Friday, September 28, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -4

भाग -३ से आगे .......

ये सब कार्य लुभावनें सिद्धांतों की ओट लेकर, कहीं शोषण से कहीं दासता से और कहीं सामंतशाही के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के नाम पर कराये गए| कहीं राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समानता की दुहाई दी गयी तो कहीं राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय की स्थापना की प्रतिज्ञाएं की गयी| इस प्रकार मुट्ठी भर सिद्धांतहीन बुद्धिजीवी वर्ग ने राजपूतों और अन्य श्रमिक वर्गों को परस्पर लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करना शुरू कर दिया| अपने स्वार्थ को अक्षुण्ण रखने के लिए इन स्वार्थी तत्वों ने राजस्थान में जाट-राजपूत नाम से एक नई समस्या उत्पन्न कर दी| जाट अब भस्मासुर की भांति इन्हीं की शक्ति से सशक्त होकर “जाटस्तान” की स्थापना के मधुर पर असंभव स्वप्न देखने लग गए| कह नहीं सकते कि हिन्दू मुस्लिम समस्या के समाधान की भांति इस समस्या का समाधान भी देश के लिए कितना महंगा पड़ेगा ? जो राजपूत देशी राज्यों के अतिरिक्त उस समय ब्रिटिश भारत में रहते थे उनके साथ कुछ परिवर्तित उपायों द्वारा बर्ताव किया गया| उनकी मूल समस्या भी देशी राज्यों के राजपूतों से भिन्न थी, अतएव उनका लक्ष्य बिंदु रक्षात्मक न होकर प्रहारात्मक था| देशी राज्यों के राजपूत, जहाँ मुख्यत: कांग्रेसी संगठनों द्वारा उत्पन्न वातावरण के विरुद्ध अपनी रक्षा में लगे रहे, वहां अन्य प्रान्तों के राजपूत कांग्रेस के साथ होकर अंग्रेजों से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए सक्रिय रूप से लगे रहे| उनके पास राज्यों और जागीरों के रूप में खोने को कुछ नहीं था| हाँ, जमींदारी आदि की रक्षा के लिए उन्हें भी यदाकदा कांग्रेस के विरुद्ध मोर्चा बनाना पड़ता था| जिन प्रान्तों के राजपूतों ने भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में योग दिया उनमे मुख्य स्थान उतर-प्रदेश और बिहार के राजपूतों का है| इन दोनों प्रान्तों में धन-जन से राजपूतों द्वारा कांग्रेस की पूर्ण सहायता की गयी| जहाँ-जहाँ आन्दोलन हुए, जीवन और संपत्ति के लिए खतरा उत्पन्न हुआ, वहां वहां क्षत्रियोचित सरल स्वभाव के कारण राजपूत सबसे आगे रहे| अहिंसात्मक आन्दोलन उनकी जन्म-जात प्रवृति के प्रतिकूल पड़ते थे, पर फिर भी उन्होंने उनमे तन-मन और धन से पूर्ण सहयोग दिया|

यद्यपि उनमे कोई ख्याति प्राप्त नेता नहीं हो सका तथापि राजपूतों ने बड़ी संख्या में स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लिया| सन 1942 ई. के हिंसात्मक आन्दोलन में बिहार के राजपूतों ने जो साहसपूर्ण कार्य किये वे हमारे लिए आज भी गर्व की वस्तु है| पर इन सब बलिदानों और त्याग का अंत में परिणाम क्या हुआ? इस समस्त परिश्रम और त्याग का श्रेय उन्ही बुध्हिजिवी तत्वों को मिला जिनकी संख्या आन्दोलनों में भाग लेने वाले राजपूतों से कहीं अधिक कम थी| किसी भी प्रेस से उनका उल्लेख तक नहीं किया| किसी भी नेता ने उसकी प्रशंसा में दो शब्द तक नहीं कहे| आज राजस्थान,पंजाब,सौराष्ट्र,मालवा,उड़ीसा,और विन्ध्य-प्रदेश के राजपूत यह जानते ही नही कि उनके उत्तर-प्रदेश और बिहार के भाइयों ने भारत कि स्वतंत्रता-प्राप्ति में महत्वपूर्ण योग दिया था| वे उसके लिए कटे,मरे और बलिदान हुए थे| स्वतंत्रता आन्दोलनों के लिखे जाने वाले नए इतिहासों में उनका कहीं नाम तक नहीं| यह इसलिए कि आज का प्रभुत्व-संपन्न,बुद्धिजीवी-वर्ग राजपूतों के स्वाभिमान को जाग्रत कर,अपने महत्व को कम करना नहीं चाहता| यह वर्ग नहीं चाहता की श्रद्धा उनके अतिरिक्त और भी कोई बँटा ले|

