Wednesday, October 30, 2013

परिचय - ४ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

भाग -३ से आगे...
संसार की अन्य किसी भी जाति की भांति आज हमें भी अपनी संस्कृति, विश्वासों और परम्परा सहित जीवित रहने का पूर्ण अधिकार है| हमें भी इस विशिष्टता की रक्षा के लिए स्वभाग्य-निर्णय करने और स्वभाग्य-निर्णय करने के लिए संघर्ष करने का नैतिक, वैधानिक और सामाजिक अधिकार है| स्वभाग्य-निर्णय की हमारी यह धारणा पूर्ण रूप से न्याय-संगत, औचित्यसंगत और युक्ति-युक्त है| इस बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा हमारी जो अधोगति अब तक की जा चुकी है उसका दिग्दर्शन इसी पुस्तक में आगे चल कर कराया जायेगा| यहाँ तो केवल इतना समझना होगा कि आत्म-रक्षा की हमारी इस भावना और चेष्टा को किसी भी अवस्था में शिथिल न होने दिया जाये; स्वभाव-निर्णय करने के हमारे इस न्यायसिद्ध अधिकार को कभी भी आँखों से ओझल न होने दिया जाये तथा एक जाति और राष्ट्र के रूप में उठने और आत्म-निर्णय करने के हमारे अधिकार को दी जाने वाली प्रत्येक चुनौती का दृढ़तापूर्वक मुकाबला किया जाये|

एक और हमारे सामने ऐतिहासिक अवशेषों, साहित्य, कला, संस्कृति आदि के रूप में प्रेरणादायक कर्तव्य याद दिलाने और हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराने वाली अत्यंत ही प्रभावशाली जीवित सामग्री अतुल मात्रा में विद्यमान है और दूसरी और जब हम अपनी वर्तमान रहन-सहन, मनोदशा आदि को देखते है तब पैरों के नीचे से भूमि खिसक जाती है| और आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है|

राजपूत जाति अब तक मार्ग-दर्शन के लिए राजा-महाराजाओं के मुंह की और ताकती आ रही है| ये राजा-महाराजा ही हमारे वंशानुगत नेता रहे है| वे ही हमारी राजनैतिक चेतना और क्रियाशीलता का अब तक मेरुदंड रहते आये है| मुझे इन्हीं राजाओं में से बहुतसों से सम्पर्क में आने का अवसर मिला है| राजस्थान के एक अति प्रतिष्ठित राजंश.....साहब के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ| वे गौशाला खोलकर दूध बेचने की योजना बना रहे थे; एक अन्य महाराजा भेड़ पालने के उपयुक्त स्थलों की खोज में थे; एक और महाराजा देश के समाचार-पत्रों को पढ़कर पंचवर्षीय योजना में खोये हुए थे; एक विदेश-भ्रमण के लिए साज-सज्जा तैयार कर रहे थे तथा हाड़ौती के एक महाराजा मेरे जैसे व्यक्ति के मिलने में अदृश्य भय और आशंकाओं से प्रकंपित थे| इन हमारे जन्म-जात और वंशानुगत नेताओं से मिलने के उपरांत मुझे यह चौपाई स्मरण हो आई,-

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी|

यहाँ पर प्रभु-मूर्ति देखने का तो प्रश्न नहीं है पर स्वयं की मूर्ति देखने का प्रश्न है| जिसकी जैसी भावना होती है और उसी प्रकार वह व्यक्ति कर्म करता है| जो जैसा कर्म करता है वैसा बनता भी है| दूध बेचकर ग्वाला का धन्धा करने वाले, भेड़ पालकर गडरिया की दक्षता प्राप्त करने वाले, प्रचार के सस्ते साधनों से प्रभावित होकर अपने सिद्धांत बनाने वाले, वर्ष के अधिकांश समय विदेशी-भ्रमण करने वाले और आस-पास के पवन की खड़बड़ाहट मात्र से डर और दुबक कर महलों में बंद रहने वाले राजा-महाराजाओं से क्या आशा की जाये कि वे क्षत्रियोचित ढंग से जीवन व्यतीत करने की क्षमता रखते है, तथा हमें राजनैतिक नेतृत्व प्रदान करने की योग्यता व हिम्मत रखते है| जिनके वंशों से दूसरों को प्रेरणा मिलती आई है स्वयं आज बिना किसी प्रेरणा के अंधकार में भटक रहे है|प्रेरणा की समस्त सामग्री विद्यमान होते हुए भी आज राजाओं का सा जीवन व्यतीत न करके ग्वाला और व्यवसायी बनाना चाहते है| अपने वास्तविक कर्तव्य और राज्य-लक्ष्मी को भूलकर अन्य प्रकार से प्रसाधनों को अपनाकर निम्न जीवन व्यतीत करने के लिए तत्पर हो उठाना, पतन और पराजय को मन, वचन और कर्म से स्वीकार करना है|

राजा-महाराजाओं से भी हीनतर दशा अमीर और बड़े जागीरदारों की है| उनमें से कुछ बिल्कुल विरक्त होकर, पतन और पराजय को कर्म-सन्यास के रूप में स्वीकार कर अपने जीवन की घड़ियाँ व्यतीत कर रहे है| जागीरों की समाप्ति से जहाँ उन्हें प्रतिशोधात्मक प्रेरणा मिलनी चाहिये थी वहां उसकी समस्त क्रियाशीलता ही समाप्त हो गई| दुसरे प्रकार के अमीर जागीरदार अपने अपने व्यवसायों में लगे हुए है| दुर्लभता और सौभाग्य से प्राप्त क्षति-पूर्ति रुपयों को गिन-गिनकर देख लेने मात्र से आत्म-संतुष्टि कर अधिक कमाने की चिंता में निमग्न है| शहरों के निवास और अपनी व्यावसयिक पृथकता के कारण उनके घर अनैतिकता के अड्डे बनते जा रहे है| एक तीसरे प्रकार का अमीरों का गुट विरोधियों के समक्ष आत्म-समर्पण कर उन्हें जी-जान से प्रसन्न करने में लगा हुआ है| वह उनकी शक्ति को बढ़ाकर आत्म-घाती नीति को अपना चुका है| अनैतिकता और आत्म-पतन की चरम सीमा पर पहुंचा हुआ यह अमीर वर्ग धीरे-धीरे शेष राजपूत समाज से पृथक होकर किसी नवीन वर्णसंकर जाति को जन्म देगा| गरीब राजपूत अपने पेट की ज्वाला शांत करने में लगे हुए है| उनका भी नैतिक पतन कम नहीं हुआ है| उनमें से कई परिवार शनै: शनै: जरायम-पेशा कौमों में परिवर्तित हो रहे है| राजपूत समाज का शिक्षित वर्ग सबसे अधिक निष्क्रिय, स्वार्थी और साहस-विहीन है| उनकी शिक्षा पर किया व्यय और श्रम व्यर्थ ही गया| वह शिक्षा, शिक्षा ही नही जो मनुष्य को भीरु, स्वार्थी और निष्क्रिय बना कर जातीय-गौरव और स्वाभिमान से वंचित कर दे|

इस प्रकार आज सम्पूर्ण राजपूत जाति उद्देश्यविहीन होकर जर्जर और खोखली बन चुकी है| पराजित मनोवृति, निराशा और निरुत्साह दिनोंदिन बढ़ते जा रहे है| प्रेरणा के इतने प्रभावशाली उपकरण होते हुए और एक महान जाति की सम्पूर्ण विशेषताओं के रहते हुए भी आज राजनैतिक-चेतना और कर्तव्य-ज्ञान लेशमात्र भी नहीं है| राजपूत जाति के इस निष्क्रियपूर्ण मौन का एक मात्र कारण यही है कि हम अपने स्वाभाविक कर्तव्य को भूल चुके है| ऐतिहासिक स्थलों के भ्रमण से जो महत्त्वकांक्षा उत्पन्न हुई है, युद्ध-स्थलों से जो संदेश प्राप्त हुए है, साहित्य ने जो अनुभूति प्रदान की है, इतिहास ने जो कर्तव्य-शिक्षा दी है और कला-कौशल और संस्कृति ने जिस सत्य का उदघाटन किया है उन्हीं के आधार पर मैंने यह पुस्तक लिखी है- इसलिए कि इसके द्वारा राजपूत जाति को अपने कर्तव्य, स्थिति और स्वरूप का वास्तविक ज्ञान कराया जाये|

आयुवान सिंह शेखावत

परिचय - ३ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

भाग-२ से आगे....
विराट पुरुष के अपने विराट स्वरूप की अभिव्यक्ति जिस कौशल-वैचित्र्य और चतुराई के साथ भारतवर्ष में की है, वह अद्वितीय है| यहाँ का विविध-रूपा प्राकृतिक सौन्दर्य परमोत्कृष्ट है| इसी भांति मनुष्य ने भी भारतवर्ष में अपने सूक्ष्म-सौन्दर्यमय जीवन की विभिन्न कलाओं के रूप में जो अभिव्यक्ति की है, वह भी अद्वितीय और परमोत्कृष्ट है| यहाँ पर जीवन के प्रत्येक सूक्ष्म और सुन्दर व्यापार को कला के रूप में ग्रहण किया गया है| इसीलिए यहाँ पर कलाओं की संख्या चौसठ तक पहुँच गई है|

इन कलाओं का विकास विभिन्न जातियों और व्यक्तियों द्वारा अवश्य हुआ है पर इनकी रक्षा एक मात्र क्षत्रियों द्वारा ही हुई है| सब प्रकार के कलाकार और कलावंत राज-दरबार में ही आश्रय ग्रहण करते थे| राज्याश्र्यों में फलिफूली ये ही विभिन्न कलाएँ हिन्दू सभ्यता का उच्च स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत करती है| क्षत्रिय स्वयं कलाकार, कलावंत, कलाओं के पारखी और प्रोत्साहन देने वाले होते थे| मैं यदि यह दावा करूँ कि संसार की कोई एक जाति इतनी कलामर्मज्ञ और कला-प्रिय नहीं रही है जितनी कि क्षत्रिय जाति रही है तो अत्युक्ति नहीं होगी|

