Saturday, November 30, 2013

"महान धर्म : निराली परम्परा" भाग- १ (राजपूत और भविष्य)

भारत में राजपूत जाति के उत्थान की प्रथम और अंतिम शर्त है ध्येय की एकता । भारत के प्रत्येक राजपूत का, चाहे वह किसी भी प्रान्त में, किसी भी स्थान पर क्यों न रह रहा हो, केवल एक ही ध्येय होना चाहिये । चाहे गरीब हो या अमीर, बुद्धिजीवी हो या श्रमिक, प्रत्येक धंधा करने वाले राजपूत का ध्येय केवल मात्र एक ही होना चाहिए । आज राजपूत समाज की सबसे बड़ी आवश्यकता यही होगी कि हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण तक और बंगाल, आसाम से लगा कर पंजाब, सिंध के राजपूतों को ध्येय के प्राकृतिक सम्बन्ध में बाँध दिया जाय। और फिर उन्हें समझा दिया जाय कि तुम्हारा केवल मात्र यही एक सच्चा और वास्तविक ध्येय है; केवल मात्र यही एक उद्देश्य हो सकता है, केवल मात्र इसी ध्येय में, तुम्हारी इहलौकिक उन्नति और पारलौकिक कल्याण निहित है । और आगे यह और अनुभव करा दिया जाय कि इसी ध्येय से च्युत होने के कारण, इसे विस्मृत करने के कारण आज तुम्हारी यह अधोगति हुई है । अपने ध्येय की एकता, श्रेष्टता, व्यावहारिकता, वैज्ञानिकता, शाश्वतता, प्रकृति-अनुकूलता और सर्व गुण-सम्पन्नता का सिक्का प्रत्येक क्षत्रिय के मस्तिष्क में जमा देना समाज-उत्थान की पहली शर्त होगी। अपने ध्येय के इन गुणों को समझने के लिए हमें गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। इस सृष्टि के जड़ और चेतन प्रत्येक पदार्थ के अस्तित्व का कोई न कोई कारण अवश्य होता है । इसी प्रकार सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ की रचना, स्थिति, गति और लय का भी कारण होता है । बिना कारण के कार्य असंभव है । इसी प्रकार प्रत्येक कार्य का परिणाम भी होता है । बिना परिणाम के भी कार्य असंभव है । अस्तित्व कारण और परिणाम के सहित होता है; अस्तित्व है तो उसका कारण भी होगा और परिणाम भी । प्रत्येक पदार्थ का परिणाम उसके कारण का विकसित रूप होता है । अस्तित्व का कारण निश्चित होता है, अतएव उसका परिणाम भी निश्चित ही होगा। किसी भी पदार्थ के अस्तित्व का यही निश्चित परिणाम उसकी स्वभावजन्य और प्रकृतिजन्य विशेषतायें होती हैं । ये ही स्वभावजन्य और प्रकृतिजन्य विशेषतायें उस पदार्थ का ध्येय अथवा उद्देश्य होती है । अतः उद्देश्य निश्चित होता है, वह बनाने से नहीं बनता ।

अब हम यदि मनुष्य जीवन के उद्देश्य पर विचार करें तो ज्ञात होगा कि मनुष्य जीवन के अस्तित्व में आने के पूर्व ही उसका कारण बन जाता है । इसीलिए मनुष्य जीवन के अस्तित्व में आने के पूर्व ही उसका परिणाम भी बन जाता है, इसीलिए मनुष्य जीवन के अस्तित्व में आने के पूर्व ही उसका उद्देश्य या ध्येय भी निर्मित हो जाता है। जीवन का ध्येय जीवन के प्रारंभ होने से पूर्व ही बन जाता है और जब मनुष्य जन्म लेता है तो उसकी प्रकृति में ध्येय पहले से ही निर्मित रहता है । जन्म के उपरांत यदि अनुकूल वातावरण मिल जाता है तो मनुष्य अपने स्वभावजन्य विशेषताओं का पूर्ण विकास कर ध्येय की प्राप्ति कर लेता है और प्रतिकूल वातावरण में वह पथ-भ्रष्ट होकर ध्येय-प्राप्ति से बिछुड़ जाता है ।