इस प्रकार देशी राज्यों के बाहर के राजपूतों ने निष्काम कर्म के सिद्धांत पर कार्य अवश्य किया,पर वास्तव में देखा जाय तो इस बुद्धिजीवी-वर्ग ने अन्य वर्गों की भांति इनका भी पूर्ण रूप से राजनैतिक शोषण किया है| कांग्रेस के सब से शक्तिशाली गढ़ उत्तर-प्रदेश और बिहार ने यदि उसे स्वतंत्रता के पूर्व राजपूतों की सहायता प्राप्त न होती तो भारत में आज कांग्रेस की क्या दशा होती,इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है|

ऊपर लिखा जा चूका है कि राजपूतों को प्रभावहीन बनाने की यह पृष्ठ-भूमि भारत के स्वतंत्र होने के पहले ही बना ली गई थी| अतएव जब भारत से अंग्रेजी सत्ता उठा ली गई तब पहले से ही राजनैतिक दृष्टि से निराश,कार्य-शक्ति की दृष्टि से अचेत, सामाजिक दृष्टि से विश्रंखलित,मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निराश,कार्य-शक्ति की दृष्टि से परावलम्बी और बौद्धिक दृष्टि से पंगु राजपूत के सर्वव्यापी प्रभाव को समाप्त करने में अधिक कौशल और परिश्रम नही करना पड़ा|

राजपूतों के इस सर्वव्यापी प्रभाव को समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम उनके राजनैतिक प्रभुत्व को समाप्त करना आवश्यक था,क्योंकि राजनैतिक प्रभुत्व सभी युगों में अन्य सभी प्रकार के प्रभुत्व का मूल रहा है| जिस जाती या समाज का आर्थिक,सामजिक और सांस्कृतिक प्रभाव समाप्त करना हो उस जाती अथवा समाज का सबसे पूर्व राजनैतिक प्रभुत्व समाप्त करना आवश्यक हो जाता है,क्योकि राजनैतिक प्रभुत्व की समाप्ति के साथ ही साथ जाती अथवा समाज के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की ही समाप्ति हो जाती है|

भारत में राजपूतों का राजनैतिक प्रभुत्व उनके उन छोटे-बड़े सैंकड़ों राज्यों के कारण था जो हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण तक और बंगाल और उड़ीसा से लेकर सिंध और उतर-पश्चिम सीमा प्रदेश तक फैले हुए थे| यधपि इन राज्यों पर वंशानुगत परम्परा के कारण केवल राजाओं का ही स्वामित्व समझा जाता रहा है पर वास्तविक दृष्टि से वे राज्य सब राजपूतों की सामाजिक धरोहर थे| राजपूत समाज के सामाजिक ढांचे के अध्ययन से यह बात भली भांति प्रकट हो जाती है कि जोधपुर राठौड़ों का, मेवाड़ सिसोदियों का,जयपुर कच्छवाहों का, जैसलमेर भाटियों का और बूंदी हाड़ों का राज्य था| ये राज्य राजाओं की व्यक्तिगत संपत्ति न होकर जातिगत इकाइयां थे| इन राज्यों के अतिरिक्त राजपूतों के स्वामित्व में विभिन्न छोटी-बड़ी जागीरें भी राजनैतिक इकाइयों के रूप में थी| अतएव राजपूतों के राजनैतिक प्रभुत्व को नष्ट करने के लिए पहले उन सब राज्यों और बाद में जागीरों को समाप्त करना आवश्यक था|



क्रमश: ....


Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है|
rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat

Wednesday, September 26, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -3

भाग दो से आगे........

