Wednesday, September 26, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -3

भाग दो से आगे........

उस समय ब्रिटिश भारत में स्वतंत्रता का जो संग्राम अंग्रेजों और भारतीय जनता के बीच चल रहा था, राजस्थान में उसका रूप सामंत-वर्ग और प्रजा-मंडलों के पारस्परिक द्वेष के रूप में प्रकट हुआ| सामंत-वर्ग उस समय अपने कर्तव्यधिकारों के प्रति जागरूक नहीं था और ण प्रचार द्वारा अपनी स्थिति स्पष्टीकरण की कला का ही उसे ज्ञान था; अत: उसके प्रतिद्वंदी प्रजा-मंडल आदि संगठनों ने प्रेस और रंगमंच पर सफलता से एकाधिकार करके प्रचार द्वारा राजपूतों को भारत की जनता के सम्मुख राक्षस, शोषक, अत्याचारी आदि के रूप में चित्रित करके देश के नेताओं के दिलों में उनके प्रति घृणा और विरोधी भावनाओं का अंकुर उत्पन्न कर दिया| उस समय के कांग्रेसी नेताओं ने देशी राज्यों के राजपूतों से कभी भी उचित रीति से संपर्क स्थापित नहीं किया और जो कुछ भी पृष्ठ भूमि देशी राज्यों के प्रजा-मण्डली लोग उन्हें देते रहे उसी आधार पर वे धारणा बनाकर कार्य करते रहे| इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस के प्रत्येक नेता के दिल में राजपूतों के प्रति घृणा का भाव घनीभूत हो गया और इसलिए आज कांग्रेस का प्रत्येक बड़ा नेता राजपूतों का विरोधी और उनसे घृणा करने वाला है|

इन संगठनों का किसी ण किसी रूप में भारतीय कांग्रेस से सम्बन्ध बना रहता था| समय समय पर ये लोग उसके चोटी के नेताओं से आशीर्वाद प्राप्त करते रहते थे| इस संपर्क का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि कांग्रेसी नेता प्रारंभ से ही राजपूतों को प्रतिक्रियावादी और अत्याचारी समझने लग गए और राजपूत कांग्रेस को अपना मुलोच्छेदन करने वाली संस्था के रूप में देखने लग गए| अंग्रेज यही चाहते थे कि कांग्रेस का संपर्क राजपूतों जैसे शक्तिशाली योद्धा-वर्ग से न होने दिया जाय और इस प्रकार देशी राज्यों की शक्ति और साधन उनके विरुद्ध प्रयुक्त न हों| कहने की आवश्यकता नहीं कि अंग्रेज अपनी फूट डालने की इस निति में सफल हुए|

जब अंग्रेजों का भारत में जाना लगभग निश्चित सा हो गया तब देशी राज्यों के इन संगठनों ने भी अपना भाग्य अखिल भारतीय कांग्रेस के साथ जोड़ दिया| ठीक इसी समय इन लोगों में राजनैतिक महत्वाकांक्षा की जागृति हुई| जो लोग अंग्रेजों के गुप्त कोष से धन लेकर अब तक उनकी स्वार्थ-सिद्धि में योग दे रहे थे, वे अब कांग्रेस का सहारा पाकर न केवल देश भक्तों की श्रेणी में ही आये अपितु शासक बनने के मीठे स्वप्न भी देखने लगे गए| उस समय अखबारी संसार के अतिरिक्त अन्य जनता से उनका सम्पर्क लगभग नहीं के बराबर था| उनके राजनैतिक उद्देश्य की पूर्ति के सब से बड़े प्रबल बाधक सामंत-वर्ग (राजपूत) उस समय भी अपेक्षा-कृत बहुत प्रबल पड़ता था| अतएव राजनैतिक सत्ता की प्राप्ति और उसके स्थायित्व के लिए राजस्थान के कांग्रेसियों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे अखिल भारतीय कांग्रेस और उसकी सत्ता का सहारा लेकर राजपूतों का समूल नष्ट करें|

प्रारम्भ से ही राजस्थान के इन नव-निर्मित संघठनों में बुद्धिजीवी लोगों की ही प्रधानता रही,जो अकेले राजपूतों के प्रभाव को क्षीण किसी भांति समर्थ नही हो सकते थे| अतएव इनके साथ बहुसंख्यक लोगों की शारीरिक शक्ति का सामंजस्य कराने के लिए ठीक उसी समय अंग्रेजों द्वारा जाट सभाओं का पृथक अस्तित्व रखते हुए भी उनका संबंद्ध इन बुद्धिजीवियों के संगठनों में किसी न किसी रूप में जोड़ दिया गया| इन जाट सभाओं को माध्यम बना कर उन राज्यों में वर्ग-घृणा,वर्ग-द्वेष,वर्ग-संघर्ष आदि ककी नींव डाली गई| जब कभी सामंत-वर्ग कुछ क्षीण होता दिखाई देता था तब कभी कभी उसे भी अंग्रेजों द्वारा सबल बना दिया जाता था|इस प्रकार फूट डालकर शक्ति-संतुलन को अंग्रेजो ने कई वर्षों तक बनाए रखा|

