Monday, October 8, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -5

भाग-चार के आगे ....
भारत का चतुर बुद्धिजीवी-वर्ग यह भली भांति जनता था कि विदेशी सत्ता की भारत में उपस्थिति के समय इन देशी राज्यों की समाप्ति की बात से प्रतिकूल परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती थी| अतएव जब तक देश में अंग्रेज सत्ता रही तब तक धूर्त-वर्ग ने भूलकर भी इन राज्यों की समाप्ति की बात मुँह से नहीं निकली| केवल छोटे-मोटे भूमि सुधार और राजाओं की छात्रछाया में उत्तरदायी शासन की स्थापना की घोषणाएं ही होती रही| जब भारत में सर्वप्रथम अंतरिम सरकार बनी और देश की सत्ता कांग्रेस और मुस्लिम लीग के हातों में आई तब अधिकृत और अनधिकृत रूप से इतना ही कहा गया कि केवल विदेश नीति,यातायात और प्रतिरक्षा के मामलों में देशी राज्य भारत सरकार के अधीन रहकर आंतरिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्र रह सकते है| अंग्रेजी सत्ता की समाप्ति के उपरांत भारत के देशी राज्यों की वैधानिक स्तिथि बड़ी ही विचित्र हो गई थी|

राजाओं का संधिनामा अंग्रेजी सम्राट की सरकार के साथ हुआ था न कि उस समय की भारत सरकार के साथ| अतएव अंग्रेजी सत्ता की समाप्ति के कारण देशी राज्य एक प्रकार से स्वतंत्र हो गए थे|वे भारत या पाकिस्तान किसी भी राज्य में सम्मिलित हो सकते थे, अथवा स्वतंत्र इकाइयों के रूप में रह सकते थे| पर देश की राजनैतिक एकता के लिए उन देशी राज्यों का भारत में सम्मिलित होना आवश्यक था| उन राज्यों की भौगोलिक स्थिति, उनके निवासियों की धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओ,भारत-भूमि के साथ राजाओं का रागात्मक सम्बन्ध होने तथा इसी प्रकार के कई अन्य कारणों से सब राजपूत राज्यों के राजाओं ने भारत में सम्मिलित होने की ही घोषणा की|
पकिस्तान देखता ही रह गया मुस्लिम बहुमत-प्रधान काश्मीर के राजपूत नरेश तक ने भारत में सम्मिलित होने की घोषणा की| उस समय भौगोलिक सीमा की सुविधा के अनुसार ये देशी राज्य अपने अपने पृथक स्वतंत्र संघ बना कर स्वतंत्रता की घोषणा कर देते तो भारत की क्या दशा होती? उस समय निजाम की भांति ही कुछ नरेश भी यदि विध्वंसात्मक नीति का अनुसरण करने को तत्पर हो उठाते तो देश के सामने कितनी विकट समस्याएं आ उपस्थित होती?

जब अंग्रेज और मुसलामानों जैसे प्रभावशाली तत्व भारत छोड़ कर चले गए और इन बुद्धिजीवियों के हाथ कुछ सबल हो गए तब यह घोषणा की गई कि छोटी रियासतें आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी नहीं हो सकती,इतएव उनको स्वेच्छा से संघों में पतिवार्तित हो जाना चाहिए| इस घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए साम,दाम,दण्ड,भेद आदि सभी प्रकार की कूटनीति से काम लिया गया| उसी समय कई अदूरदर्शी राजाओं ने दूसरों के हाथ की कठपुतली बन कर नरेन्द्र-मंडल को भंग कर दिया| इस प्रकार राजाओं में परस्पर फूट दाल दी गई|

उस समय इन साहस और नैतिकताहीन,अयोग्य और अल्पदर्शी राजाओं को खिलौना बनाकर मनमाने ढंग से खेलने में बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों ने खूब कौशल और चातुर्य बताया| इसके उपरांत इसी निति को काम लेते हुए,भारत के सभी छोटे-बड़े राज्य समाप्त कर दिए गए| राजाओ की प्रशंसा में किया गया याग प्रचार सर्वथा गलत है कि उन्होंने देश-भक्ति की भावना से प्रेरित होकर अपने राज्यों का विसर्जन स्वीकार किया था| भारत में अपने राज्यों को सम्मानित करने के उनके कार्यों को देश-भक्तिपूर्ण कहा जा सकता है|पर उन राज्यों के सर्वथा विसर्जन के कार्य को किसी भी प्रकार से देश-भक्ति की संज्ञा नहीं दी जा सकती| वस्तुस्थिति भी यही है कि राजाओ को अपने राज्यों के संघो में विलीनीकरण और विसर्जन के सिद्धांत को बाध्य होकर ही स्वीकार करना पड़ा था|

क्रमश: ....


Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है| rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat