Tuesday, September 25, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -2

भाग एक से आगे....

पाकिस्तान की स्थापना कांग्रेस ने इसलिए कराई कि जिससे देश का प्रबल और प्रभावशाली मुस्लिम-वर्ग शेष भारत से प्रथक होकर अन्य राष्ट्र का शाषक बन जाय और इस प्रकार भारत में कांग्रेसी प्रभुत्व के अबाध रूप से प्रसार के लिए एकदम मार्ग खुल जाए| दुर्नितिपूर्ण योजना के सफल हो जाने के कारण मुसलामानों कि महत्वकांक्षा भी पूरी हो गई और कांग्रेसी प्रभुत्व प्रसारण का मार्ग भी एकदम निर्विघ्न और सुरक्षित हो गया| पकिस्तान की स्थापना के बाद भारत में बचा हुआ मुस्लिम तत्व कांग्रेस स्वार्थों की पूर्ति के लिए एकदम पोषक बन गया| इस वर्ग ने प्रभुत्वशाली कांग्रेस की उद्देश्यपूर्ति में साधन बनना ही सामयिक राजनीती समझा| यही कारण है कि कांग्रेस का बुद्धिजीवी वर्ग बची हुई मुस्लिम जनसँख्या को हर मूल्य पर भारत में ही रखना चाहता है|

स्वतंत्र भारत में एकछत्र कांग्रेसी प्रभाव को सीमित करने वाले मुसलामानों के बाद दूसरे शक्तिशाली तत्व राजपूत ही थे| कई दृष्टियों से यह तत्व मुसलमानों से भी अधिक सुविधा-संपन्न और प्रभावशाली था| हिन्दुओं के चिरकाल से शासक होने के कारण मनोवैज्ञानिक रूप से अन्य हिन्दूवर्ण राजपूतों के सामने एक प्रकार ससे आत्म-लघुत्व की भावना का अनुभव करते रहे है| भारत के कोने कोने में मुसलामानों की भांति राजपूत भी बिखरे हुए है और स्वतंत्रता के पूर्व देश के लगभग पंचमांश पर राजपूतों का शासन भी था| उनके पास प्रथम श्रेणी की सेनायें और अन्य साधन प्रचुर मात्रा में थे| इन सबके अतिरिक्त उनकी एतिहासिक परम्परा और आदर्शों के प्रति भारतीय हिन्दू जनता का एक बहुत बड़ा अंग श्रद्धालु और नमनशील भी था| व्यावहारिक शासन-कुशलता और लोकप्रियता कि दृष्टि से भी राजपूत कांग्रेसी बुद्धिजीवियों की अपेक्षा कहीं अधिक बढे-चढ़े थे| अतएव इस प्रकार की एक प्रभुत्व-संपन्न,साधन-युक्त,शक्तिशाली,स्वधर्मी योद्धा राजपूत जाती को सरलता से समाप्त नहीं किया जा सकता था| केवल कूटनीतिक चाल ही उन्हें समाप्त करने में सफल हो सकती थी और आगे चलकर हम देखेंगे कि वास्तव में हुआ भी वैसा ही|

हम गत अध्याय में देख चुके है कि अंग्रेजों ने राजपूतों को निष्प्रभ और जर्जर बनाने में अपनी सम्पूर्ण कूटनीतिक शक्ति लगा दी थी| उस नीति के परिणाम स्वरूप राजपूत और राजपूत संस्थाएं पहले से ही भीतर ही भीतर खोखली और निर्बल बन गई थी| उनके अस्तित्व की सार्थकता केवल मात्र अंग्रेजी सत्ता के साधन बने रहने मात्र में रह गई थी समाज के वास्तविक शासक,नियन्ता,रक्षक,पथ-प्रदर्शक आदि सब कुछ अंग्रेज थे| राजपूतों की उपयोगिता केवल स्वयं के लिए जीवित रहने मात्र में ही थी| पतन और अघोगति की इन्ही परिस्थितियों में कांग्रेस के बुद्धिजीवी-वर्ग में राजपूत के सर्वनाश की उस योजना को कार्यान्वित करना प्रारंभ किया जिसका परिणाम आज हमे राजपूतों के सर्वांगीण पतन के रूप में दिखाई दे रहा है|