अंग्रेजों की इस 'फूट डालो और शासन करो' की नीति को कांग्रेस ने भी अति प्रबल वेग और सावधानी से अपनाए रखा| भारत के लगभग सभी देशी राज्यों और विशेष कर राजस्थान में कांग्रेसी बुद्धिजीवी वर्ग की नीति का एक मात्र आधार राजपूतों और जनता के अन्य वर्गों में फूट डालकर अपना प्रभाव बढाने का रहा है| इस बुद्धिजीवी वर्ग ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सैकड़ों वर्षों से एक साथ रहने वाली जातियों को परस्पर लड़ा दिया| किसी वर्ग का अन्यायपूर्ण पोषण और दूसरे की गला घोंट की नीति का खुलेआम प्रचार किया जाने लगा| साम,दाम,दंड और भेद की नीति से किसान सभाओं आदि को अपने हाथ की कठपुतली बनाए रखना इस वर्ग का सदैव से ही प्रवास रहा है| छोटी घटनाओं को अतिरंजित करके तथा तोड़ मोड़ कर प्रचारित और प्रकाशित किया गया| राजपूतों को नृशंस,अत्याचारी,सुष्ट,राक्षस,पतित आदि रूप में चित्रित किया गया| उसकी सामजिक,राजनैतिक और सांस्कृतिक संस्थाओं और उनके मान-बिन्दुओं के प्रति अत्यंत ही घ्रणात्मक प्रचार किये जाने लगा| इन सब कार्यों में बनियें के धन और आधुनिक शिक्षा-प्राप्त ब्राह्मण की बुद्धि ने काम किया| उन विगत घटनाओं को आज भी जब हम याद करते है तब क्रोध से आँखों में खून उतर आता है|

पर एक बात की ओर से यह बुद्धिजीवी-वर्ग सतर्क था| और वह बाटी थी-राजपूतों की योद्धिक मनोवृति और उनके लड़ाकू संस्कार| यह वर्ग जान गया था कि जब तक राजपूतों कि यौद्धिक श्रेष्ठता को समाप्त नहीं किया जाता तब तक अन्य सभी प्रकार के पतन क्षणिक है| अतएव उसने देशी राज्यों कि अन्य सैनिक और अर्द्ध-सैनिक जातियों का संगठन करना आरम्भ किया| राजपूत-श्रेष्ठता के प्रति उनके दिलों में घृणा उत्पन्न कराई जाने लगी| खुलेआम हिंसा और वर्ग-संघर्ष को प्रोत्साहन दिया गया| ऐसे अवसर या तो निकाले गए या उत्पन्न किये गए, जहाँ वे जातियां राजपूतों के विरुद्ध शक्ति और हिंसा का प्रयोग का प्रयोग कर सकें| परिणामत: लगभग सभी देस्गी राज्यों में एक सिरे से दुसरे सिरे तक योजनाबद्ध रूप से झगड़ों और मारकाट का आयोजन कराया गया| कहीं भीलों द्वारा, कहीं मीणों द्वारा, कहीं जाट-गुजरों द्वारा और कहीं अन्य जातियों द्वारा राजपूतों से लड़ने की चुनौतियाँ दिलाई गयी| उनके द्वारा राजपूत महिलाओं तक अपमानित कराया गया| बुद्धिजीवियों द्वारा आरम्भ किया गया यह घृणित सिलसिला आज भी राजस्थान के गांवों में प्रचलित है,जिसके परिणाम स्वरूप कई निर्दोष व्यक्तियों की हत्याएं होती रहती है| इन हत्याकांडों में गांवों में बसने वाले राजपूत और अन्य निर्दोष लोग ही मारे जाते है| इन हत्याकांडों के मूल और एकमात्र कारण ये बुद्धिजीवी लोग इनसे उत्पन्न राजनैतिक परिस्थिति का सदैव लाभ उठाते रहते है और इस प्रकार अपने नेतागिरी के घिनौने स्वरुप को स्थिर और सुरक्षित बनाये रखते है| पर ईश्वर की कृपा से जहाँ जहाँ भी छोटी-मोटी मुटभेड हुई वहां विरोधी लोग मैदान में ठहर नहीं सके| यदि एक बार भी कहीं राजपूत सामूहिक रूप से मात खा बैठते तो इन लोगों द्वारा उनकी आगे क्या दशा कराई जाती, इसकी कल्पना मात्र से भय उत्पन्न होता है| यह विरोधियों का अत्यंत ही भयंकर परिक्षण और प्रयोग था पर राजपूतों की स्वाभाविक क्षात्र-वृति ने उसे सफल नहीं होने दिया|

क्रमशः.............


Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है| rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat

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