यही नहीं, ललित कला के रूप में पुकारी जाने वाली कलाओं पर तो राजपूत जाति की विशिष्ट छाप है| इस्लामी प्रभुत्त्व के पूर्व भारतवर्ष में कला के क्षेत्र में भारतीयता थी| यही भारतीयता क्षत्रिय अथवा राजपूत कला थी और यही राजपूत कला हिन्दू-कला थी| इस्लाम के आगमन के उपरांत फारस और अन्य इस्लामी देशों की कलाओं और कलाओं के प्रति उनकी मान्यताओं और आदर्शों का यहाँ जब आगमन और मौलिकता को अक्षुष्ण रखने के लिए अपना जो पृथक स्वरूप स्थिर रखा, उनका वही पृथक स्वरूप आज भी राजपूत-कला के नाम से विख्यात है| उस समय राजपूतों ने भारतीय कला की आत्मा और शरीर को विशुद्ध, मौलिक और सुरक्षित रखा| इतना ही नहीं, उन्होंने उस समय कला के नये स्वरूपों और उसकी शैलियों का भी अविष्कार किया| जीवन की परिवर्तन और बढती हुई आवश्यकताओं और मान्यताओं के अनुसार कला को नवीन सांचे में ढाला और उसे नवीन रूप प्रदान किया| इस प्रकार राजपूतों ने न केवल इस्लाम और अन्य विदेशी आक्रान्ताओं की विध्यवंसात्मक आंधी से भारतीय कला को सुरक्षित ही रखा, अपितु उन्होंने स्वयं ने नवीन कला को जन्म दिया; उसके नवीन स्वरूपों की उदभावना की तथा समय और परिस्थिति के अनुसार उसका विकास और वर्धन किया| स्थापत्य और शिल्प कला में राजपूत-रूचि ने एक विशेष प्रकार की शैली का रूप धारण कर लिया, जो आज भी भारत के एक कोने से दुसरे कोने तक फैले हुए मंदिरों, दुर्गों और भवनों की बनावट की विशिष्टता और सूक्ष्मता के रूप में देखी जा सकती है| मूर्ति-कला का स्वर्ण युग भारत में बौद्ध-काल था| उसके उपरांत विकसित होने वाली मूर्ति-कला पर एक मात्र राजपूतों की रूचि, मान्यता और संस्कृति की छाप है| इस्लामी प्रभुत्त्व की युवावस्था तक आते आते तो उच्च कोटि की मूर्तियों का निर्माण एक मात्र राजस्थान तक ही सीमित रह गया था| चित्रकला में तो राजपूत शैली विश्व-विख्यात है ही| प्राचीन भित्ति-चित्र कला को न केवल राजपूतों ने सुरक्षित ही रखा है, अपितु उसमें मौलिक और सुन्दर कल्पनाओं का समावेश कर नव-जीवन और नव-स्वरूप भी दिया है| वर्तमान चित्रकला के अध्ययन में राजपूत-शैली अपना विशेष महत्त्व रखती है| इसी भांति प्राचीन भारतीय नृत्य और संगीत न केवल राजपूतों का आश्रय पाकर सुरक्षित ही रहा है, अपितु वह उनके द्वारा और भी अधिक सुन्दर और विकसित हुआ है| भारतीय नृत्य कला में राजपूत-नृत्य एक विशिष्ट और मौलिक शैली है| इसी भांति राग-रागनियाँ, वादन और गायन आदि संगीत के सभी क्षेत्रों में राजपूत-रूचि अपना विशिष्ट स्थान रखती है| काव्य को यदि हम कला के रूप में ग्रहण करें तो भी और उसे कला के रूप में ग्रहण न करें तो भी प्रत्येक दशा में वह राजपूतों का चिर ऋणी है| अन्य भारतीय साहित्य और काव्य भी इतनी प्रचुर मात्रा में है कि उसका कोई एक व्यक्ति अपने जीवन-काल में अध्ययन भी नहीं कर सकता| जिस कला का राजपूतों द्वारा संरक्षण, उदभव और विकास हुआ, वह स्वरूप मौलिकता, प्रभाव आदि गुणों में सर्वांग सुन्दर और स्वस्थ है| संसार के किसी भी सभ्यतम देश की कलाओं से उसकी तुलना की जा सकती है| वह अति सभ्य और सुसंस्कृत जाति और समाज की अभिव्यक्ति करने में आज पूर्ण समर्थ और सबल है|

मैं फिर उसी प्रश्न को दोहराता हूँ कि क्या किसी राजपूत ने आज तक इन विभिन्न कलाओं के रूप में फैली और बिखरी हुई राजपूत जाति की महानता को देखा और समझा ही नहीं है ? यदि किसी ने देखा है तो उसके हृदय में इस महान जाति की महानता के प्रति श्रद्धा और उसके पतन के प्रति विक्षोभ क्यों नहीं उत्पन्न हुआ ? ये कलाएँ हमें अपनी महानता और सजीवता का स्मरण दिलाती है| ये हमें भविष्य में महानता से च्युत होकर क्षुद्रत्व सहित जीवन यापन करने की प्रेरणा नहीं देती है वरन एक सबल और महान जाति के रूप में अपने गौरव को सुरक्षित रखते हुए जीवित रहने का हमसे आग्रह करती है| इन कलाओं का दिग्दर्शन कर लेने के उपरान्त हमारी एक सबल जाति के रूप में जीवित रहने की लालसा और बढ़ जाती है| हम अब किसी भी दशा में महानता से पतित होकर नीच और क्षुद्र जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार नहीं हो सकते| हमें इन कलाओं का आग्रह स्वीकार करना ही है; यही हमारा अंतिम और एकमात्र निर्णय होगा|

अब हमें संस्कृति के आधार पर राजपूत जाति के स्थान को ढूँढना होगा| शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार भूषण-भूत सम्यक कृति अथवा चेष्टा ही संस्कृति कही जा सकती है| दुसरे शब्दों में मनुष्य के लौकिक-पारलौकिक सर्वाभ्युदय के अनुकूल आचार-विचार ही संस्कृति है| हिन्दुओं के इसी लौकिक-पारलौकिक सर्वाभ्युदय का आधार वर्णाश्रम-व्यवस्था है| अतएव वर्णाश्रम धर्म के अनुसार क्षत्रिय आचार-विचार ही क्षात्र-धर्म और उसकी चेष्टाएँ क्षत्रिय अथवा राजपूत संस्कृति है| इस प्रकार महान और व्यापक हिन्दू संस्कृति के अंतर्गत राजपूतों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है| यह विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कलाकौशल, विशिष्ट राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं के कारण और भी सबल और पुष्ट बनी है| जिस समय आज की अन्य सभ्य जातियों में सामाजिकता की भावना केवल बीज रूप में ही उदय हुई थी, उस समय क्षत्रिय सुव्यवस्थित और सुन्दरतम शासन-प्रणाली को कार्यन्वित कर चुके थे| राजधर्म और शासन-व्यवस्था के उन मूलभूत और सर्वमान्य सिद्धांतों से वे उस समय परिचित थे जिस समय आज की अन्य जातियां केवल छोटे-छोटे झुंडों में रहना तक नहीं सीख पाई थी| सत्ता के विकेंद्रीकरण और व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ने पृथक्करण की उपादेयता के व्यावहारिक सिद्धांतों से वे दस हजार वर्ष या उससे भी कहीं पहले परिचित हो चुके थे| संसार की अन्य जातियों की राज-व्यवस्था और शासन-प्रणाली की भांति क्षत्रियों की अपनी राज्य-व्यवस्था और शासन-प्रणाली है और अब तक संसार की सभी राज्य-व्यवस्थाओं और शासन-प्रणालियों से क्षत्रियों की राज्य-व्यवस्था सर्वाधिक सफल, सुदीर्घ और स्थाई सिद्ध हुई है| क्षत्रिय एक प्रकार की शासन-व्यवस्था का प्रतिनिधित्त्व करते है जिसका गत ढाई तीन हजार वर्ष से लगातार पतन हो रहा है और आज यह पतितावस्था में भी नव-निर्मित और नव-स्वीकृत संसार की सभी राज्य-व्यवस्थाओं से किसी दशा में गिरी हुई नहीं कही जा सकती| क्षत्रियों की शासन-व्यवस्था पर मैंने इसी पुस्तक में अन्यत्र विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है| यहाँ तो केवल मात्र इतना ही बताना शक्य है कि क्षत्रिय एक ऐसी जाति है जिसकी स्वयं की राज-नियम, राज्य-विधान और शासन-प्रणाली है तथा ये राज-नियम, राज्य-विधान और शासन-प्रणाली सभ्य संसार के इतिहास में सबसे अधिक समय तक प्रचलित रही तथा सबसे अधिक कल्याणकारी और सफल सिद्ध हुई|

इसी भांति राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक संगठन के प्रति राजपूतों का अपने दृष्टिकोण को सम्यक प्रकार से समझ कर क्रियान्वित करने के उपरांत देश में गरीबी, भुखमरी और पूंजी-जनित व्याधियां उत्पन्न हो ही नहीं सकती| इस विषय पर भी मैंने इसी पुस्तक में अन्यत्र प्रकाश डाला है, अतएव यहाँ विस्तृत रूप से लिखने की आवश्यकता नहीं है|

इसी प्रकार इतने लंबे समय में जहाँ राजपूतों ने एक और भारतीय संस्कृति की रक्षा की वहां दूसरी और उन्होंने अपनी स्वयं की विशिष्ट संस्कृति का भी निर्माण किया| यह विशिष्ट राजपूत संस्कृति आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है| आज राजपूत संस्कृति नाम की एक पृथक और स्वतंत्र वस्तु बन चुकी है| राजपूतों का लौकिक और पारलोकिक अभ्युदय अथवा कल्याण के प्रति अपना स्वयं का दृष्टिकोण है और वह दृष्टिकोण अत्यंत ही व्यावहारिक तथा सर्वांग सुन्दर तथा पूर्ण परीक्षित है| इस विशिष्ट संस्कृति की विशिष्टता और महानता पर भी इस पुस्तक में अन्यत्र विचार किया जायेगा; यहाँ तो केवल इतना ही प्रतिपादित करना है कि राजपूत एक ऐसी जाति है, जिसकी स्वयं की एक पूर्ण विकसित और स्वतंत्र संस्कृति है| इस राजपूत संस्कृति को साहित्य, भाषा, इतिहास की त्यागमयी परम्पराओं, कला-कौशल, राज्य-व्यवस्था, रहन-सहन आदि के रूप में बनाने में कितना अधिक समय लगा है? इसके बनाने और रक्षित करने में अब तक कितना अधिक मूल्य चुकाना पड़ा है ? इस समस्त समय, परिश्रम और बलिदानी को सही रूप में नापने का आज हमारे पास कोई यंत्र नहीं है| और इस समस्त त्याग, परिश्रम और बलिदान के उपरांत जो संस्कृति निर्मित हुई है, वह कितनी महान उज्जवल और गौरवमयी है| उसे देखकर हमारा मस्तक लज्जा से झुक नहीं जाता है वरन गर्व से ऊपर उठता है| तब क्या परमोज्ज्वल संस्कृति को नष्ट होने दिया जाये ? यदि नहीं, तो उसकी रक्षा के लिए हमने अब तक क्या किया ? अज्ञान, स्वार्थ, कायरता और निर्बलता के कारण आज हम स्वयं इस संस्कृति को नष्ट होने में योग दे रहे है| हृदय पर हाथ रखकर पूछिये अपनी आत्मा से कि मेरे इस कथन में वास्तविकता है अथवा नहीं ?

विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कला, विशिष्ट रहन-सहन, रीति-रिवाज, विशिष्ट राजनैतिक, सामाजिक आर्थिक और पारिवारिक योजना, विशिष्ट जीवन-दर्शन, विशिष्ट पारलौकिक अभ्युदय की मान्यता, विशिष्ट संस्कृति और विशिष्ट आदर्श मान्यताएं और परम्परा होने के कारण राजपूत न एक वर्ग है, न एक वर्ण है और न एक समुदाय अथवा मत ही है, वरन यह एक पूर्ण विकसित जाति है और जाति से भी बढ़कर एक पूर्ण विकसित राष्ट्र है| अतएव राजपूतों को भविष्य में एक जाति और राष्ट्र के रूप में जीवित रहने और आगे बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिये| तथा उन्हें अपने राष्ट्रीय जीवन, भाषा, साहित्य, इतिहास, संस्कृति आदि की रक्षा और वृद्धि में किसी भी बात की कमी नहीं रखनी चाहिये| और आज जब भारत के बुद्धिजीवियों द्वारा नियंत्रित और प्रभावित यह जनतंत्र अथवा बहुमतवाद हमारे प्रति आततायी होकर हमें समाप्त करने में पूर्ण-रूपेण सचेष्ट है, तब हमें आत्म-रक्षा के रूप में अपनी इस विशिष्टता को और भी दृढ़ता और आग्रहपूर्वक बनाये रखना चाहिये|

क्रमश:...

