राजपूत समाज का गरीब वर्ग कृषि, नौकरी और अन्य पारिश्रमिक कार्यों द्वारा अपना जीवनयापन करता आया है| इसी वर्ग की राजपूत समाज में बहुसंख्य है| यह वर्ग पहले से ही गरीब और अभावग्रस्त था| अतेव उसके पास कोई भी ऐसी वास्तु नहीं थी जो प्रत्यक्ष छीनी जा सके| जागीरी प्रथा के उन्मूलन के कारण अब इस वर्ग को भूमि का पूरा लगान देना पड़ेगा| दूसरी और अशिक्षित और पक्षपात के कारण नौकरिया मिलना वैसे भी बंद हो गया है, अतएव इस वर्ग की आर्थिक दशा भी हीन से हीनतर हुई है| इस प्रकार समस्त राजपूत जाति की आर्थिक दशा बहुत गिर चुकी है |
राज्यों के विसर्जन और जागीरी-प्रथा के उन्मूलन का प्रत्यक्ष प्रभाव राजपूतों के सामजिक ढाँचे पर भी पड़ना आवश्यक है| इससे लगभग सभी सामजिक परम्पराएँ और सांस्कृतिक मान्यताएं समाप्त हो जायेगी| कोई बता सकता है कि जागीरी-उन्मुलानके पश्चात उन निराश्रित विधवाओं की क्या दशा होगी; उन निःसंतान बूढ़े स्त्री-पुरुषों की क्या दशा होगी जिन्होंने अब तक रूढ़ीवश या अन्य कारणों से शारीरिक श्रम बिलकुल नहीं किया है? सिद्धांत इन प्रश्नों के कई उअत्तर हो सकते है पर व्यावहारिक दृष्टि से अनैतिक तथा नीच कर्म अपनाने के अतिरिक्त इन समस्याओं का कोई भी वर्तमान स्तिथि में अन्य समाधान नही है|
इन सब परिवर्तनों का अर्थ सभी वर्गों को आर्थिक उन्नति का सामान अवसर और अधिकार देना कदापि नै,पर इन सब परिवर्तनों का प्रत्यक्षत; एक ही अर्थ है और वह यह है कि वैधानिक और क़ानूनी तरीकों की आड़ लेकर राजपूतों को किस प्रकार अधिक से अधिक निराश्रित और आर्थिक दृष्टि से पंगु बनाया जाय| राजपूतों से संबंध रखने वाली प्रत्येक समस्या का समाधान नकारात्मक रूप से खोजा जाता रहा है| राजस्थान में “राजपूतों को अधिक से अधिक हानि कैसे पहुंचाई जाय” सिद्धांत-वाक्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक कार्य किया जा रहा है|
इन राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तनों का राजपूतों के विभिन्न वर्गों में विभिन्न परिणाम होंगे| अमीर वर्ग में कुसंस्कारों तथा शहरी जीवन के कारण भीषण अनैतिकता का प्रचार होगा| अपनी व्यवसायिक पृथकता तथा पारिवारिक भ्रष्टाचार के कारण इस वर्ग के कई परिवार कालांतर में गांवों में बसने वाले विशुद्ध राजपूत परिवारों से पृथक होकर एक नए वर्णसंकर वर्ग को जन्म देंगे| कह नहीं सकते कि कालांतर में यह वर्ग राजपूत होकर जाति से कितना दूर जाकर गिरेगा| इसी प्रकार अति निम्न-वर्ग भी अपने पैतृक स्थानों को छोड़कर जीविकोपार्जन के साधनों की खोज में इधर उधर बिखर कर तथा देश के अन्य श्रमिक-वर्ग के साथ मिलकर शेष राजपूत समाज से पृथक हो जायेगा| कुछ लोग व्यापारी बन जायेंगे, कुछ जरायम पेशा और कुछ कलाल-कसाई आदि नीच कर्म-कर्ता| धंधों और व्यवसायों के आधार पर ही पारस्परिक वैवाहिक संबंध आदि होंगे| इस प्रकार आज की यह राजपूत जाति व्यवसायों के आधार पर इन वर्गों के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक उद्देश्य और कार्यक्रम होंगे और उन्हीं उद्देश्यों और कार्यक्रमों की समानता के आधार पर देश के अन्य वर्गों के साथ उनका भाग्य जुड़ जायेगा| राजपूत समाज व्यवस्था की यह भावी पर वास्तविक कल्पना कितनी भयावह है|
Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है|
rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat
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