उस समय ब्रिटिश भारत में स्वतंत्रता का जो संग्राम अंग्रेजों और भारतीय जनता के बीच चल रहा था, राजस्थान में उसका रूप सामंत-वर्ग और प्रजा-मंडलों के पारस्परिक द्वेष के रूप में प्रकट हुआ| सामंत-वर्ग उस समय अपने कर्तव्यधिकारों के प्रति जागरूक नहीं था और ण प्रचार द्वारा अपनी स्थिति स्पष्टीकरण की कला का ही उसे ज्ञान था; अत: उसके प्रतिद्वंदी प्रजा-मंडल आदि संगठनों ने प्रेस और रंगमंच पर सफलता से एकाधिकार करके प्रचार द्वारा राजपूतों को भारत की जनता के सम्मुख राक्षस, शोषक, अत्याचारी आदि के रूप में चित्रित करके देश के नेताओं के दिलों में उनके प्रति घृणा और विरोधी भावनाओं का अंकुर उत्पन्न कर दिया| उस समय के कांग्रेसी नेताओं ने देशी राज्यों के राजपूतों से कभी भी उचित रीति से संपर्क स्थापित नहीं किया और जो कुछ भी पृष्ठ भूमि देशी राज्यों के प्रजा-मण्डली लोग उन्हें देते रहे उसी आधार पर वे धारणा बनाकर कार्य करते रहे| इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस के प्रत्येक नेता के दिल में राजपूतों के प्रति घृणा का भाव घनीभूत हो गया और इसलिए आज कांग्रेस का प्रत्येक बड़ा नेता राजपूतों का विरोधी और उनसे घृणा करने वाला है|

इन संगठनों का किसी ण किसी रूप में भारतीय कांग्रेस से सम्बन्ध बना रहता था| समय समय पर ये लोग उसके चोटी के नेताओं से आशीर्वाद प्राप्त करते रहते थे| इस संपर्क का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि कांग्रेसी नेता प्रारंभ से ही राजपूतों को प्रतिक्रियावादी और अत्याचारी समझने लग गए और राजपूत कांग्रेस को अपना मुलोच्छेदन करने वाली संस्था के रूप में देखने लग गए| अंग्रेज यही चाहते थे कि कांग्रेस का संपर्क राजपूतों जैसे शक्तिशाली योद्धा-वर्ग से न होने दिया जाय और इस प्रकार देशी राज्यों की शक्ति और साधन उनके विरुद्ध प्रयुक्त न हों| कहने की आवश्यकता नहीं कि अंग्रेज अपनी फूट डालने की इस निति में सफल हुए|

जब अंग्रेजों का भारत में जाना लगभग निश्चित सा हो गया तब देशी राज्यों के इन संगठनों ने भी अपना भाग्य अखिल भारतीय कांग्रेस के साथ जोड़ दिया| ठीक इसी समय इन लोगों में राजनैतिक महत्वाकांक्षा की जागृति हुई| जो लोग अंग्रेजों के गुप्त कोष से धन लेकर अब तक उनकी स्वार्थ-सिद्धि में योग दे रहे थे, वे अब कांग्रेस का सहारा पाकर न केवल देश भक्तों की श्रेणी में ही आये अपितु शासक बनने के मीठे स्वप्न भी देखने लगे गए| उस समय अखबारी संसार के अतिरिक्त अन्य जनता से उनका सम्पर्क लगभग नहीं के बराबर था| उनके राजनैतिक उद्देश्य की पूर्ति के सब से बड़े प्रबल बाधक सामंत-वर्ग (राजपूत) उस समय भी अपेक्षा-कृत बहुत प्रबल पड़ता था| अतएव राजनैतिक सत्ता की प्राप्ति और उसके स्थायित्व के लिए राजस्थान के कांग्रेसियों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे अखिल भारतीय कांग्रेस और उसकी सत्ता का सहारा लेकर राजपूतों का समूल नष्ट करें|

प्रारम्भ से ही राजस्थान के इन नव-निर्मित संघठनों में बुद्धिजीवी लोगों की ही प्रधानता रही,जो अकेले राजपूतों के प्रभाव को क्षीण किसी भांति समर्थ नही हो सकते थे| अतएव इनके साथ बहुसंख्यक लोगों की शारीरिक शक्ति का सामंजस्य कराने के लिए ठीक उसी समय अंग्रेजों द्वारा जाट सभाओं का पृथक अस्तित्व रखते हुए भी उनका संबंद्ध इन बुद्धिजीवियों के संगठनों में किसी न किसी रूप में जोड़ दिया गया| इन जाट सभाओं को माध्यम बना कर उन राज्यों में वर्ग-घृणा,वर्ग-द्वेष,वर्ग-संघर्ष आदि ककी नींव डाली गई| जब कभी सामंत-वर्ग कुछ क्षीण होता दिखाई देता था तब कभी कभी उसे भी अंग्रेजों द्वारा सबल बना दिया जाता था|इस प्रकार फूट डालकर शक्ति-संतुलन को अंग्रेजो ने कई वर्षों तक बनाए रखा|