मनुष्य का किसी भी माता-पिता के घर जन्म लेना आकस्मिक घटना मात्र नहीं है, अपितु यह किसी निश्चित, नियमित प्रणाली का परिणाम होता है। हम चाहें तो इसे पूर्व जन्मों के कार्यों या संस्कारों का फल कह सकते हैं । मनुष्य जब जन्मता है तो उसके साथ उसके पूर्व जन्म के संस्कार भी जन्मते हैं और साथ के साथ उसके रक्त में माता-पिता से प्राप्त परम्परा भी होती है । यह परम्परा माता-पिता को उनके माता-पिता और पूर्वजों से प्राप्त हुई होती है, अतः जब-जब मनुष्य इस संसार में जन्म लेता है तो उसके साथ ही एक अति प्राचीन परंपरा अर्थात उस व्यक्ति की उसकी और पूर्वजों की अनुभूत विशेषतायें भी साथ जन्म लेती हैं । इस परंपरा के पालन करने के स्वरुप और अवस्था का नाम ही हमारी संस्कृति है और इन परंपरागत संस्कारों के मूर्तिमान-स्वरुप संस्कृति की श्रद्धापूर्वक रक्षा व पोषण करने का नाम ही स्वधर्म है।

इस प्रकार मनुष्य के जन्म के साथ उसकी परम्परा से कुछ गुण प्राप्त होते हैं और उन्ही गुणों के वशीभूत होकर मनुष्य जीवन में कर्म करता है । ये ही गुण उसके स्वभाव का स्वरुप बन जाते हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव, गुण और कर्म निश्चित रहते हैं । इस प्रकार अपने गुण, कर्म व स्वभाव के अनुकूल कार्य करना ही प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है और यही स्वधर्म व्यक्ति का साध्य अथवा उद्देश्य होता है।

आर्य सिद्धांतनुसार इस सृष्टि कि रचना त्रिगुणात्मक माया के वशीभूत हो कर हुई |सत्व ,राज और ताम के वशीभूत हो कर हर मनुष्य काम करता है |इन्ही गुणो में से कम या अधिक गुणो को मनुष्य परंपरा और पूर्व संस्कारों से प्राप्त करता है और इन्ही गुणो के अधर पर भारतीय मनीषियों ने वर्ण -व्यवस्था द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के स्वाभाविक कर्म अर्थात स्वधर्म कि विविचाना कि है |गीतकार के अनुसार परपरागत स्वाभाव और र्पाकृति से जो व्यक्ति अंतःकरण का निग्रह ,इंद्रियों का दमन, बहार-भीतरी शुद्धि,धर्म के लिए कष्ट सहन करना .क्षमावान ,मन, इंद्रियों और शरीर कि सरलता ,आस्तिक बूढी ,शास्त्र-विषयक ज्ञान और परमात्मा तत्त्व का अनुभव करने वाला हो वह ब्राह्मण है |जिस व्यक्ति में स्वाभाव से ही शूरवीरता ,तेज़,धैर्य ,चतुरता,युद्ध में न भागने का स्वाभाव ,दानशीलता,ईश्वरभाव आदि गुण हो वो क्षत्रिय है |जिस व्यक्ति में स्वाभाव से ही खेती ,गौपालन ,क्रय-विक्रय आदि करने के गुण हों वह वैश्य है |जिस व्यक्ति में स्वाभाव से ही सेवा करने का गुण हो वह शुद्र है |इस प्रकार ब्राह्मण के लिए ब्राह्मण धर्म, क्षत्रिय के लिए क्षात्र-धर्म ,वैश्य के लिए वैश्य -धर्म और शुद्र के लिए शुद्र-धर्म क्रमशः उनके स्वधर्म अथवा स्वाभाविक कर्तव्य हैं |और यही स्वधर्म प्रत्येक व्यक्ति का ध्येय अथवा उद्देश्य हो सकता है ,अतएव क्षत्रिय के लिए उद्देश्य क्षत्रिय धर्म |क्षात्र धर्म कि विस्तृत व्याख्या करने से पहले उसकी तात्विक प्रकृति को समझ लेना आवश्यक होगा |