परिचय - २ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

भाग -१ से आगे........
इतिहास का विद्यार्थी होने के कारण यह मेरा रुचिकर विषय रहा है| साहित्य की भांति ऐतिहासिक सामग्री भी किसी जाति के जीवन का मूल्यांकन करने के लिए पूर्ण समर्थ और सबल कसौटी है| पाश्चात्य विद्वानों ने इतिहास का जिस प्रकार आदि-युग, पाषाण-युग, धातु-युग आदि के रूप में काल-विभाजन किया है, वह भारतीय इतिहास पर पूर्णरूपेण लागू नहीं हो सकता| यह काल-विभाजन विकासोन्मुखी पश्चिमी सभ्यता पर पूर्ण घटित होता है, जो यह मान कर चलती है कि उनके आदि पूर्वज असभ्य और पशुवत जीवन व्यतीत करते थे और अब वे क्रमिक रूप से सभ्यता की और बढ़ रहे है| वे बंदरों से मनुष्य हुए है और हम देवताओं से मनुष्य हुए है| हमारा आदि युग किसी पाषाण और असभ्य युग का बोध न करा कर हमें सत-युग का बोध कराता है जिसमें मनुष्य को पूर्ण बनाने वाला मानव-अस्तित्त्व का परम आभूषण धर्म अपने चारों चरणों सहित विद्यमान था| देवत्त्व से पतित और रूपांतरित होकर मनुष्यत्त्व प्राप्त करने के कारण हम आज ह्रासोन्मुख सभ्यता का प्रतिनिधित्त्व करते है| यही कारण है कि हमें पूर्वजों पर अधिक गर्व है और हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विगत संस्कृति से प्रेरणा ग्रहण करते है| देवत्त्व से च्युत होने के कारण पुन: देवत्त्व की प्राप्ति का निर्दिष्ट लक्ष्य हमारे सामने है| हमारे समस्त आचार-विचार मनुष्यत्व से देवत्व और अपूर्णता से पूर्णता की और ले जाने वाले होते है; पर पाश्चात्य संसार के सामने पूर्णता का ऐसा कोई आदर्श नहीं है| यही कारण है कि वे अपने भावी लक्ष्य के प्रति अस्पष्ट और अनिश्चित है| वे अपने असभ्य पूर्वजों पर शर्मिंदा है और गत असभ्य युग की और प्रेरणा के लिए न देखकर सदैव भविष्य की और ताकते रहते है| पर भविष्य की कोई निश्चित, स्पष्ट और पूर्ण रुपरेखा उनके सामने न होने के कारण वे नाना प्रकार के प्रयोगवादों में ही फंसे रहते है| पाश्चात्य रंग में रंगे हुए आज के अधिकांश भारतीय बुद्धिजीवी भी अपने पूर्वजों पर शर्मिंदा, प्राचीन संस्कृति से खिन्न और रुष्ट है| और इसीलिए वे स्वयं आज प्राचीन संस्कृति को समाप्त कर, किसी नये युग का प्रवर्तन कर, भावी संतानों द्वारा युग-प्रवर्तक और आदर्श महापुरुष के रूप में पूजित होना चाहते है|

सतयुग का इतिहास हमें वैदिक वांगमय के रूप में देखने को मिलता है| वैदिक और उत्तर वैदिक साहित्य में तत्कालीन जीवन-दर्शन, समाज-व्यवस्था आदि का सांगोपांग चित्रण मिल जाता है| त्रेता और द्वापर युगों के इतिहास से तो समस्त पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है| रामायण और महाभारत उसी इतिहास के दो अमूल्य ग्रंथ है| महाभारत-काल के पूर्व का हजारों वर्षों का इतिहास ब्राह्मणमय और राजनैतिक और सामाजिक इतिहास क्षत्रियमय है| महाभारत काल के पश्चात् का लगभग डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास भारतीय इतिहास की दृष्टि से अंधकार का युग कहा जा सकता है| पर यह बताने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है कि उस समय समस्त भारत और आस-पास के प्रदेशों पर क्षत्रियों का सार्वभौम प्रभुत्त्व था| मौर्यकाल से भारत का तिथिवार-क्रम-बद्ध इतिहास उपलब्ध है| मौर्यकाल से लगा कर इस्लाम के आक्रमण तक भारत वर्ष की क्षत्रिय जाति सार्वभौम प्रभुत्त्व-संपन्न जाति रही| ऐतिहासिक घटनावली का दिग्दर्शन मैंने आगे के अध्याय में करा दिया है अतएव यहाँ विस्तृत रूप से लिखने की आवश्यकता नहीं है|

इस्लामी प्रभुत्त्व के समय में भी जौहर और शाका करके जीवित रहने वाली, मर-मर कर पुनर्जीवित होने वाली क्षत्रिय जाति का इतिहास हिन्दू भारत का इतिहास था| संसार के प्राचीनतम सभ्य देश भारत के इतिहास में से क्षत्रिय इतिहास निकालने के उपरांत शेष कुछ भी नहीं बचता है|

इस समस्त इतिहास को पढ़ लेने के उपरांत मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि इस संसार में क्षत्रिय जाति के अतिरिक्त कदाचित ही कोई जीवित जाति होगी जिसके इतिहास की इतनी सुदीर्घ परम्परा हो| जिस जाति का इतना उज्जवल दीर्घ और गौरवमय इतिहास हो वह भावी इतिहास बनाने में इतनी तटस्थ, निर्लिप्त और उदासीन कैसे रह सकती है| मैं पुन: वही प्रश्न करता हूँ कि क्या किसी राजपूत ने अभी तक भारतीय इतिहास की इस गौरवमयी श्रंखला का अध्ययन किया ही नहीं है ? यदि किसी ने इस गौरवमय इतिहास का सम्यक रूप से अध्ययन किया है तो उसके हृदय को अशांत और विक्षुब्ध कर मथ देने वाली पीड़ा का अभी तक उदय क्यों नहीं हुआ ? इतिहास विदेशियों के लिए घटनाओं की जानकारी के लिए लिखे जातें है पर स्वजनों के लिए वे प्रेरणा और आदर्श ग्रहण करने के लिए होते है| जिन जातियों का कोई इतिहास उपलब्ध नहीं, उन जातियों का यदि जीवन अस्त-व्यस्त, लक्ष्य-भ्रष्ट और उनकी प्रगति की रुपरेखा अनिश्चित, अस्पष्ट और परमुखापेक्षी हो तो यह समझ में आने वाला तथ्य है| पर जिस जाति के पास धरोहर के रूप में इतना स्फूर्तिमय और गौरवशाली इतिहास हो, वह अपना कर्तव्य निश्चित नहीं कर सकती, यह महान आश्चर्य की बात है| आज राजपूतों को कर्तव्य-ज्ञान कराने की क्या आवश्यकता है ? उन्हें तो केवलमात्र सम्यक रूप से इतिहास का ज्ञान करा देना चाहिये|

मैंने इतिहास को इसी प्रकार कर्तव्य-पुस्तक के रूप में पढ़ा है| उसकी तिथियों, घटनावली और तथ्यों का ज्ञान हमारे लिए विशेष उपादेय नहीं है| हमें तो उससे प्रेरणा ग्रहण कर राष्ट्र के भावी इतिहास-निर्माण में सक्रीय भाग लेना है| इतिहास की इस प्रचुर सामग्री को देख कर मैं यह विश्वास करने के लिए कभी बाध्य नहीं हो सकता कि हजारों वर्षों से गौरवशाली इतिहास का निर्माण करने वाली यह राजपूत जाति पददलित और पतित होकर समाप्त हो जायेगी| मैं यह कैसे स्वीकार करूँ कि अनुपम वीरता, अतुल पराक्रम, अद्वितीय साहस, महान त्याग और बलिदान की यह परम पवित्र पयस्विनी परम्परा इस युग में विलुप्त होकर सदैव के लिए अन्तर्धान हो जायेगी! नहीं, हम कदापि समाप्त नहीं होंगे; समाप्त हो नहीं सकते, संसार की कोई शक्तिशाली अथवा धूर्त शक्ति हमें मिटा नहीं सकती| इसी विगत इतिहास के मूलभूत सिद्धांतों की पुनरावृति कर, गौरव से जय-घोष करने के लिए हमें दृढ़तापूर्वक तैयार हो जाना होगा| पूर्वजों के हजारों वर्षों के अथक परिश्रम और बलिदान को व्यर्थ जाने देना आज के इस युग की सबसे बड़ी कायरता और निर्लज्जता होगी और इसीलिए विघटन करने वाली विरोधी शक्तियों को रोने दो; चिल्लाने दो; उनके विरोध को धैर्य, साहस, दृढ़ता और निर्दयतापूर्वक कुचलते हुए आगे बढ़ जाओ| हमने जीवन के किस अंग पर अपनी अमिट छाप नहीं छोड़ी है? मनुष्य जब अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की प्रिप्ती और पूर्ति के उपरांत जीवन के जिस सूक्ष्म स्वरूप की रुपरेखा बनाता है, वही सौन्दर्य की सृष्टि का सत्यमय व्यापार है| स्थूल आवश्यकताओं से छुटकारा पाकर वह जीवन के सूक्ष्म और सुन्दर उपकरणों को जुटाता है; जीवन की अभिव्यक्ति सत्यं, शिवं और सुन्दरम के रूप में करना चाहता है| मनुष्य की यही सृजनात्मक प्रक्रिया उसे पशुत्त्व से मनुष्यत्त्व प्रदान करती है| मानव-जीवन की यही सृजनात्मक और उल्लासपूर्ण अभिव्यक्ति विभिन्न कलाओं के रूप में प्रस्फुटित होकर इस विराट संसार की अभिव्यक्ति के साथ एकाकार हो जाती है| और यह वास्तव में उचित भी है; क्योंकि मनुष्य उसी महान कलाकार का इस संसार में प्रतिनिधित्त्व करता है| उस महान कलाकार की अभिव्यक्ति और मनुष्य की अभिव्यक्ति वास्तव में एक ही अभिव्यक्ति के दो भिन्न-भिन्न रचनात्मक पहलू है| मानव द्वारा सृजित कलाओं का यही विविध रूप उसकी सभ्यता और प्रगति की स्थिति और स्वरूप को सही रूप से नापने और तौलने का एकमात्र यंत्र है|

क्रमश:....

परिचय -१ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

पिछले भाग से आगे......
विश्व साहित्य के आदि काव्य-ग्रंथ बाल्मीकि रामायण को दो बार पढ़ डाला| तुलना के लिए साथ में करोड़ों हिन्दुओं के परम श्रद्धेय ग्रंथ तुलसीकृत रामायण को भी पढ़ गया| राम-राज्य के आदर्श से अचम्भित हो उठा और गौरव से मस्तक उन्नत हो गया| कितनी सुन्दर समाज-व्यवस्था, कितनी आदर्श परिवार-व्यवस्था, कितनी निष्कपट राज्य-व्यवस्था, कितनी कल्याणकारी अर्थ-व्यवस्था और इन सब व्यवस्थाओं को नियंत्रण में रखने वाली कितनी उच्च और महान धर्म-व्यवस्था थी ? आज भी भारत उन्हीं व्यवस्थाओं से गर्व कर सकता है|

और ये व्यवस्थाएं मेरे पूर्वजों द्वारा निर्मित, रक्षित और संचालित थी| मैं आज पुरुषोतम भगवान् राम की देह और परम्परा का प्रतिनिधित्त्व करता हूँ| ओह ! मैं कितना अभागा, मूढ़मति और अल्पदर्शी हूँ कि इस प्रकार की सर्वंगीण सुन्दर परम्परा के प्रतिनिधित्त्व का दम भरने वाला होकर भी आज के इन विदेशी, विजातीय, अल्पजीवी और अपूर्ण वादों के फंदे में फंस गया| मेरी आत्मा व्यग्रतापूर्वक किसी की खोज कर रही थी; वह मुझे अनायास ही रामायण में मिल गया, इच्छित फल की प्राप्ति से पूर्ण सुख मिला|

इसके उपरांत विश्व-साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत को भी दो बार पढ़ डाला| भारतीय साहित्य में महाभारत एक अथाह सागर के समान गहराई और विशालयुक्त ग्रंथ है, जिसमें जितनी डुबकियाँ लगाईं जाये उतने ही अनुपम रत्न प्राप्त होते है| इसी महाभारत रूपी महासागर में गीता जैसा अमूल्य रत्न भी है जिसका मूल्यांकन न कोई संसार का जौहरी अब तक कर सका है और न ही कर सकता है|

इसी महाभारत में मेरे उन पूर्वजों की गौरव-गाथाओं और महिमा का वर्णन है जिन्होंने विश्वविजय किया था, जो इस भूखंड के चक्रवर्ती सम्राट थे और उसी वंश के दीपक की लौ होते हुए आज............?