अंग्रेजों की इस 'फूट डालो और शासन करो' की नीति को कांग्रेस ने भी अति प्रबल वेग और सावधानी से अपनाए रखा| भारत के लगभग सभी देशी राज्यों और विशेष कर राजस्थान में कांग्रेसी बुद्धिजीवी वर्ग की नीति का एक मात्र आधार राजपूतों और जनता के अन्य वर्गों में फूट डालकर अपना प्रभाव बढाने का रहा है| इस बुद्धिजीवी वर्ग ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सैकड़ों वर्षों से एक साथ रहने वाली जातियों को परस्पर लड़ा दिया| किसी वर्ग का अन्यायपूर्ण पोषण और दूसरे की गला घोंट की नीति का खुलेआम प्रचार किया जाने लगा| साम,दाम,दंड और भेद की नीति से किसान सभाओं आदि को अपने हाथ की कठपुतली बनाए रखना इस वर्ग का सदैव से ही प्रवास रहा है| छोटी घटनाओं को अतिरंजित करके तथा तोड़ मोड़ कर प्रचारित और प्रकाशित किया गया| राजपूतों को नृशंस,अत्याचारी,सुष्ट,राक्षस,पतित आदि रूप में चित्रित किया गया| उसकी सामजिक,राजनैतिक और सांस्कृतिक संस्थाओं और उनके मान-बिन्दुओं के प्रति अत्यंत ही घ्रणात्मक प्रचार किये जाने लगा| इन सब कार्यों में बनियें के धन और आधुनिक शिक्षा-प्राप्त ब्राह्मण की बुद्धि ने काम किया| उन विगत घटनाओं को आज भी जब हम याद करते है तब क्रोध से आँखों में खून उतर आता है|

पर एक बात की ओर से यह बुद्धिजीवी-वर्ग सतर्क था| और वह बाटी थी-राजपूतों की योद्धिक मनोवृति और उनके लड़ाकू संस्कार| यह वर्ग जान गया था कि जब तक राजपूतों कि यौद्धिक श्रेष्ठता को समाप्त नहीं किया जाता तब तक अन्य सभी प्रकार के पतन क्षणिक है| अतएव उसने देशी राज्यों कि अन्य सैनिक और अर्द्ध-सैनिक जातियों का संगठन करना आरम्भ किया| राजपूत-श्रेष्ठता के प्रति उनके दिलों में घृणा उत्पन्न कराई जाने लगी| खुलेआम हिंसा और वर्ग-संघर्ष को प्रोत्साहन दिया गया| ऐसे अवसर या तो निकाले गए या उत्पन्न किये गए, जहाँ वे जातियां राजपूतों के विरुद्ध शक्ति और हिंसा का प्रयोग का प्रयोग कर सकें| परिणामत: लगभग सभी देस्गी राज्यों में एक सिरे से दुसरे सिरे तक योजनाबद्ध रूप से झगड़ों और मारकाट का आयोजन कराया गया| कहीं भीलों द्वारा, कहीं मीणों द्वारा, कहीं जाट-गुजरों द्वारा और कहीं अन्य जातियों द्वारा राजपूतों से लड़ने की चुनौतियाँ दिलाई गयी| उनके द्वारा राजपूत महिलाओं तक अपमानित कराया गया| बुद्धिजीवियों द्वारा आरम्भ किया गया यह घृणित सिलसिला आज भी राजस्थान के गांवों में प्रचलित है,जिसके परिणाम स्वरूप कई निर्दोष व्यक्तियों की हत्याएं होती रहती है| इन हत्याकांडों में गांवों में बसने वाले राजपूत और अन्य निर्दोष लोग ही मारे जाते है| इन हत्याकांडों के मूल और एकमात्र कारण ये बुद्धिजीवी लोग इनसे उत्पन्न राजनैतिक परिस्थिति का सदैव लाभ उठाते रहते है और इस प्रकार अपने नेतागिरी के घिनौने स्वरुप को स्थिर और सुरक्षित बनाये रखते है| पर ईश्वर की कृपा से जहाँ जहाँ भी छोटी-मोटी मुटभेड हुई वहां विरोधी लोग मैदान में ठहर नहीं सके| यदि एक बार भी कहीं राजपूत सामूहिक रूप से मात खा बैठते तो इन लोगों द्वारा उनकी आगे क्या दशा कराई जाती, इसकी कल्पना मात्र से भय उत्पन्न होता है| यह विरोधियों का अत्यंत ही भयंकर परिक्षण और प्रयोग था पर राजपूतों की स्वाभाविक क्षात्र-वृति ने उसे सफल नहीं होने दिया|