सतोगुण मुख्यतः ज्ञान व चेतना -प्रधान ,रजोगुण इच्छा व क्रिया-प्रधान तथा तमोगुण अज्ञान व जड़ता -प्रधान है |ज्ञान व चेतना का अज्ञान और जड़ता से चिरकाल से संघर्ष चलता आया है |इसे ही हम सत्य और असत्य ,धर्म और अधर्म,न्याय और अन्याय ,प्रकाश और अंधकार ,भलाई और बुराई ,सद्गुणो और दुर्गुणो अथव दैवी और दानवी संघर्ष के नाम से पुकारते रहे हैं |तमोगुण सदैव से ही सतोगुण को पराजित करके उसे आकारांत करना चाहता है |बीच में रजोगुण पड़ता है अतएव तमोगुण का पहला संघर्ष रजोगुण से ही होता है |दूसरे शब्दों में हम केह सकते हैं कि रजोगुण-प्रधान कर्म करने वाले सांसारिक लोग तमोगुण -प्रधान आसुरी शक्ति द्वारा पहले पराजित होकर दानव बन जाते हैं,तन उनका आक्रमण सतोगुण पर होता है |सतोगुण स्वयं इच्छा और क्रिया से रहित होने के कारन तमोगुण के सामने अकेला ठहर नहीं सकता,अतएव उसे रजोगुण कि सहायता लेनी ही पड़ती है और रजोगुण को स्वयं अपने अस्तित्व के लिए सतवोन्मुखी होकर सैट कि सहायता करनी पड़ती है |इसलिए तो क्षात्र-वृति के बिना ब्राह्मण के सत्व-वृति का जीवित रहना कठिन है |ऐसी दशा में तो वह तमोभाव द्वारा आक्रांत होकर शूद्रत्व के निकृष्टतम गुणो को प्राप्त हो जाता है और इसीलिए जिस देश में क्षत्रिय न हों वहाँ ब्राह्मण का निवास करना वर्जित कहा गया है |इसी सिद्धांत के अनुसार सत्व राज कि सृस्टि करनी चाहिए और राज को सदैव सत्व कि रक्षा के लिए तत्पर रहना चाहिए |जब यह मर्यादा भंग हो जाती है तभी समाज विश्रृंखलित होकर पतनोमुखी बन जाता है|

क्रमश:........

Friday, November 29, 2013

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- अंतिम (राजपूत और भविष्य)

भाग - ४ से आगे...
इसी भाँति वास्तविक साम्यवाद की चरम स्थिति के दो आवश्यक पहलू राज्यहीन और व्यक्तिगत सम्पतिहीन समाज की स्थापना केवल एक ऐसी आदर्श कल्पना मात्र कही जा सकती है जो कभी भी पूरी नहीं हो सकती। इस प्रकार राज्यविहीन समाज की कल्पना हिन्दू तत्वज्ञ बहुत पहले ही कर चुके थे। इस प्रकार की व्यवस्था की स्थापना के लिए ब्रह्मनिष्ठ, ज्ञानी, वासनाजयी और त्यागी व्यक्तियों के समाज-निर्माण का बहुत ही परिश्रम और संस्कारमयी प्रणाली द्वारा प्रयत्न भी किया गया। वास्तव में इस प्रकार के (Stateless Society) समाज की रचना और स्थापना इस प्रकार के श्रेष्ठ चारित्र्य से ही सम्भव हो सकती है। इस प्रकार के समाज में सब व्यक्ति परस्पर स्नेहपूर्ण, स्वार्थ-रहित होकर समाज का निर्माण और धारण करते हैं। ऐसी समाज के लिए राज-सता, दण्ड-नियम आदि के बंधन अनावश्यक होते हैं. यही अवस्था कृत-युग के नाम से पुकारी गई है। इस अवस्था का शास्त्रकारों शास्त्रकारों ने यों वर्णन किया है -
न राज्यं न च राजाˢˢसोन्न दण्डो न च दण्डिकः ।
धर्मेणेव प्रजाः सर्वा रक्षन्तिस्म् परस्परम् ।।