हम भारत के राजपूतों को राजनैतिक दृष्टि से दो भागों में बाँट सकते है-देशी राज्यों में रहने वाले और देशी राज्यों से बाहर रहने वाले| इन दोनों की राजनैतिक समस्याये भी भिन्न भिन्न थी| देशी राज्यों में रहने वाले राजपूत सीधे रूप में शासक-वर्ग के अंतर्गत आते थे| राज-वंश और जागीरों आदि प्रभुत्व-संपन्न संस्थाओं के स्वामी होने के कारण देशी राजपूतों का जन-जीवन पर बहुत ही व्यापक और विस्तृत प्रभाव था| उनमे आत्म बड़प्पन की भावना के साथ साथ आर्थिक,राजनैतिक और सामजिक श्रेष्ठता और उसकी भावना भी थी| यधपि अंग्रेजों ने राजपूतों को आंतरिक रूप से निर्बल बना दिया था, तथापि वे देशी राज्यों के अन्य सब तत्वों में कई बातों में अब भी श्रेष्ठ व शक्तिशाली थे| इस प्रकार के शक्ति-संपन्न और विशिष्ट सामाजिक और राजनैतिक अस्तित्व रखने वाले राजपूतों के साथ कांग्रेस का विभिन्न परिस्थितियों और अवसरों के अनुसार कैसा व्यवहार रहा है, यह समझ लेना आवश्यक होगा|

देशी राज्यों के राजा लोगों की दशा बड़ी विचित्र थी| वे अंग्रेजों के मस्तिष्क और राजपूतों (सामंत-वर्ग) की शक्ति से कार्य करते थे| स्वतंत्र रूप से कोई निर्णय कर उसे कार्यान्वित कर देना उनकी शक्ति और सामर्थ्य के वश की बात न थी| वे एक और निति-सम्बन्धी मामलों में अंग्रेजों और शक्ति सम्बन्धी मामलों में सामंत-वर्ग के हाथों में खिलौना मात्र थे| इस प्रभावशाली सामंत-वर्ग को क्षीण करनेतथा अपने शक्ति संतुलन के सिद्धांत को मूर्त रूप देने के लिए इन देशी राज्यों के तत्कालीन अंग्रेज और उनके द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्रियों ने पोलिटिकल विभाग के आदेशानुसार उन राज्यों में आज से लगभग २०-२५ वर्षों पहले कांग्रेसी संगठनों को जन्म दिया| ये संगठन प्रजा परिषद्, प्रजा मंडल, लोकपरिषद आदि नामों से पुकारे जाने लगे और उनका सञ्चालन अंग्रेजों ने कुटनीतिक क्षेत्रों के इशारों से, उन राज्यों के गुप्त कोषों के धन से होने लगा| ये संगठन राजाओं और सामंत-वर्ग को भयभीत करने के लिए अन्कुस्ग के रूप में खड़े किये गए थे| इस निति का सीधा परिणाम यह हुआ कि सामंत वर्ग इन संगठनों से भयभीत होकर अपनी सुरक्षा के लिए अंग्रेजी सत्ता का हितैषी और संरक्षक बन गया| अंग्रेज वास्तव में यही चाहते थे| राजस्थान के आज के कई चोटी के नेता एक समय के अंग्रेजों के एजेंट-मात्र थे, पर आज वे देश-भक्तों की श्रेणी में अग्रगण्य है| इसे विधि की विडम्बना समझनी चाहिए|

क्रमशः....


Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है|(पृष्ठ संख्या-४३,४४)

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