Saturday, September 21, 2013

राजपूत और भविष्य : वास्तविक नेतृत्व - भाग-3

भाग दो से आगे ...........

योग्य कार्यकर्ताओं और साथियों का चुनाव करते समय नेता को एक बात से सदैव सतर्क रहना चाहिए । बहुत से अवसरवादी और स्वार्थी तत्व जन-सेवा का व्रत लेकर कार्य-क्षेत्र में उतर पड़ते हैं । जब तक उनका किसी भी प्रकार से स्वार्थ-सिद्ध होता रहता है तब तक वे लगन-पूर्वक कार्य करते रहते हैं पर ज्योहीं समाज के साथ विश्वासघात कर व्यक्तिगत स्वार्थ-सिद्धि का कोई अवसर आता है त्योहीं ऐसे तत्व पंचमार्गी बन कर समाज की पीठ में छुरा भोंकने का कार्य करते हैं अथवा अवसर से भयभीत होकर सामाजिक क्षेत्र से एकदम पृथक और उदासीन हो जाते हैं । अपनी इस पृथकता और उदासीनता के लिए वे कोई सैद्धांतिक अथवा व्यवहारिक बहाना ढूंढ निकालते हैं । यह वास्तव में ही उनके अंतःकरण की ही कोई कमजोरी होती है जो उन्हें सामाजिक क्षेत्र से हटा कर कुतर्क का सहारा लेने के लिए विवश करती है । राजपूत समाज में ऐसी घटनाओं की निरंतर पुनरावृत्ति होने के कारण ही ईमानदार और सच्चे कार्यकर्ताओं को भी संदेह की दृष्टी से देखा जा सकता है । इन परिस्थितियों में सच्चे कार्यकर्ताओं को भी समाज का विश्वास संचय करने में काफी समय लग जाता है और आवश्यक कार्यों अनावश्यक रूप से रुकावट और देरी होती है । इस प्रकार के छद्मवेशी, स्वार्थी और पंचमार्गी तत्व किसी भी सांस्कारिक और व्यवस्थित प्रणाली में तो नहीं पनप सकते, पर जहाँ नेतृत्व 'बड़े लोगों' के हाथ में रहता हैं वहाँ इस प्रकार के तत्त्वों के उत्पन्न और पोषित होने की बड़ी संभावना रहती है । इन बड़े कहे जाने वाले नेताओं में एक मनोवैज्ञानिक कमजोरी होती है । वे अधिकांशतः चापलूसी और स्व-स्तुति पसंद करने वाले होते हैं । अवसरवादियों की ऐसे नेताओं के सामने दाल गल जाति है और वे उनकी इसी एक कमजोरी का अनुचित लाभ उठा कर उनके कृपा और विश्वासपात्र बन जाते हैं । उचित समय आने पर ऐसे ही लोग नेता और समाज दोनों को धोखा देकर स्वार्थ-सिद्ध कर लेते हैं । अतएव मनुष्य की पहचान करने का नेता में स्वाभाविक गुण होना चाहिए ।

अब तक राजपूत समाज का नेतृत्व ऐसे व्यक्तियों के हाथों में रहा है जिनके लिए दूसरे की आँखे देखने का, दूसरे के कान सुनने का, दूसरे का मस्तिष्क सोचने का और दूसरों के हाथ-पैर आवश्यकताओं की पूर्ति का काम करते रहे हैं । यही कारण था कि राजपूत जाति का अब तक का नेतृत्व एक प्रदर्शन और तमाशा की वस्तु मात्र बना हुआ था । पर अब समय आ गया है कि नेता को स्वयं को प्रत्येक दृष्टि से स्वावलंबी, पूर्ण और समर्थ होने की आवश्यकता है ।