महाभारत का युद्ध भाइयों-भाइयों का साधारण गृह-युद्ध नहीं था, वह धर्म और अधर्म का युद्ध था---क्षात्र-धर्म के औचित्य और स्वरूप को स्थिर करने का उदाहरण था| यदि दुर्योधन पांडवों को पांच गांव भी दे देता तो वह नर संहार नहीं होता| वे पांच गांव पाण्डवों को कितने प्रिय थे ? उनपर उनका पैतृक अधिकार था; वे उनकी परम्परागत संपत्ति थी| पैतृक अधिकारों की रक्षा ही स्वधर्म की रक्षा है; पैतृक अधिकार ही जन्म सिद्ध अधिकार है| इन्हीं जन्म-सिद्ध अधिकारों की रक्षा और स्वाभाविक कर्तव्य-पूर्ति में कोई तात्विक अंतर नहीं होता है| इसी कर्तव्य-पूर्ति के लिए मर मिटने से स्वर्ग अनायास ही प्राप्त हो जाता है| पैतृक अधिकारों के लिए संघर्ष धर्म युद्ध का ही एक स्वरूप है और इसी धर्म-युद्ध का अवसर क्षत्रिय को दुर्लभता से प्राप्त होता है| इन्हीं पैतृक और परम्परागत अधिकारों की रक्षा के लिए महाभारत का धर्म-युद्ध लड़ा गया जिसमें अट्ठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हो गया, पर किसी ने भी धर्मराज युधिष्टर को पापी नहीं कहा| वास्तव में उनका पक्ष धर्म, न्याय, सत्य और औचित्य का ही था| और आज हमारे पैतृक और परम्परागत अधिकारों की क्या दशा है ? महाभारत की कहानी पढ़ी बहुतों ने है पर उससे सीखा कदाचित किसी ने कुछ भी नहीं|

महाभारत पढ़ लेने के उपरांत कोटि-कोटि हिन्दुओं के परम श्रद्धेय धर्म-ग्रन्थ श्रीमदभागवत को पढने की इच्छा प्रबल हुई| भगवत में गूढ़तम आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धांतों को कितनी सरलता और वैज्ञानिकतापूर्वक जीवन के उदाहरणों द्वारा समझाया गया है| भागवत की कथाओं ने मुझे नवीन रूप से प्रेरणा दी| मेरे पूर्वजों को धर्म और दर्शन के अमूर्त सिद्धांतों को व्यावहारिक जीवन में ढाल कर मूर्त स्वरूप देने का कितना अधिक श्रेय है; यह सत्य इस ग्रन्थ को पढ़ लेने के उपरांत ही ज्ञात हुआ| परब्रह्म परमात्मा के रूप में जिस भागवत कृष्ण की भक्ति का भागवत में प्रतिपादन किया गया है, वे सौलह कला अवतार, दुष्ट-विनाशक भगवान् कृष्ण हमारे ही तो पूर्वज थे और आज हम उनकी संतानें दाने दाने को.............|

दो तीन पुराणों को पढ़ा| उनको पढ़ लेने के उपरांत एक ही धारणा की पुष्टि हुई कि मैं जिस परम्परा का, रक्त, जन्म और संस्कारों से प्रतिनिधित्त्व करता हूँ वह अतीव आदर्शवान, उच्च, निर्भीक और अद्वितीय है;- वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्य, धूर्तता और उत्पीड़न के सामने झुकना और नतमस्तक होना जानती ही नहीं है| वह पराजय और पतन को विजय और उल्लास में बदलना तो जानती है पर उन्हें मन-वचन और कर्म से स्वीकार करना जानती ही नहीं है|

रघुवंशी राजाओं के गौरव की अमर गाथा और उज्जवल महिमा का वर्णन मैंने “रघुवंश” में पढ़ा| स्वाभिमान के अलौकिक आनंद से देह और आत्मा पुलकित हो उठी| वे परम यशस्वी रघुवंशी सम्राट मेरे पूर्वज थे| उनके गौरव और बड़प्पन की तुलना संसार में किससे की जा सकती है ? इसी महिमामय, गौरवमय और निष्कलंक वंश की उज्जवल कीर्ति का वर्णन करने में सरस्वती-पुत्र, कवि-कुल-कलम दिवाकर, कवि शिरोमणि महाकवि कालिदास ने अपनी भावुकता, काव्य-मर्मज्ञता, कला-परिश्रम, शक्ति और वाणी की परम सार्थकता समझी| यदि मैं “रघुवंश” नहीं पढता तो जान ही नहीं सकता था कि मेरी वंश-परम्परा कितनी महान, उज्जवल और देदीप्यमान है|

उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य के कुछ और भी ग्रंथ पढ़े| उन सब में एक ही ध्वनी प्रतिध्वनित हो रही थी कि इस भू-मंडल पर मेरे पूर्वजों का चरित्र और व्यक्तित्त्व श्रेष्ठतम था| मुझे अनुभव हुआ, मैं उन श्रेष्ठतम महापुरुषों की निष्कृठतम संतान आज भारस्वरूप होकर दीनतापूर्वक क्षुद्र जीवनयापन कर रहा हूँ|

प्राकृत (पाली) और अपभ्रंश भाषाओँ और अमूल्य भाषाओँ का साहित्य पढने का अधिक सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है| इन भाषाओँ में भी अथाह और अमूल्य साहित्य भरा पड़ा है| इन भाषाओँ का लगभग सभी उपलब्ध साहित्य बौद्ध और जैन धर्मावलम्बियों द्वारा सृजित और निर्मित है| अनुमान लगा सकता है कि इस साहित्य का वर्ण्य-विषय मुख्य रूप से मेरे ही पूर्वजों का चरित्र था| इसके नायक, पात्र, दृष्टान्त और उदाहरण सब वे ही थे| कारण कि जिस महान मानवी, बौद्ध और जैन मतों का प्रवर्तन इस संसार में कर्म-शुद्धि और अहिंसा का पाठ पढ़ाने के लिए हुआ था, वह क्षत्रिय-पुत्र भगवान् बुद्ध और महावीर द्वारा ही हुआ था| क्षत्रिय-परम्परा को बौद्ध और जैन-परम्परा के प्रति सदैव उदार और हितैषी रहना चाहिये तथा बौद्ध और जैन-परम्परा को सदैव क्षत्रिय-परम्परा के प्रति श्रद्धालु, नमनशील और कृतज्ञ रहना चाहिये|

हिंदी के आदि काव्य-ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो की प्रत्येक घटना राजपूत चरित्र से सम्बंधित है ही, इस पर अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं| इसके उपरांत हिंदी साहित्य के लगभग सभी महा-काव्यों, खंड-काव्यों और मुक्तक-काव्यों का मैंने अनुशीलन कर डाला| गध्य साहित्य के सभी प्रचलित स्वरूपों को पढ़ डाला| कुछ गुजराती और बंगला से हिंदी में अनुदित ग्रंथ भी पढ़े| हिंदी साहित्य में कल तक महाकाव्यों का धीरोदात नायक क्षत्रियों के अतिरिक्त और कोई हो नहीं सकता था| किसी भी महाकाव्य के नायक में जो शास्त्रीय विशेषताएँ होनी चाहिये, वे सब केवल क्षत्रिय नायक में ही मिल सकती है| वीरगाथा-काल, सगुण भक्ति-काल और रीति-काल का प्रधान नायक किसी एकाध अपवाद को छोड़कर क्षत्रिय के अतिरिक्त और कोई नहीं है| आधुनिक काल में भी कई महाकाव्यों और खण्डकाव्यों के नायक क्षत्रिय ही है| पाश्चात्य शैली औरविचारधारा के आगमन के फलस्वरूप अब जाकर कहीं साहित्य में काल्पनिक और सामान्य नायकों का आयोजन होने लगा है| इस प्रकार क्षत्रिय-चरित्र से साहित्य, जीवन ग्रहण करते आया है; क्षत्रिय जीवन से वह प्रेरणा लेता आया है और क्षत्रिय-परम्परा की वह मुक्तकंठ से प्रशंसा करते और महिमा गाते हुए आया है| मेरे पूर्वजों के निर्मल और अलौकिक चरित्र का गान करके कितने ही काव्य-प्रेमी महाकवि बन गए है| राष्ट्रकवि मैथिलिशरण गुप्त के शब्दों में-

राम, तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है,
कोई कवि बन जाय, सहज सम्भाव्य है|


भगवान् राम के आदर्श चरित्र का जिन्होंने जिस भाषा में, वर्णन कर दिया वे सभी संसार-साहित्य के उच्च कोटि के महाकवियों की श्रेणी में आ गए|

और यदि हम आदि-काल के पिंगल और तत्पश्चात पिंगल-मिश्रित काव्य का रसास्वादन करें तो उसमें जिस रोज और चमत्कारपूर्ण ढंग से क्षत्रिय-महिमा का वर्णन किया है,- वह किसी भी मरणासन्न, मृत-प्राय जाति को जीवनदान देने में पूर्ण समर्थ है| डिंगल काव्य और राजस्थानी साहित्य का एक एक अक्षर राजपूत शौर्य, तेज, वीरत्त्व, उदारता और बड़प्पन की महिमा गा-गा कर स्वयं-सार्थक और चमत्कृत हो उठा है| यदि डिंगल काव्य और राजस्थानी साहित्य को हम अपनी जातिगत निधि मानकर श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करें तो भी उसके महत्त्व की स्वीकृति पूर्ण रूप से नहीं हो सकती|

इस वसुंधरा के वक्षस्थल पर क्षत्रिय जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति विद्यमान न होगी, जिसके पीछे इतना साहित्य-बल हो; इतनी साहित्यिक प्रेरणा हो और जिसकी गौरव-गरिमा का वर्णन इतने व्यापक विशुद्ध, अटूट और प्रभावपूर्ण ढंग से हुआ हो| साहित्य का एक वाक्य, काव्य का एक शब्द राष्ट्रों का भाग्य-निर्माण और उनकी कायापलट करने में समर्थ हो सकता है| डिंगल काव्य के एक एक छोटे से दोहे ने अनेक बार ऐतिहासिक प्रवाह को बलपूर्वक मोड़कर दूसरी दिशा में बहा दिया; डूबती हुई गौरव की नाव को किनारे लगा दिया; सम्मान और कुल-गौरव की रक्षा के लिए वीरांगनाओं को अग्नि-स्नान और वीरों को धारा-तीर्थ में स्नान कर दिया| प्रेरणा, जीवन, आदर्श और पूर्णता का कितना अखंड, अक्षय, निरंतर और मधुर स्रोत हमारे घर में ही प्रवाहित हो रहा है| कितने सुविशाल, सुदीर्घ, सबल, गौरवशाली और व्यापक साहित्य देवता का वरद हस्त हमारी पीठ पर है|

मैं यह स्वीकार करने के लिए कभी तैयार नहीं कि जिस जाति के पास इतनी अमूल्य और अटूट साहित्यिक निधि हो वह स्वयं अपना महत्वांकन नहीं कर सकती| मैं कभी भी विश्वास नहीं कर सकती कि इतनी तीव्र साहित्यिक प्रेरणा होते हुए, किसी भी जाति का पतन भी हो सकता है और यदि क्षणिक पतन हो भी जाता है तो वह तत्काल ही उठ नहीं सकती| हमें अंतिम रूप से निश्चित करना होगा कि हम पतन और पराजय की इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकते; अपमानित और दीन बनकर जीवित नहीं रह सकते| इस साहित्य का अनुशीलन कर लेने के उपरांत कोई पतन, पराजय और दासता का अपमान सहते हुए जीवित भी रह सकता है? यह कल्पनातीत है और इसीलिये मेरा दृढ़ विश्वास है कि या तो राजपूत जाति को गौरवपूर्ण ढंग से जुंझते हुए सदैव के लिए समाप्त होना होगा या उसे पुन: उठ कर एक बार और विजय-श्री का मंगलमय उदघोष करना पड़ेगा; तीसरा विकल्प हमारे सामने है ही नहीं| क्या अब किसी राजपूत ने इस साहित्य को पढ़ा ही नहीं ? इस साहित्य ने मेरे मानस-प्रदेश पर एक विचित्र प्रकार की हलचल मचादी है| मैं चाहता हूँ कि प्रत्येक क्षत्रिय का मानस-प्रदेश इसी प्रकार की हलचल का केंद्र बन जाय|

क्रमश:.....