क्रमशः.............


Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है| rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat

Tuesday, September 25, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -2

भाग एक से आगे....

पाकिस्तान की स्थापना कांग्रेस ने इसलिए कराई कि जिससे देश का प्रबल और प्रभावशाली मुस्लिम-वर्ग शेष भारत से प्रथक होकर अन्य राष्ट्र का शाषक बन जाय और इस प्रकार भारत में कांग्रेसी प्रभुत्व के अबाध रूप से प्रसार के लिए एकदम मार्ग खुल जाए| दुर्नितिपूर्ण योजना के सफल हो जाने के कारण मुसलामानों कि महत्वकांक्षा भी पूरी हो गई और कांग्रेसी प्रभुत्व प्रसारण का मार्ग भी एकदम निर्विघ्न और सुरक्षित हो गया| पकिस्तान की स्थापना के बाद भारत में बचा हुआ मुस्लिम तत्व कांग्रेस स्वार्थों की पूर्ति के लिए एकदम पोषक बन गया| इस वर्ग ने प्रभुत्वशाली कांग्रेस की उद्देश्यपूर्ति में साधन बनना ही सामयिक राजनीती समझा| यही कारण है कि कांग्रेस का बुद्धिजीवी वर्ग बची हुई मुस्लिम जनसँख्या को हर मूल्य पर भारत में ही रखना चाहता है|

स्वतंत्र भारत में एकछत्र कांग्रेसी प्रभाव को सीमित करने वाले मुसलामानों के बाद दूसरे शक्तिशाली तत्व राजपूत ही थे| कई दृष्टियों से यह तत्व मुसलमानों से भी अधिक सुविधा-संपन्न और प्रभावशाली था| हिन्दुओं के चिरकाल से शासक होने के कारण मनोवैज्ञानिक रूप से अन्य हिन्दूवर्ण राजपूतों के सामने एक प्रकार ससे आत्म-लघुत्व की भावना का अनुभव करते रहे है| भारत के कोने कोने में मुसलामानों की भांति राजपूत भी बिखरे हुए है और स्वतंत्रता के पूर्व देश के लगभग पंचमांश पर राजपूतों का शासन भी था| उनके पास प्रथम श्रेणी की सेनायें और अन्य साधन प्रचुर मात्रा में थे| इन सबके अतिरिक्त उनकी एतिहासिक परम्परा और आदर्शों के प्रति भारतीय हिन्दू जनता का एक बहुत बड़ा अंग श्रद्धालु और नमनशील भी था| व्यावहारिक शासन-कुशलता और लोकप्रियता कि दृष्टि से भी राजपूत कांग्रेसी बुद्धिजीवियों की अपेक्षा कहीं अधिक बढे-चढ़े थे| अतएव इस प्रकार की एक प्रभुत्व-संपन्न,साधन-युक्त,शक्तिशाली,स्वधर्मी योद्धा राजपूत जाती को सरलता से समाप्त नहीं किया जा सकता था| केवल कूटनीतिक चाल ही उन्हें समाप्त करने में सफल हो सकती थी और आगे चलकर हम देखेंगे कि वास्तव में हुआ भी वैसा ही|

