुस्लिम तुष्टिकरण की निति को बड़े प्रबल वेग से अपनाया गया| भारत की मुक्ति के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता का नारा लगाया जाने लगा| यही नहीं, देश की स्वतंत्रता के लिए केवल हिन्दू मुस्लिम एकता को ही एकमात्र रामबाण उपाय बताया गया|

इस एकता के लिए अल्पसंख्यक मुसलमानों को बहुसंख्यक हिंदुओं के धार्मिक,राजनैतिक,आर्थिक आदि हितों की हत्या करके सुविधाएँ सुविधाएँ देने का कार्यक्रम लाया जाने लगा| कांग्रेस की इस नीति की स्वाभाविक प्रतिक्रिया वही हुई जो कांग्रेस का बुद्धिजीवी वर्ग चाहता था| इस नीति के कारण मुसलमान यह समझने लग गए कि भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए, जिसके अंतर्गत तीस करोड़ हिंदुओं की स्वतंत्रता और कल्याण भी निहित है, मुसलमान एक ऐसा अनिवार्य घटक है, जिसकी अवहेलना भारत के हिंदू किसी भी दिशा में नहीं कर सकते| मुसलमानों की इस मनोवृति ने उनमें कई महत्वाकांक्षाओं को जन्म दिया जिनमें से एक महत्वाकांक्षा आगे चलकर पाकिस्तान के रूप में साकार बन गयी| दूसरी ओर कांग्रेस की मुस्लिम परस्त नीति और मुसलमानों द्वारा अपनाई गयी अराष्ट्रीय और विध्वंसक नीति के कारण हिंदुओं में जिस स्वाभाविक प्रतिक्रिया का उदय हुआ, वह मुख्य रूप से मुस्लिम-विरोधी थी| हिंदू स्थान स्थान पर कांग्रेस द्वारा मुसलमानों को दी गई सुविधाओं और मुसलमानों की राष्ट्र-विरोधी नीति का विरोध करने लग गए| इसका परिणाम यह हुआ कि मुसलमान भी हिंदुओं के विरोधी बन गए| हिंदू-मुसलमानों का एक साथ रहना असंभव सा बन गया और इसके प्रतिक्रियास्वरूप पृथक राष्ट्र की मांग को मूर्त किया गया|
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि पाकिस्तान की स्थापना के मूल कारण कांग्रेस की सोद्देश्य अपनाई गई मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति है| साथ के साथ चतुर अंग्रेजों ने भी अनायास ही प्राप्त इस परिस्थिति का लाभ उठाया और उन्होंने भी फूट डालकर शासन करने की नीति को क्रियान्वित करने के लिए कांग्रेस की नीति का ही समर्थन किया|

कांग्रेस मुसलमानों द्वारा प्रस्तुत पाकिस्तान की मांग का दिखावटी विरोध करती रही| कांग्रेस के इस विरोध की सच्चाई और वास्तविकता में विश्वास कर देश के हिंदू जो संभवत: किन्हीं उपायों द्वारा पृथक राष्ट्र की स्थापना को रोक सकते थे, निश्चिन्त होकर बैठे रहे| कांग्रेस का यह दिखावटी और भुलावे में डालने वाला विरोध समय और परिस्थिति के अनुसार विभिन्न रूपों में चलता रहा| पर जब वास्तविक विरोध को क्रियान्वित करने के लिए निर्णायक कदम उठाने का समय आया तब हमारे इन राष्ट्र-पिताओं और पतियों ने राष्ट्र-पुरुषों और निर्माताओं ने, निर्लज्जता और कायरतापूर्ण ढंग से आत्म समर्पण कर राष्ट्र के टुकड़े करा दिए और पाकिस्तान की स्थापना की सारी जिम्मेदारी अंग्रेजों के सिर मंढ दी|
पाकिस्तान की स्थापना मुस्लिम राष्ट्र के रूप में हो गयी और देश के बहु-संख्यक हिंदुओं के साथ जबर्दस्त विश्वासघात हुआ| कांग्रेस ने दो राष्ट्रों के रूप में, देश के विभाजन के सिद्धांत को स्वीकार करके, देश के और अधिक बंटवारे के लिए मार्ग खोल दिया| आज सिख और नागा लोग सतर्कता और योजनाबद्ध रूप से पृथक राष्ट्र की स्थापना की ओर बढ़ रहे है और कांग्रेस की दब्बू और गलत राजनीति उन्हें ज्ञात अथवा अज्ञात रूप से इस कार्य के लिए प्रोत्साहन दे रही है| जब एक राष्ट्र के दो राष्ट्र बन सकते है तब तीन और चार क्यों नहीं बन सकते ? कोई भी युक्तिसंगत उतर नहीं है हमारे पास इस प्रश्न का |
क्रमश :................