परिचय : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

बसंत ऋतू के उद्दीपक वातावरण से पुलकित होकर एक दिन मैं ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण करने निकला पड़ा| भग्नावशेष के रूप में विद्यमान कुछ अति प्राचीन दुर्गों को देखा; कुछ मध्यकालीन दुर्गों में घूमा और उत्तर मध्यकालीन दुर्गों के ऐतिहासिक भवनों का भी ह्रदय में प्रवाहित भावनाओं के चतुर्मुखी बवंडर की उपेक्षा करते हुए निरिक्षण किया| दो चार से अधिक युद्ध-स्थलों का भ्रमण नहीं कर सका|

दिल्ली के पाण्डवों के किले ने मूक भाषा में न मालूम मुझसे कितने प्रश्न पुछ डाले| पर मैं उनमें से एक का भी उत्तर नहीं दे सका| उस दुर्ग के संस्थापक विश्व-विजयी पाण्डवों की स्थिति और अपनी स्थिति के अंतर को ढूंढता हुआ वहां से निकल पड़ा| वीर-शिरोमणि पृथ्वीराज का किला मुझे देखकर क्रुद्ध हो उठा; उसकी झुलसाने वाली उच्छवासों को मैंने अनुभव किया| उसमें मैं घूमा अवश्य पर किसी आल्हादपूर्ण प्रसन्नता के साथ नहीं, हृदय में बैठी लज्जा के द्रवित होकर पिघलने की क्रिया को अनुभव करते और उस हल्की-हल्की उष्णता से तपते हुए| एक समय का भारत का भाग्य-विधायक तारागढ़ विवशता-पूर्ण मौन धारण किये हुए दिखाई पड़ा| पर उसके निश्चल और वक्राकार शरीर की कुंठित आत्मा में बैठे मौन-संदेश को मैंने पढ़ और समझ लिया| मैंने हृदय का समस्त साहस बटोर कर वीरों के परम पवित्र तीर्थ-स्थान चितौड़गढ़ में प्रवेश किया;- सोचा था, दो-चार दिन तक इसी में ठहरूंगा पर वहां एक क्षण भी नहीं ठहर सका| उसका क्रोधपूर्ण अट्ठाहस हृदय को दहलाने वाला था| उसके अंतर्पदेश में आज भी जौहराग्नि धधक रही है| वह पीड़ित, घायल, उपेक्षित अपमानित और श्री-विहीन होते हुए भी अन्याय, अत्याचार, अधर्म और परतंत्रता का मुकाबिला करने में मुझे पहले जितना ही समर्थ लगा|| मेरी निर्बल, पतित, भीरु और अज्ञानी आत्मा में इतना साहस कहाँ था कि उसके उपालम्भों का उत्तर दे सकता; उलटे मुंह लौट जाना पड़ा;- एक भी बात उसकी सुनी और समझी नहीं| रणतभंवर में मुझे पग-पग पर महाप्रलय से टक्कर लेने वाले हठी हमीर की पवित्र आत्मा के दर्शन हुए| हमीर का हठ राजपूत-गौरवाकाश का उज्ज्वलतम नक्षत्र है| इस गौरव का श्रेय हठी हम्मीर को दे अथवा सुदृढ़ रणतभंवर दुर्ग को ? मेरी सम्मति में इस गौरव का श्रेय हठी हम्मीर को ही देना उचित होगा| क्योंकि-

पतली भींत किलैह, मांयज सांवत सूरमा|
भेली नांह भिलैह, रावत उभां राजिया||
जाड़ी किले सफील, मांयज नर निबला हुवै|
ढूंढो ढहता ढील, रती न लागै रजिया||


शूरवीरों द्वारा रक्षित निर्बल दुर्ग भी अजेय होता है पर निर्बल रक्षकों द्वारा रक्षित सुदृढ़ दुर्ग भी सरलता से ढह जाता है| ऊँटाला दुर्ग और कुम्भलगढ़ को दूर से देखकर ही प्रणाम कर लिया| उन्हें अपना निर्लज्ज, गौरव-रहित और अयोग्य मुंह दिखलाने का साहस नहीं बटोर सका| उलाउद्दीन की सेना के छक्के छुडाने वाले जालौर दुर्ग में प्रवेश कर विरमदेव सोनगरा की गौरवगाथा के चिंतन में निमग्न था कि मरुधराधीश मानसिंह जी का दृढ़ निश्चय सुनाई पड़ा-

आभ फटै धरा उल्टै, कटै बकतरां कौर|
सिर टूटै धड़ तड़फडै, जद छूटै जालौर ||


यह अमर आन और स्वाभिमान का मन्त्र आज भी कानों में गूंज रहा है| भारत के उत्तरी-पश्चिमी द्वार के रक्षक जैसलमेर दुर्ग को सूर्यास्त की मरणासन्न किरणों के काले प्रकाश में देखा| श्री-हीन वैधव्य की भांति एक उदासीन परत उस पर छा रही थी, जिसके नीचे गौरव और कीर्ति निरंतर दबे से जा रहे थे| जोधपुर दुर्ग, बीकानेर दुर्ग, आमेर दुर्ग, अलवर दुर्ग, बूंदी दुर्ग और राजस्थान के इन विगत गौरव के स्मृतिचिन्हों के अनेक रूपों को देखकर मैं लज्जा से सिहर उठा, विवशता से रो उठा, दीनता पर क्रोधित और निर्बलता पर झुंझला पड़ा|

मैंने सोचा, कीर्ति के इन भग्नावशेषों, गौरव के इन स्मृति चिन्हों, राज्य-वैभव के इन साकार प्रतीकों, सम्मान और स्वाभिमान के खुले अध्यायों और कर्तव्य-पालन की इन प्रभावशाली कहानियों को क्या अब तक किसी राजपूत ने देखा ही नहीं है, सुना ही नहीं है, समझा ही नहीं है, इन पर चिंतन और मनन किया ही नहीं है ? कदाचित देखा सभी ने है पर सुना नहीं, सुना अवश्य है पर समझा नहीं, और यदि किसी ने इन्हें समझा भी है तो इन पर चिंतन और मनन नहीं किया है| इन्हें देखने के लिए आँखों, सुनने के लिए जिन कानों, समझने के लिए जिस हृदय और चिंतन-मनन के लिए जिस मस्तिष्क की आवश्यकता होती है, कदाचित ये सब हम लोगों के पास नहीं है| यदि यह बात नहीं होती तो प्रेरणा के इन साक्षात् और साकार स्वरूपों के होते हुए भी हम आज इस प्रकार से अपमानित, श्री-हीन, दीन और कायरपूर्ण संतोषी बनकर नहीं रह सकते थे ? कभी भी शांत न होने वाली हृदय की वेदना से अब तक हमें चीत्कार उठाना था; अमर और कर्णभेदी चीख से पृथ्वी आकाश को गुंजायमान कर देना था; समस्त प्राणियों में कोलाहल उत्पन्न कर देना था| अमर काव्य के मूर्तिमान स्वरूप इन कीर्ति स्थलों की शक्ति की गहराई अथाह है| इस शक्ति का एक अणु-मात्र भी लेकर हम शक्तिमान बन सकते है| इस शक्ति से सशक्त होकर अब तक हमने विजय-घोष क्यों नहीं किया; उदबोधन का महाशंख क्यों नहीं बजाया; कर्म-क्षेत्र को रौंद क्यों नहीं डाला ? इन्हें देखकर हमारे में प्रबल महत्वाकांक्षा का उदय क्यों नहीं हुआ ? क्या हमारे पूर्वजों ने अपने रक्त से मिट्टी को सान कर इसका निर्माण नहीं किया था; क्या उन्होंने अपने सर्वस्व की आहुति देकर इनके सुरक्षा यज्ञों का आयोजन नहीं किया था और क्या उन्होंने स्वप्न में भी कभी यह सोचा था कि हम उनकी आज की अकूत और अयोग्य संताने परम पवित्र उनके स्मृति-चिन्हों से कुछ भी प्रेरणा ग्रहण न करके केवल विदेशी दर्शकों की भांति इन्हें तटस्थ और निर्लिप्त भाव से देखती मात्र रहेगी ?

इन ऐतिहासिक खंडहरों के निर्माण-काल का अनुमान लगाने वालों की आज कमी नहीं है; इनकी सुदृढ़ता, स्थापत्य और शिल्प-कला का बखान करने वाले दिनों दिन बढ़ते जा रहे है, इनके अन्दर घटित ऐतिहासिक घटनावली को भी क्रम-बद्ध रूप से लिपिबद्ध किया जा सकता है पर इनसे सामाजिक महत्वाकांक्षा की प्रेरणा ग्रहण कर और उज्जवल जीवन और अमर-मृत्यु का पाठ दोहरा कर विगत गौरव की पुन:स्थापना करने वालों की आज नितांत आवश्यकता है|

मुझे इन्हीं ऐतिहासिक स्थलों से कुछ महत्वाकांक्षा प्राप्त हुई है| वह महत्वाकांक्षा क्या है, थोड़ी देर पश्चात् बताऊंगा| “धर्म-क्षेत्र”, कुरु-क्षेत्र की पुण्यमयी धूलि को मस्तक पर चढाने का अभी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है| राजस्थान से बाहर के अन्य युद्ध-स्थल भी अभी तक नहीं देख पाया हूँ| कन्हवा के युद्ध-स्थल का भी केवल मानचित्र ही देखा है| भारत की थर्मापल्ली हल्दीघाटी की चप्पा चप्पा भूमि देख आया हूँ| अन्य युद्ध स्थल भी कुछ देखें है; कुछ नहीं, पर उन सबको देखकर क्या करूँगा ? मैं सर्वज्ञ तो नहीं पर उनके संदेश को तो यहाँ बैठा-बैठा ही सुना सकता हूँ| वे सब एक ही भाषा में बोलेंगे, एक ही भाव होगा और एकसी उनकी हमारी निर्बलता और विवशता पर प्रतिक्रिया| लो, यहाँ बैठे ही मैं आपको बता दूँ- उनका संदेश होगा|

“हमारे वक्ष स्थलों पर धर्म युद्ध में परिणाम की चिंता किये बिना प्राण-विसर्जन करने वाले वीरों की संताने होकर तुम कायरता को क्यों हृदय से लगाये बैठे हो ? उठो, स्वाभिमान से जीवन व्यतीत करो और समय आने पर वीरोचित ढंग से मृत्यु का आव्हान करो !” पर प्रश्न यह है, - क्या हम उनसे शिक्षा ग्रहण करते है ? क्या कभी हम मनन करते है कि इस पुण्य भूमि भारत की चप्पा चप्पा भूमि को रक्त से सानने वाले हमारे पूर्वजों के चरित्र की विशेषताएँ क्या थी ? इन युद्ध-स्थलों में वे क्यों लड़े, कटे और मरे थे ? इन प्रश्नों पर यदि हम गंभीरता-पूर्वक किंचित मात्र भी मनन करते तो कायरता के इस बाने को अभी तक फेंक देते और पग-पग पर धर्म-युद्ध का दुर्लभ समय उपस्थित देखकर भी उससे विमुख न होते| मैं इन्हीं युद्ध-स्थलों से प्राप्त संदेश का आभास-मात्र आपको दिखलाने का प्रयत्न करूँगा|

ऐतिहासिक स्थलों के भ्रमण के उपरांत हृदय के आशान्त सागर में निरुद्देश्य होकर कल्पना के डांड थपथपाने लगा| भावोन्मेश द्वारा उत्तेजित अवश्य हुआ पर इस प्रकार की मानसिक उत्तेजना किसी निश्चित शांति-सामग्री के अभाव में स्वत: शांत न होकर विचार-विकृति का रूप धारण कर लेती है| मैंने इसी शांति-सामग्री की प्राप्ति के लिए साहित्य का अनुशीलन आरम्भ किया| देव-वाणी संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण उसके हिंदी रूपान्तरों से ही संतोष कर लेना पड़ा|

क्रमश:.....