हम गत अध्याय में देख चुके है कि अंग्रेजों ने राजपूतों को निष्प्रभ और जर्जर बनाने में अपनी सम्पूर्ण कूटनीतिक शक्ति लगा दी थी| उस नीति के परिणाम स्वरूप राजपूत और राजपूत संस्थाएं पहले से ही भीतर ही भीतर खोखली और निर्बल बन गई थी| उनके अस्तित्व की सार्थकता केवल मात्र अंग्रेजी सत्ता के साधन बने रहने मात्र में रह गई थी समाज के वास्तविक शासक,नियन्ता,रक्षक,पथ-प्रदर्शक आदि सब कुछ अंग्रेज थे| राजपूतों की उपयोगिता केवल स्वयं के लिए जीवित रहने मात्र में ही थी| पतन और अघोगति की इन्ही परिस्थितियों में कांग्रेस के बुद्धिजीवी-वर्ग में राजपूत के सर्वनाश की उस योजना को कार्यान्वित करना प्रारंभ किया जिसका परिणाम आज हमे राजपूतों के सर्वांगीण पतन के रूप में दिखाई दे रहा है|

हम भारत के राजपूतों को राजनैतिक दृष्टि से दो भागों में बाँट सकते है-देशी राज्यों में रहने वाले और देशी राज्यों से बाहर रहने वाले| इन दोनों की राजनैतिक समस्याये भी भिन्न भिन्न थी| देशी राज्यों में रहने वाले राजपूत सीधे रूप में शासक-वर्ग के अंतर्गत आते थे| राज-वंश और जागीरों आदि प्रभुत्व-संपन्न संस्थाओं के स्वामी होने के कारण देशी राजपूतों का जन-जीवन पर बहुत ही व्यापक और विस्तृत प्रभाव था| उनमे आत्म बड़प्पन की भावना के साथ साथ आर्थिक,राजनैतिक और सामजिक श्रेष्ठता और उसकी भावना भी थी| यधपि अंग्रेजों ने राजपूतों को आंतरिक रूप से निर्बल बना दिया था, तथापि वे देशी राज्यों के अन्य सब तत्वों में कई बातों में अब भी श्रेष्ठ व शक्तिशाली थे| इस प्रकार के शक्ति-संपन्न और विशिष्ट सामाजिक और राजनैतिक अस्तित्व रखने वाले राजपूतों के साथ कांग्रेस का विभिन्न परिस्थितियों और अवसरों के अनुसार कैसा व्यवहार रहा है, यह समझ लेना आवश्यक होगा|

देशी राज्यों के राजा लोगों की दशा बड़ी विचित्र थी| वे अंग्रेजों के मस्तिष्क और राजपूतों (सामंत-वर्ग) की शक्ति से कार्य करते थे| स्वतंत्र रूप से कोई निर्णय कर उसे कार्यान्वित कर देना उनकी शक्ति और सामर्थ्य के वश की बात न थी| वे एक और निति-सम्बन्धी मामलों में अंग्रेजों और शक्ति सम्बन्धी मामलों में सामंत-वर्ग के हाथों में खिलौना मात्र थे| इस प्रभावशाली सामंत-वर्ग को क्षीण करनेतथा अपने शक्ति संतुलन के सिद्धांत को मूर्त रूप देने के लिए इन देशी राज्यों के तत्कालीन अंग्रेज और उनके द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्रियों ने पोलिटिकल विभाग के आदेशानुसार उन राज्यों में आज से लगभग २०-२५ वर्षों पहले कांग्रेसी संगठनों को जन्म दिया| ये संगठन प्रजा परिषद्, प्रजा मंडल, लोकपरिषद आदि नामों से पुकारे जाने लगे और उनका सञ्चालन अंग्रेजों ने कुटनीतिक क्षेत्रों के इशारों से, उन राज्यों के गुप्त कोषों के धन से होने लगा| ये संगठन राजाओं और सामंत-वर्ग को भयभीत करने के लिए अन्कुस्ग के रूप में खड़े किये गए थे| इस निति का सीधा परिणाम यह हुआ कि सामंत वर्ग इन संगठनों से भयभीत होकर अपनी सुरक्षा के लिए अंग्रेजी सत्ता का हितैषी और संरक्षक बन गया| अंग्रेज वास्तव में यही चाहते थे| राजस्थान के आज के कई चोटी के नेता एक समय के अंग्रेजों के एजेंट-मात्र थे, पर आज वे देश-भक्तों की श्रेणी में अग्रगण्य है| इसे विधि की विडम्बना समझनी चाहिए|

क्रमशः....


Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है|(पृष्ठ संख्या-४३,४४)

rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw,aayuvan singh shekhawat