आज के साम्यवाद में जिस राज्यहीन सरकार की कल्पना की गई है, वह धर्महीन होने के कारण कितनी अराजकता और अनैतिकतापूर्ण और भयंकर होगी, उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है. हिन्दू शास्त्रकारों ने भी जब तक यह वांछनीय अवस्था प्राप्त न हो तब तक राजसता का होना आवश्यक मान लिया था और उस पर धर्म अथवा धर्मपरायण व्यक्तियों का नियंत्रण रख दिया, जो सब प्रकार से स्वार्थ-निरपेक्ष, निडर और ब्रह्म-रूप से समाज को देखने वाले समदर्शी होते थे। आज के साम्यवाद की राज्यहीन समाज की कल्पना अपूर्ण और अव्यावहारिक होने के साथ ही साथ धर्मविहीन होने के कारण अतीव भयंकर भी है। इसी भांति व्यक्तिगत सम्पतिहीन समाज की कल्पना भी वास्तविक नहीं है।

इनके अतिरिक्त साम्यवादियों की अन्य धारणायें और मान्यतायें भी असत्य हैं। द्वंदात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत और सृष्टि की जड़ अथवा स्थूल से उत्पति आदि की धारणायें बच्चों की सी बातें हैं। संसार द्वंदात्मक है अवश्य पर वह भौतिक र्रोप से शोषित और शोषक, मजदूर और पूंजीपति का द्वन्द न होकर तात्विक रूप से सत्य और असत्य, न्याय और अन्याय, धर्म और अधर्म, चेतन और जड़, प्रकाश और अंधकार का द्वन्द है। शोषित और शोषक तथा मजदूर और पूंजीपति का विभाजन तो बहुत ही मोटी बुद्धि का कार्य है। इसी द्वंदात्मक भौतिकवाद के अंतर्गत भौतिक साम्य की स्थापना भी एक असम्भव कल्पना मात्र है। समता अथवा साम्य आत्मिक गुण है, अतएव उसकी भौतिक रूप से प्राप्ति असम्भव है। आत्मा तक साम्यवादी दर्शन की पहुँच ही नहीं है। आत्मा और ईश्वर की सत्ता को वह स्वीकार ही नहीं करता, अतएव आत्म-साम्य आदि सत्य और उच्च सिद्धांतों तक साम्यवादी सोच भी नहीं सकते।