प्रस्तावना : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

इस पुस्तक का उद्देश्य राजपूत जाती और उसके द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए एक महान और उज्जवल भविष्य का निर्माण करना है | इस महँ भविष्य की अधर -शिला अतीत और वर्तमान काल का ऐतिहासिक घटना -क्रम रखा गया है | अतीत और वर्तमान काल की सामाजिक मनोवृत्ति , ऐतिहासिक घटनावली और उनके स्वाभाविक वकास-क्रम का सम्यक रूप से दिग्दर्शन कर लेने के उपरांत ही भावी कार्यक्रम की रुपरेखा तयार की जा सकती है | इस लिए अद्याय १,२,३ और ४ में अतीत और वर्तमान की इस विषय से सम्बंधित घटनावली का दर्शन कराया गया है |अध्याय ५ और ६ में वह कच्ची सामग्री है जिसके आधार पर भावी महल का निर्माण होना है | अध्याय ९ में उस आदर्श नेतृत्व के गुणों और विशेषताओं पर विचार किया गया है जिसके द्वारा महान भविष्य का निर्माण संभव है ,तथा अध्याय १० में मार्ग में आने वाली कठिनाइयों और विरोध का महत्वांकन किया गया है | अध्याय ११ और १२ में ध्याय को प्राप्त करने के लिए कुछ रचनात्मक पहलूवों और प्रणाली पर विचार किया गया है |इस प्रकार पुस्तक की समस्त सामग्री इसके वर्ण्य -विषय _ अध्याय ७ और ८ ) के चरों ओर चक्कर कटती हुई किसी न किसी रो में उसी विषय की ओर उन्मुख हुई है |

अध्याय ७ और ८ में राजपूत जाती के कर्तव्य का शास्त्रीय ,राजनैतिक ,आर्थिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक दिर्स्तिकों से विवेचन किया गया है |किसी भी जाती के पतन के मूल कारन अपने स्वाभाविक कर्त्तव्य की विश्मृति के रूप में ही देखा जा सकता है | मनुष्य का यही स्वाभाविक कर्तव्य उसका धर्म है |महाभारतकार के सब्दों में -

"धर्म एव हटो हन्ति ,धर्मों रक्षति रक्षितः |
तस्माद्धर्म नाट्य जामि,माँ नो धर्मों हतोव्वाधित ||"


(धर्म ही आहात (परित्यक्त ) होने पर मनुष्य को मरता है और वही रक्षित (पालित ) होने पर रक्षा करता है , अतः मैं ,धर्म का त्याग नहीं करता -इस भय से कही मर (त्यागा हुआ ) हुआ धर्म ,हमारा ही वध न कर डाले |

पिछले सैकड़ों वर्षों से राजपूत जाती के साथ भी ऐसा ही हो रहा है |एक पतोंमुखी जाती को उसके सामाजिक कर्त्तव्य और उसकी सामाजिक उपयोगिता का ज्ञान कराना उत्थान की पहली शर्त है |स्वधर्म -पालन ही हमारा स्वाभाविक कर्तव्य हो सकता है | यही स्वधर्म क्षत्रियों के लिए क्षत्र -धर्म है और इसी क्षत्र -धर्म का पालन करना हमारा सामाजिक कर्त्तव्य है |इसी सामाजिक कर्तव्य की पूर्ति के अंतर्गत सामाजिक ध्याय की प्राप्ति निहित है |

ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली परिवर्तनकारी चेष्टाओं का नाम ही क्रांति है| राजनैतिक ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली राजनैतिक चेष्टाएँ राजनैतिक क्रांति और सामाजिक ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली परिवर्तनकारी चेष्टाएँ सामाजिक क्रांति कहलाती है| क्षात्र-धर्म एक राजनैतिक ध्येय है और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भी| राजनैतिक ध्येय की प्राप्ति के लिए राजनैतिक क्रांति आवश्यक है, राजनैतिक क्रांति तक पहुंचना और समाज को उसके लिए तैयार करना सरल कार्य नहीं है| राजनैतिक क्रांति के पूर्व, सामाजिक-क्रांति आवश्यक है और सामाजिक-क्रांति के भी पूर्व विचार-क्रांति आवश्यक है, अतएव विचार-क्रांति का प्रथम सोपान है| जो व्यक्ति इन दोनों अवस्थाओं को पार किये बिना ही राजनैतिक-क्रांति का प्रयास करते है, उन्की असफलता निश्चित समझनी चाहिये|

सामाजिक-ध्येय की प्राप्ति के पूर्व सामाजिक को अनुकूल सांचे में ढालना आवश्यक है| सामाजिक जीवन को नये सांचे में ढालने का तात्पर्य है पुराने संस्कारों की भूमिका पर नये सामाजिक संस्कारों का निर्माण करना| नये सामाजिक संस्कारों के निर्माण के पूर्व सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है| दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया का नाम ही विचार अथवा दार्शनिक क्रांति है| अतएव किसी भी प्रकार की सामाजिक-क्रांति का आव्हान करने के पूर्व हमें अपने दृष्टिकोण को सब दिशाओं से हटा कर केवल एक ही केंद्र की और लगा देना चाहिये और वह केंद्र है हमारा ध्येय| राजनैतिक ध्येय के रूप में क्षात्र-धर्म का पालन करने के सिद्धांत को प्रभावशाली और व्यावहारिक बनाने के लिए राज्य-सत्ता की प्राप्ति आवश्यक है| सबसे पहले राज्य-सत्ता की प्राप्ति के लिए जो कार्य करना है वह है केवल राजपूत जाति के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना| प्रत्येक राजपूत को प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक कार्य करते समय केवलमात्र यही ध्यान में रखना है कि शासन करना हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है और इसीलिए हमें प्रत्येक संभव वैध उपाय द्वारा राज्य सत्ता पर अधिपत्य करना है| इस प्रकार के दृष्टिकोण के निर्माण की प्रक्रिया का नाम ही विचार-क्रांति है| कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस दिन सम्पूर्ण जाति की विचारधारा में इस प्रकार का महत्त्वशाली परिवर्तन आ जायेगा, उसी दिन विचार-क्रांति पूरी होकर सामाजिक और राजनैतिक-क्रांति के लिए अपने आप मार्ग खुल जायेगा| इस समय केवल मात्र अपने दृष्टिकोण को इस ध्येय की और लगाने की आवश्यकता है|

समाज में इसी प्रकार की विचार-क्रांति लाने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है|

राजपूत जाति के अब तक के भौतिक अध:पतन और उसकी मानसिक पराजय का पर्यवसान, उसकी आत्म-दुर्बलता और निराशामूलक मनोदशा के रूप में हुआ है| इसी निराशामूलक मनोदशा के परिणाम-स्वरूप पराजित मनोवृति व्यापक रूप से घर कर गई है| वीरता, दृढ़ता, धैर्य, कार्य-शक्ति, प्रयत्न, सच्चाई और महान गुणों के प्रति लोगों का विश्वास उठ रहा है और अवसरवादिता, स्वार्थ-साधन, कायरता, असत्य आदि आत्म-पतनकारी दुर्गुणों का दिनोंदिन समाज में जोर बढ़ रहा है| यह स्थिति वास्तव में ही भयावह है| इससे अनैतिकता की सृष्टि होती है और इसी अनैतिकता से नैतिक पतन आदि सब प्रकार की अधोगति होती है|

इस चतुर्मुखी पतन को रोकना का पहला उपाय है समाज को निश्चित, प्रगतिशील और सब दृष्टियों से कल्याणकारी ध्येय और वास्तविक कर्तव्य का ज्ञान करा देना| यही एक मात्र उपाय है जिसके द्वारा यह चतुर्मुखी पतन रोका जा सकता है| इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए यह पुस्तक लिखी है|

सामाजिक उत्थान और प्रगति का आधार सामाजिक ध्येय ही हो सकता है| बिना ध्येय के सामाजिक प्रगति का प्रयास केवल अँधेरे में भटकने के सदृश निरर्थक है| यह ध्येय जितना व्यापक, महान, गुणकारी, स्थायी और सकारात्मक होगा, प्रगति भी उतनी ही व्यापक, महान, गुणकारी, स्थायी और सकारात्मक होगी| इस पुस्तक द्वारा राजपूत जाति को इसी प्रकार के ध्येय का ज्ञान कराने की चेष्टा की गई है|

विषय के अनुरूप ही इस पुस्तक की शैली अधिकांशतया विश्लेषणात्मक हो गयी है, जिससे भाषा कुछ कठिन और अभिव्यक्ति वक्र बन गई है| इस प्रकार के विषय के प्रतिपादन के लिए इसी प्रकार की शैली की आवश्यकता है| फिर भी विषय को अधिक स्पष्ट, ग्राह्य और सरल बनाने की कोशिश भी की गई है| ऐसा करने में कई स्थानों पर पुनरुक्ति भी हुई है, पर साधारण शिक्षित पाठकों की कठिनाई को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार की पुनरुक्ति भी आवश्यक समझी गई है| आशा है इन सब कठिनाइयों के लिए पाठक मुझे क्षमा करेंगे|

लेखक राजस्थान के राजनैतिक आर्थिक और सामाजिक वातावरण से अधिक परिचित है| अतएव सामयिक राजनीति आदि विषयों का विवेचन करते समय यहाँ के वातावरण को मुख्य रूप से ध्यान में रखा गया है और यहाँ के वातावरण को ध्यान में रखते हुए ही कई सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया है| यदि अन्य राज्यों में राजपूतों की स्थिति कुछ भिन्न तथा घटना-चक्र का विकास कुछ भिन्न परिस्थतियों और रूपों में हुआ हो तो पाठक कृपया मुझे सूचित करें| अपने इसी अल्प अनुभव को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी समालोचना का आधार राजस्थान के वातावरण को ही मुख्य रूप से बनाया है, तथा यहाँ के जीवन से अधिक उदाहरण दिए है|

इस पुस्तक में वर्णवाद अथवा जातिवाद के आधार पर मुख्य रूप से विकासवाद और घटना-चक्र का विश्लेषण किया गया है| यह सब घटना-चक्र को आसानी से समझाने और इस पुस्तक में वर्णित ध्येय के प्रति अनुकूल शैली का निर्माण करने के लिए किया गया है| अंत में आकर इसी जाति अथवा वर्ण को वर्गवाद के रूप में बदल दिया गया है| यह इसलिए नहीं कि लेखक का वर्गवाद में है, वरन इसलिए कि वर्गवाद का अस्तित्त्व वर्तमान समाज की आवश्यकता हो गई है| अतएव समाज की उपलब्ध सामग्री को ही संवार कर हमें भावी भवन का निर्माण करना है| लेखक का दृढ़ विश्वास है कि सब प्रकार की वर्ग-घृणा को समाप्त कर विशुद्ध वर्ण व्यवस्था की पुनर्स्थापना से ही राष्ट्र का कल्याण हो सकता है| इस उद्देश्य का इस पुस्तक में सर्वत्र ध्यान रखा गया है| इस वर्ण व्यवस्था के रूढिगत दुर्गुणों का परिहार कर उसे अधिक वैज्ञानिक बनाने की आवश्यकता है| इसीलिए इस विषय में जो नवीन कल्पनाएँ की गई है उन्हें शास्त्रों का उलंघन नहीं समझना चाहिये| जो कुछ भी परिवर्तन करना है, वह न केवल नीति वश वरन आवश्यक भी करना है, इसलिए इस परिवर्तन का समर्थन करने वाले वैज्ञानिक और शाश्वत सिद्धांतों को समझने के साथ-साथ आज की राजनैतिक आवश्यकता को भी समझना आवश्यक है|