अब तक राजपूत जाति के सामने वार्षिक अधिवेशन करने, स्वामिभक्ति के प्रस्ताव पास करने, किसी विद्वान् द्वारा कर्ताव्याकर्तव्य पर भाषण दिलाने और अपने निहित स्वार्थों की रक्षा के लिए कानूनी सलाहकारों की नियुक्ति करने के अतिरिक्त और कोई कार्यक्रम शेष नहीं रहा है । पर अब राजपूत जाति को एक निश्चित ध्येय की पूर्ति के लिए अविरल संघर्ष में उतरना है । उसे अब एक मायावी, धूर्त और बलिष्ठ प्रतिद्वन्दी का सामना करना है, अतएव राजपूत जाति का नेतृत्व बहुत ही दृढ़ और कर्मठ हाथों में होना चाहिए । भयंकर तूफ़ान में फंसी हुई उस नाव के दुर्भाग्य की कल्पना सरलता से की जा सकती है, जिसका नाविक स्वयं ही अयोग्य और परिस्थितियों के समक्ष पराजय स्वीकार कर आत्मघात करने पर उतारू हो गया हो । आज राजपूत जाति के नेतृत्व की ठीक ऐसी ही दशा हो रही है । आज की इन परिस्थितियों में राजपूत जाति का नेतृत्व करना कोई हंसी-खेल नहीं है । एक पतनोन्मुखी जाति में नव-जीवन, नव-स्फुरण, नवोन्मेष और नव-जागृती उत्पन्न कर, उसे राष्ट्र और शेष समाज के जीवन के लिए उपयोगी अंग बनाना तथा अनेकों भीषण और अनेकों प्रतिकूल परिस्थितियों के होते हुए उसे उद्देश्य तक पहुँचाना किसी भी साधारण योग्यता वाले व्यक्ति की बात नहीं है । आज भी राजपूत उस चंचल और बलिष्ठ पर उस अनाड़ी अश्व के सामान है जिस पर कोई भी नेता रुपी सवार अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकता । यही कारण है कि समाज में प्रतिवर्ष नए नेताओं के दर्शन होते हैं । समाज में उसी का नेतृत्व चिरस्थायी रह सकता है जिसे समाज की आवश्यकताओं, परिस्थितियों, वास्तविकताओं, शक्ति आदि का प्रथम श्रेणी का ज्ञान हो तथा जिसमे समाज के स्वाभाविक, त्यागमय, कर्ममय और ज्ञानमय संस्कारों को पहिचानने की शक्ति हो । उसे समाज-मनोविज्ञान का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है । साथ के साथ उसमें इतनी क्षमता भी हो कि वह प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति में समाज के नैतिक, राजनैतिक, और आर्थिक संतुलन को स्थिर रखता हुआ उसका अपने लक्ष्य के प्रति मार्ग-दर्शन कर सके । अब हवाई किले बनाने का समय नहीं रहा है ।

जिस प्रकार योग्य सेनापति में एक योग्य सिपाही के गुण स्वतः अन्तर्निहित रहते हैं उसी प्रकार एक नेता में भी एक योग्य कार्यकर्ता के गुण स्वतः होने चाहिए। एक योग्य कार्यकर्ता का प्रथम गुण ध्येयनिष्ठा है। विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं के इस युग में, जहाँ करोड़ों रूपये प्रतिवर्ष उन विचारधाराओं के प्रचार में खर्च किये जाते हैं, अपने ध्येय के प्रति निष्ठावान और सच्चा रहना किसी सुसंस्कृत और परिपक्व विचारवान व्यक्ति का ही कार्य हो सकता है। अपने ध्येय के प्रति दृढ़ निष्ठा नहीं होती वे सदैव समझौतावादी और अवसरवादी सिद्ध होते हैं । अपने ध्येय के प्रति दृढ़, अटूट और अखंड निश्चय लेकर चलने वाले नेता से टकरा कर विरोधी शक्तियां उसी भाँती नष्ट हो जाति है जिस प्रकार समुद्र से टकरा कर समुद्र की फेनिल लहरें। विरोधी परिस्थितियाँ, प्रतिकूल वातावरण, भय, दबाव, प्रलोभन, स्तुति आदि यदि किसी भी नेता को अपने निश्चय से चलायमान कर दें तो वह व्यक्ति नेता तो क्या साधारण कार्यकर्ता बनने की योग्यता भी नहीं रखता है। जिस प्रकार अनेक चकाचौन्ध करने वाले ग्रहों और नक्षत्रों के रहते हुए भी कुतबुनुमा की सुई केवल क्षीण प्रकाशित ध्रुवतारे की और ही आकर्षित रहती है, उसी प्रकार विशालता, सुन्दरता, उच्चता और तात्कालिक सफलता को लिए हुए कई अन्य आदर्शों के होते हुए भी नेता को केवल अपने ही ध्येय पर दृढ़ रहना चाहिए। जो स्वयं दृढ़ नहीं, वह अपने अनुयायी समाज में दृढ़ता उत्पन्न कर ही नहीं सकता। अपने ध्येय के प्रति निष्ठावान और दृढ़ता के अतिरिक्त एक योग्य नेता में समाज के प्रति पीड़ा और स्वाभिमान होना आवश्यक है। सात्विक क्रोध, अनुशासनप्रियता, सामाजिक दृष्टिकोण, निरंतर क्रियाशीलता, संघर्षाप्रियता, वचनों की दृढ़ता, त्याग, ईमानदारी, क्षमा, दया, उदारता, विनय, आदि गुण प्रत्येक राजपूत के स्वाभाविक गुण हैं । इन गुणों का एक नेता में होना विशेष रूप से आवश्यक है।

क्रमशः....

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