वास्तव में आज की साम्यवादी व्यवस्था दलगत अधिनायकवाद के अंतर्गत एक समाजवादी व्यवस्था है जो मनुष्य की घृणा, काम, हिंसा, प्रतिशोध, सांसारिक सुख आदि की पाशविक वृतियों को उतेजित करके सदैव सता हाथ में रखने की चेष्टा किया करती है। इस व्यवस्था के अनुसार व्यक्ति को आवश्यक भौतिक सुविधायें तो प्राप्त हो जाती हैं पर उसकी आत्मा कुण्ठित हो जाती है और स्वतंत्रता आदि गुणों का विनाश विनाश हो जाता है। इस व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति पूर्णतः पशुवत् और यन्त्रवत् होकर अधिनायकवाद को पुष्ट और जीवित रखने का साधन मात्र बन जाता है। अधिनायकवाद चाहे व्यक्तिगत हो अथवा संस्थागत, अतीव ही भयंकर और राक्षसी प्रवर्ति-प्रधान होता है। आस्तिकवाद की दया, उदारता, क्षमा, न्याय, सत्य आदि सद्गुण इस नास्तिक साम्यवादी अधिनायकवाद के लिए सर्वथा असत्य तत्व है। एक बार यदि यह व्यवस्था स्थापित हो जाती है तो इसका उन्मूलन बाह्य शक्ति की सहायता के बिना असम्भव सा होता है। अज्ञान और असंतोष में इसके कीटाणु अधिक पनपते हैं, अतएव इसकी एक-मात्र चिकित्सा ज्ञान-प्रसार और भौतिक रूप से संतोष की प्राप्ति है। वास्तव में आज की प्रचलित साम्यवादी व्यवस्था इस पृथ्वी पर नारकीय व्यवस्था है जो वर्तमान प्रजातंत्रीय समाजवाद और सामान्य प्रजातन्त्रवाद से कहीं अधिक भयानक है। इस व्यवस्था की तुलना हम मध्ययुगीन इस्लामी व्यवस्था से कर सकते हैं। जिस प्रकार एक आदर्श इस्लामी राज्य में विधर्मियों के अस्तित्व को सहा नहीं जा सकता, इसी भाँति साम्यवादी व्यवस्था में भी विरोधी दलों के अस्तित्व के लिए कोई स्थान नहीं है। आदर्श इस्लामी राज्य में विधर्मी और विजातीय तत्व केवल इस्लाम के प्रचार और प्रसार के लिए उपयुक्त साधन और सामग्री समझे जाते हैं, इसी भाँति साम्यवादी व्यवस्था में भी गैर-साम्यवादी लोग साम्यवाद के प्रचार और प्रसार के लिए केवल साधन मात्र होते हैं। एक आदर्श इस्लामी राज्य में राज्य के महत्वपूर्ण पदों और स्थानों पर केवल मुसलमान ही पदासीन हो सकते हैं इसी भाँति इस साम्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत राज्य के समस्त महत्वपूर्ण पद और स्थान साम्यवादीयों के लिए ही सुरक्षित रहते हैं। एक विधर्मियों से घृणा करता है तो दूसरा गैर-साम्यवादियों से घृणा करता है। एक इस्लाम का डंका संसार में बजाना अपना परम पवित्र कर्तव्य समझता है तो दूसरा साम्यवाद के अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव को बढ़ने में अपनी सार्थकता समझता है। सैद्धांतिक कट्टरता, गैरों के लिए घृणा, हिंसा और असहिष्णुता में इस्लाम और साम्यवाद के आदर्श एक समान ही हैं। इतनी समानता होने के उपरांत इस्लाम एक आस्तिक व्यवस्था और साम्यवाद एक नास्तिक व्यवस्था है। इस्लाम के अंतर्गत मुसलमानों के व्यक्तिगत अभ्युदय के लिए मार्ग पूर्ण रूप से खुला रहता है, पर साम्यवाद के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वतंत्रता नाम की कोई वस्तु नहीं है। वह एक बहुत बड़ा कारावास है जिसके अंतर्गत अयक्ति को यंत्रवत कार्य करते रहना पड़ता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस साम्यवादी व्यवस्था से प्रजातंत्री व्यवस्था कहीं अधिक बुद्धिमतापूर्ण एवं कल्याणकारी है।