इस पुस्तक की मूल प्रति लिखे हुए लगभग तीन वर्ष हो चुके है| इन तीन वर्षों में राजपूत जाति की मनोदशा और परिस्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है| यदि यह पुस्तक पहले प्रकाशित हो जाती तो इस परिवर्तन के स्वरूप की रुपरेखा निर्माण करने में काफी सहायता मिलती, पर आर्थिक कठिनाइयों के कारण ऐसा नहीं हो सका| एक दिन दैवयोग से राजस्थान क्षत्रिय-महासभा के अध्यक्ष राजा साहब श्री कल्याणसिंह जी भिनाय तथा प्रोफ़ेसर मदनसिंह जी के समक्ष कुं. सवाई सिंह धमोरा ने इस पुस्तक की बात चलाई| तदुपरांत इन दोनों महानुभावों ने इस पुस्तक के कुछ अध्यायों को कुं. सवाईसिंह धमोरा से पढ़वाकर सुना| यह पुस्तक उन्हीं दोनों महानुभावों के परिश्रम, उनकी प्रेरणा, सहायता, विषय-मर्मज्ञता और भावुकता के परिणाम-स्वरूप ही पाठकों के सम्मुख आ सकी है| यही नहीं, राजा साहब श्री कल्याणसिंह जी भिनाय ने तो इस पुस्तक के प्रकाशन का दायित्व भी अपने ऊपर लिया है; वे इस पुस्तक के प्रकाशक है| इनके अतिरिक्त ठा.साहब केसरीसिंह जी पटौदी और ठा.साहब श्री सज्जनसिंह जी देवली ने भी इस पुस्तक के प्रकाशन में महत्त्वपूर्ण योग दिया है| मैं अभी तक यह निर्णय ही नहीं कर सका हूँ कि इन महानुभावों द्वारा मेरे प्रति बताई गई इस सहृदयता और सदभावना का प्रतिकार मैं किस रूप में दूँ| मैं समझता हूँ, प्रतिकार के रूप में इस कृपा के लिए धन्यवाद देना न पर्याप्त है और न ही उचित ही|

इस अवसर पर मैं साधना प्रेस जोधपुर के अनुभवी और कार्यकुशल व्यवस्थापक श्री हरिप्रसादजी पारीक को नहीं भूल सकता| इतने कम समय में और इस रूप में पुस्तक-प्रकाशन का समस्त श्रेय इन्हीं को है|

इस पुस्तक के लिखने में जिन ज्ञात अज्ञात विद्वानों के विचारों से सहायता ली गई है, उन सभी के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ|

मैं इस प्रयास में कहाँ तक सफल हुआ हूँ, कह नहीं सकता| इस पुस्तक द्वारा समाज की विचारधारा में यदि तनिक भी क्रांति आ जाये तो अपने परिश्रम को सफल समझूंगा|

कुं.आयुवानसिंह, हुडील
जोधपुर संवत २०१४

Monday, October 21, 2013

समस्या के रचनात्मक पहलू - अंतिम. (राजपूत और भविष्य)

भाग - २ से आगे.....

वर्तमान समय में शिक्षितों और अन्य युवकों में शस्त्र रखने के प्रति जो आलस्य और घृणा की भावना उत्पन्न होने लग गई है वह निस्सन्देह घातक है| शस्त्र रखने में शर्म करना अपने अपने अस्तित्व की सार्थकता के प्रति उपेक्षा करना है| अतएव प्रत्येक राजपूत को हर समय अपने साथ कोई न कोई शस्त्र अवश्य रखना चाहिये और विशेष अवसरों पर विशेष प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर जाना चाहिये| हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिये कि राजपूत और तलवार का साथ अटूट और पवित्र है| यही नहीं, तलवार स्वयं भगवती का रूप है और यदि हम उसकी रक्षा और उसका सम्मान अवश्य करेगी| जिन व्यक्तियों के पास लाइसेंस के शस्त्रास्त्र है उनको उन्हें सदैव अपने पास रखना चाहिये और जिनके पास इस प्रकार के शस्त्रास्त्र नहीं है उनको तलवार अथवा लाठी तो सदैव अपने पास रखनी ही चाहिये| दफ्तरों में काम करने वाले बाबुओं से लगाकर व्यस्क विद्यार्थियों तक को अपने पास छोटा-मोटा शस्त्र अवश्य रखना चाहिये| माता-पिताओं को अपने बालकों में शस्त्र बाँध कर चलने व शस्त्र रखने के संस्कारों का निर्माण करना चाहिये| बालिकाओं और स्त्रियों को भी अपने पास कोई न कोई छोटा शस्त्र रखने की आदत डालनी चाहिये|

जिस प्रकार सदैव शस्त्र रखना आवश्यक है, उसी प्रकार शस्त्रों का प्रयोग जानना भी उतना ही आवश्यक है| शस्त्रास्त्र केवल श्रृंगार और सजावट की वस्तुएं न होकर प्रयोग और व्यवहार की वस्तुएं होनी चाहिये| जिस शस्त्र को हम अपने पास रखें उसको दक्षतापूर्ण ढंग से प्रयोग में लाना भी हमें आना चाहिये| बिना प्रयोग जाने किसी शस्त्र को अपने पास रखना हास्यास्पद ही नहीं वरन प्राणों को संकट में डालना भी है| अभिभावकों को बचपन में ही बच्चों को यथासंभव शस्त्रों का प्रयोग सिखा देना चाहिये|

किसी भी समाजिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए आवश्यक है कि उस समाज का प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी और सबल हो| आर्थिक-स्वावलंबन आगे चलकर राजनैतिक स्वतंत्रता और स्वावलंबन को जन्म देता है- राज्य सरकार के कानूनों द्वारा इन वर्षों में राजपूतों की आर्थिक स्थिति पर भीषण प्रहार हुए है| अब तक राजपूतों के पास आर्थिक जीवन को सुरक्षित रखने वाले दो बड़े साधन थे- भूमि और नौकरी| इन दोनों साधनों को प्रभावित करने वाले वातावरण पर चौथे अध्याय में प्रकाश में डाला जा चुका है| इतना सब होते हुए भी राजपूतों के पास आज भी जीवन-निर्वाह का मुख्य साधन भूमि ही है| राजपूतों को भूमि के अतिरिक्त किसी अन्य साधन को स्थायी रूप से अपनाना ही नहीं चाहिये, क्योंकि भूमि से राजपूतों का पवित्र रागात्मक सम्बन्ध रहा है| आज की इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी राजपूतों को सदैव भूपति अथवा भूस्वामी बन कर रहने का ही प्रयास करना चाहिये| जिनके अधिकार में कृषि योग्य पर्याप्त भूमि न हो, उन्हें भूमि प्राप्त करने का अपना प्रयत्न जारी रखना चाहिए|

पर इस कृषि-कर्म में एक सबसे बड़ा खतरा है जिससे हमें सदैव सावधान रहना चाहिये| कृषि कार्य को पूर्णत: अपना लेने से स्वाभाविक क्षात्र-वृति का नाश होता है| तलवार पकड़ने वाले हाथों में हल पकड़ लेने पर तलवार और उसकी शक्ति के प्रति श्रद्धा घट जाती है और हल और उसकी शक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ जाती है| तलवार के जीवट-पूर्ण, स्वाभिमानी और खौफनाक जीवन के स्थान पर भाग्यवादी, शांतिमय और हीन हल के जीवन का आरम्भ होता है| इससे क्षात्र-वृति शनै: शनै: वैश्य और शुद्र-वृति में बदल जाती है, रजोगुणी महत्वाकांक्षा और कीर्ति-उपार्जन की इच्छा का स्थान तमोगुणी लोभवृति और अधिक अन्न उपजाने की इच्छा ले लेती है| यही कारण है कि विजयी जाति सदैव से ही विजित जाति के क्षात्र-संस्कारों और वृति को समाप्त करने के लिए उसके हाथों में हल पकड़वाती है| राजपूतों को आज नहरी इलाकों में कृषि के लिए बसाने वाली योजना इसी प्रकार उनकी क्षात्र-वृति को नष्ट करने वाली योजना है| पर जीवनयापन का कोई अन्य उपाय उपलब्ध न होने के कारण हमारे सामने केवल खेती का ही धन्धा रह जाता है| अतएव इस खेती के धंधे को हमें साधनरूप में ही अपनाना है, साध्य रूप में नहीं| हल के साथ तलवार का संयोग कराना है और बलजीवी और श्रमजीवी शक्तियों का एकीकरण करके बलजीवी शक्तियों की ही प्रधानता स्थापित करनी है|

अतएव प्रत्येक राजपूत परिवार को अपने जीवनयापन के लिए मुख्य धंधे के रूप में कृषि को ही स्वीकार करना चाहिये| वस्तुस्थिति भी यही है कि राजपूतों के पास कृषि के अतिरिक्त और कोई धंधा है भी नहीं| पर इस कार्य को करते समय महाजनों के शोषण और रूढिगत कार्यों से सदैव सावधान रहना चाहिये|

आर्थिक दृष्टि से संपन्न राजपूत परिवारों को कृषि की उन्नति और आर्थिक उत्पादन के लिए वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करना चाहिए तथा अपनी संतानों को इस विषय की सर्वोच्च शिक्षा दिलाने की व्यवस्था करनी चाहिये| इस दशा में सरकारी सहायता का स्वागत कर उसे अधिकाधिक रूप में प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये| सामूहिक और सहयोगी कृषि-पद्धति को अब आर्थिक महत्त्व देने की आवश्यकता है| इस प्रणाली द्वारा श्रम और पूंजी की बचत होती है और उत्पादन भी अपेक्षाकृत अधिक होता है| साधारण फसलों की अपेक्षा व्यापारिक फसलों के उत्पादन की और अधिक ध्यान देना होगा| जहाँ सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है वहां सावन फसल बहुत अधिक मात्रा में बोनी चाहिये| वर्ष के अवकाश के दिनों में धनोपार्जन अथवा पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ करते रहना आवश्यक है| स्त्री समाज की श्रमशक्ति को भी इसी प्रकार उत्पादन के कार्यों में लगाना अब आवश्यक हो गया है, अतएव इस प्रकार की योजनाओं को कार्यान्वित करना आवश्यक है जिससे राजपूत स्त्रियाँ अपनी मर्यादा को सुरक्षित रखती हुई उत्पादन कार्यों में योग दे सके|

कृषि का सहयोगी दूसरा प्रभावशाली और उपादेय धन्धा पशु-पालन है| पशु-पालन की और हमारी रूचि होना आवश्यक है| कारण कि उसने कृषिकार्य में तो महत्त्वपूर्ण योग मिलता ही है पर साथ के साथ वे जीवन-निर्वाह के भी अनन्य साधन है| गाय और भैंस रखना प्रत्येक राजपूत की पारिवारिक आवश्यकता है| गायों और भैंसादि की उचित देख-रेख करना तथा पालन-पोषण और विकास के वैज्ञानिक और सही उपायों से हमारी जानकारी होना आवश्यक है| बैलों के लालन-पालन और उनकी उचित देख-रेख से बहुत अधिक आर्थिक लाभ होने की संभावना रहती है| भेड़-बकरी पालना भी बहुत अधिक लाभदायी है| इनकी नस्लों में सुधार करना तथा नये वैज्ञानिक तरीकों से उनका विकास करना हमें आना चाहिये| पशु-पालन से असंख्य लाभ है और कृषि-कार्य तो उनके बिना सुचारू रूप से चल ही नहीं सकता| यह बड़ा ही खेद का विषय है कि आर्थिक दृष्टि से भार स्वरूप होने के कारण राजपूतों ने घोड़े पालना और रखना छोड़ दिया है| घोड़ों और राजपूतों का सम्बन्ध हजारों वर्ष प्राचीन का है, अतएव थोड़ी सी कठिनाई के आते ही इस सम्बन्ध को भूल कर घोड़ों को घर से बाहर निकाल देना किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता| घोड़ा जाति का जो राजपूतों पर महान उपकार है, उसे भूलकर एकदम कृतध्न हो जाना हमारी परम्परा के विरुद्ध एवं हमारे अस्तित्व के लिए भी महान घातक है| इस प्रश्न को लाभ और हानि की तराजू में न तोलकर विशुद्ध भावनात्मक और दूरदर्शी दृष्टिकोण से देखना चाहिये| जिस प्रकार शस्त्र और राजपूत का अटूट सम्बन्ध है, उसी प्रकार घोड़ों और राजपूतों का भी अभिन्न सम्बन्ध है| क्या कोई आर्थिक विवशता के वशीभूत होकर अपनी संतानों को त्याग देता है ? घोड़ों और राजपूतों का सम्बन्ध भी कुछ इसी प्रकार का है, अतएव जो राजपूत घोड़े रखने में समर्थ है उन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुसार अधिक से अधिक घोड़े रखना चाहिये फिर घोड़ा इतना निरुपयोगी पशु भी नहीं है| यदि ठीक ढंग से उनका लालन-पालन किया जाये तो हजारों रूपये प्रति वर्ष उनसे आमदनी भी हो सकती है तथा और भी कई प्रकार से उनको उपयोग में लिया जा सकता है|