भारत के लिए पश्चिमी प्रजातन्त्रवाद, समाजवाद अथवा साम्यवाद में से कोई भी शासन-प्रणाली उपयुक्त नहीं है। यहाँ के लिए तो केवल वर्ण-व्यवस्थानुसार शासन-प्रणाली ही श्रेयस्कर है। वर्ण-व्यवस्था में इन वादों के गुणों का समावेश और दोषों का परिहार हो जाता है। वर्ण-व्यवस्था शास्त्रोक्त व्यवस्था है और शास्त्र किसी एक, दो या चार-पाँच व्यक्तियों द्वारा भौतिक सुखों के चिंतन में बनाई गई पुस्तकें मात्र नहीं हैं। वे इस पृथ्वी पर ईश्वरीय आज्ञा का लिपिबद्ध अथवा भाषा-बद्ध स्वरुप हैं। वे हज़ारों वर्षों के हज़ारों त्यागी और तपस्वियों के मनन, चिन्तन, अनुभव और आत्म-ज्ञान की साक्षी स्वरुप हैं। शास्त्रोक्त होने के कारण वर्ण-व्यवस्था ही मूल रूप से हमारे लिए ग्राह्य और श्रेयष्कर हो सकती है।

संसार के सब वादों में सर्व प्राचीन प्रजातन्त्रवाद है, जिसका जन्म अमेरिका के स्वातंत्र्य संग्राम और राज्य क्रांति के पश्चात हुआ है। इसकी अधिक से अधिक आयु पौने दो सौ वर्षों की है। समाजवादी व्यवस्था तो बीसवीं शताब्दी की कल्पना मात्र है और साम्यवाद की आयु चालीस वर्ष से अधिक नहीं है। अतएव कोई भी दृढ़तापूर्वक नहीं कह सकता कि इन वादों में कितना स्थायित्व और सत्य है। पर वर्ण-व्यवस्थानुसार समाज-व्यवस्था की आयु हज़ारों वर्षों की है। जिस व्यवस्था का पतन होने में लगभग तीन-चार हज़ार वर्ष लगे हों, उसकी दीर्धायु का सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है। पतनावस्था में भी वर्ण-व्यवस्था के शाश्वत सिद्धांत पश्चिमी वादों से कहीं अधिक व्यावहारिक और श्रेयस्कर हैं। अतएव वर्ण-व्यवस्था पूर्ण परीक्षित, पूर्ण वैज्ञानिक, शास्त्रोक्त और व्यावहारिक होने के कारण भारत के लिए एक मात्र ग्राह्य और उपयुक्त व्यवस्था है। यह भारत की अपनी मौलिक विशेषता है और यदि सुचारु रूप से इसकी पुनः स्थापना कर दी जाय तो संसार के बहुत से देश पश्चिमी वादों से अपना पिण्ड छुड़ा कर निश्चित रूप से इसकी और आकर्षित हो जायेंगे। भारत पुनः संसार के गुरुत्व पद पर प्रतिष्ठित हो जायेगा। वह माली कितना अभागा और अज्ञानी होगा जो अपने उधान में उत्पन्न केलों को बेचकर बाहर से लाल मिर्च लाकर खायेगा और वह ग्वाला कितना मुर्ख होगा जो दूध के मूल्य में मदिरा खरीद कर पीयेगा। इसी भांति वह देश कितना अभागा और अज्ञानी होगा जो अपनी मौलिक विशेषताओं को छोड़कर दूसरों के अनुकरण द्वारा उन्नति करना चाहेगा।

इस वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत क्षात्र-परम्परा अत्यधिक महत्वशाली व्यवस्था है। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था की स्थापना, उसके आदर्श, मर्यादा आदि की रक्षा का दायित्व मूल रूप से क्षात्र-वृति पर है। अतएव सर्वप्रथम हमें क्षात्र-धर्म के उत्थान के रूप में सोचना चाहिए। क्षात्र-धर्म के उत्थान से तात्पर्य किसी जाति विशेष के उत्थान से नहीं, वरन शास्त्रोक्त वर्ण-व्यवस्था के उत्थान से है। क्षात्र-परंपरा ही वास्तव में सेवा का दिव्या आधार है। इसकी उन्नति में ब्राह्मण, वैश्य, शुद्र की समान रूप से उन्नति निहित है, इसकी उन्नति में सम्पूर्ण मानवता की उन्नति निहित है और यही आज भारत राष्ट्र के लिए सर्व हितकारी, सर्वकल्याणकारी और सुन्दर योजना है।

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