दूसरा महत्त्वशाली पशु ऊंट है| यह बैलों से बढ़कर मरुप्रदेश में जीवन-निर्वाह का साधन है| अच्छी नस्ल के ऊंट पालना और रखना बहुत ही उपयोगी व्यवसाय है| ऊंट की उपयोगिता और उस पर मितव्ययिता सर्वविदित है, अतएव ऊँटों के टोले (समूह) रखना और पालना लाभदायक है| जो राजपूत घोड़ा नहीं रख सकता उसे कम से कम एक ऊंट तो अपने घर में अवश्य रखना चाहिये| जो राजपूत इन दोनों पशुओं को एक साथ रख सकते है, वे बड़े भाग्यशाली है|

खेती और पशु-पालन के अतिरिक्त जीवन-निर्वाह का राजपूतों के लिए अन्य प्रभावशाली साधन नौकरी है| गत वर्षों में भारतीय सेना से निष्कासित होने के कारण आज हजारों राजपूत नवयुवक नौकरी की खोज में घूम रहे है| कांग्रेस सरकार का राजपूतों के साथ सौतेली माँ का सा व्यवहार होने के कारण आज के शिक्षित और नौजवान राजपूतों को नौकरी मिलना बहुत कठिन है| फिर भी अपनी योग्यता, रूचि और अवसर के अनुसार राजपूतों को प्रत्येक विभाग में नौकरी प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये| अपने परम्परागत संस्कारों के कारण सेना और पुलिस विभागों में वे अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते है| अतएव राजपूतों को सेना में अधिकाधिक संख्या में भर्ती होने का प्रयास करना चाहिये| जिस किसी विभाग में वे जाये- अनुशासन, ईमानदारी, कार्यदक्षता और सच्चरित्रता में उन्हें उच्चाधिकारियों और सहयोगियों के सामने आदर्श रखना चाहिये| उन्हें सदैव ध्यान रखना चाहिये कि वे सब स्थानों पर महान राजपूत-चरित्र का प्रतिनिधित्त्व करते है| अतएव कोई ऐसा कार्य न कर बैठे जिससे उनकी महान परम्परा व जाति पर कलंक लग जाय| उच्च कोटि की कर्तव्यशीलता उनके नौकरी के जीवन का लक्ष्य होना चाहिये| नौकरी के अतिरिक्त भी कई स्वतंत्र और अर्द्ध-स्वतंत्र धंधे ऐसे है जिनसे आज हजारों राजपूत जीवनयापन कर रहे है| व्यापार, वकालत, डाक्टरी आदि इसी प्रकार के धंधे है| इन सब धंधों को करते हुए भी सामाजिक ध्येय की पूर्ति में योग देना प्रत्येक राजपूत का कर्तव्य है| मशीनरी और हुनर-प्रधान धंधों में अब राजपूतों को विशेष रूचि लेनी चाहिये|

नौकरी आदि से जीवनयापन की समस्या हो हल हो जाती है पर यह धंधा स्वेच्छा से अपने कन्धों पर विवशता और दासता की गठरी लादने के समान है| अतएव जो व्यक्ति समाज को अपना जीवन देने का व्रत लेते है उन्हें इन व्यक्तिवादी और उदारवादी धंधों में पड़ कर जीवन-निर्वाह के लिए अन्य धंधों को अपनाना चाहिये|

इस प्रकार हमें पहले अपने जातीय-जीवन को सुरक्षित रखते हुए और उसके माध्यम से सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में कार्य करते हुए सामाजिक जीवन को सबल बनाने की चेष्टा करनी चाहिये| ध्यान रहे, हम पहले अपने घर को व्यवस्थित करके ही आगे बढ़ सकते है|

-: समाप्त :-

समस्या के रचनात्मक पहलू - भाग-२ (राजपूत और भविष्य)

भाग -१ से आगे....

सतोगुणी जातीय-भाव के निर्माण की दूसरी शर्त समाज के प्रत्येक व्यक्ति को भ्रातृत्व के अटूट संबंधन की डोर में बाँध देना| प्रत्येक राजपूत में इस भावना का निर्माण करना आवश्यक है जिससे वह सब राजपूतों को अपना भाई समझ कर सदैव तन,मन,धन से उसकी सहायता करने के लिए तत्पर रहे| एक व्यक्ति का दुःख सब का दुःख एक का अपमान सब का अपमान, एक की समस्या सबकी समस्या और एक का अभाव सबका अभाव बन जाय| एक भाई की पीड़ा से सारा समाज चीत्कार उठे और सामूहिक प्रयत्न द्वारा एक की पीड़ा का निराकरण हो जाये| इसी भांति राजपूत जाति का अपमान प्रत्येक व्यक्ति का अपमान, उसका दुःख प्रत्येक व्यक्ति का दुःख और उसकी समस्या प्रत्येक व्यक्ति की समस्या बन जाय| व्यक्ति का शत्रु, समाज का शत्रु और समाज का शत्रु प्रत्येक व्यक्ति का शत्रु समझ लिया जाय| आर्थिक सम्पन्नता, सरकारी पद, शैक्षिणिक योग्यता और अन्य इसी प्रकार की विशिष्टताएं सामाजिक साम्यवाद और पारस्परिक सहयोग के क्षेत्र में बाधाएं बनकर सामने नहीं आनी चाहिए| आज भी अधिकांश बड़े और संपन्न जागीरदार गरीब और छोटे राजपूत से घृणा करते है, आर्थिक दृष्टि से उन्हें पंगु और परावलम्बी बनाकर सामाजिक क्षेत्र में उन पर अपनी प्रभुता और सम्पन्नता की धाक जमाते है और इस प्रकार उनमें आत्म-लघुत्त्व की भावना उत्पन्न करने में तल्लीन दिखाई पड़ते है| दूसरी ओर कतिपय नवशिक्षित गरीब राजपूत भी इन बड़े जागीरदारों को मुर्ख, अनुपयोगी और स्वार्थी समझ कर उनसे घृणा करने लग गए है| ये दोनों दशायें अनुचित है| अब हमें छोटे-बड़े, उंच-नीच, गरीब- अमीर आदि की भाषा में सोचना बंद कर देना चाहिये| जो राजपूत सरकारी बड़े पदों पर आसीन है उनकी मनोदशा तो और भी विचित्र है| अपने श्वेत-पोश महाप्रभुओं को प्रसन्न करके तरक्की पाने और वफ़ादारी और निष्पक्षता का प्रमाण पत्र लेने की इच्छा से ये राजपूत पदाधिकारी अपने राजपूत भाइयों पर किसी भी प्रकार का अत्याचार करने से नहीं चूकते| औचित्य, न्याय और कानून भी सीमाओं के भीतर रहते हुए भी राजपूतों की सहायता करना उनकी “निरपेक्ष नीति” को ठेस पहुंचाने वाली बात होती है| इस प्रकार की दब्बू, अयोग्य और अनुचित नीति का अनुसरण करना उनकी आत्म-दुर्बलता, मानसिक अयोग्यता तथा नैतिक पतन का परिचायक है| औचित्य, न्याय और कानून की सीमा में रहते हुए प्रत्येक राजपूत पदाधिकारी को अपने अन्य राजपूत भाइयों की अधिक से अधिक सहायता करनी चाहिये| हमें इस मन्त्र को दृढ़तापूर्वक हृदयंगम कर लेना चाहिये कि हम राजपूत पहले है और कुछ बाद में| जब यह मनोदशा हमारे में उत्पन्न हो जायेगी तब हम कहीं भी किसी भी संस्था और दशा में रहते हुए समाज की महत्त्वशाली सेवा कर सकते है|

इस प्रकार की जातीय-भावना का निर्माण करने के लिए हमें समाज में एक कौटुम्बिक वातावरण का निर्माण करना पड़ेगा| सम्पूर्ण राजपूत जाति को एक बहुत बड़ा कुटुम्ब मान कर कार्य करना पड़ेगा| समाज के समस्त लोगों को सामूहिक और सहयोगी जीवनयापन के लिए अभ्यास कराना पड़ेगा| इस प्रकार कौटुम्बिक भावना और सहयोगी और सामूहिक जीवनयापन के संस्कारों का निर्माण हम तदनुकूल परिस्थितियों और वातावरण उत्पन्न करके कर सकते है| सम्पूर्ण समाज में इस प्रकार का मधुर वातावरण उत्पन्न कर और उसे सामूहिक और सहयोगी जीवन के संस्कारों में ढालते हुए क्षत्रियोचित गुणों का अभ्यास कराना किसी सांस्कृतिक और वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा ही संभव हो सकता है| इस प्रकार की सामाजिक संस्थाओं को हमें सामूहिक रूप से अपनाना चाहिये जो सांस्कृतिक और वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा हमारे में सहयोगी और सामूहिक जीवनयापन के संस्कारों का निर्माण कर सके, तथा सम्पूर्ण राजपूत जाति को एक सुखी और सबल परिवारों में बदल सके| यह जान लेने की आवश्यकता है कि “क्षत्रिय युवक संघ” के अतिरिक्त और कोई सामाजिक संस्था आज इस ध्येय की पूर्ति नहीं कर रही है| जातीय-जीवन को सुरक्षित रखने के लिए हमें अन्य ऐसी सामाजिक संस्थाओं को जीवित रखने की भी आवश्यकता है जिनके वार्षिक सम्मेलनों आदि के बहाने हम एक साथ बैठ कर अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकें| राजनैतिक संस्थायें इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकती, अतएव हमें अपने जातीय संगठनों को जीवित और प्रभावशाली बनाये रखने का सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिये| इन्हीं संगठनों द्वारा हमें अपने सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हितों के संरक्षण का प्रयास करना चाहिये|

इन्हीं जातीय संगठनों द्वारा हमें सम्पूर्ण राजपूत जाति के सोये हुए संस्कारों को जगाना है| सम्पूर्ण राजपूत बालकों में क्षत्रियोचित संस्कारों का निर्माण कर उन्हें स्वधर्म-युद्ध के लिए उत्साही योद्धाओं के रूप में बदलना है| उन्हें एक ध्येय के पवित्र बंधन में बांधकर एक सी साधना के द्वारा क्षत्रियोचित गुणों का अभ्यास कराना है| एक साध्य एक साधना और एक साधन द्वारा समान गुण, कर्म और स्वभाव वाले साधकों को सुसंस्कृत और दीक्षित करना ही सच्चे संगठन को जन्म देना है| राजपूत जाति के उत्साही वीरों की इस प्रकार की सेना तैयार करनी है जो सर्दी, गर्मी, वर्षा, आंधी, भूख, प्यास, दुःख, सुख, नींद आदि रुकावटों और परिस्थितियों के ऊपर उठकर सदैव प्रसन्नतापूर्वक कार्य कर सके, जो ध्येय के प्रति परिस्थितिनिरपेक्ष होकर अविचल और अविरल रूप से अपना क्षय करते हुए आगे बढ़ सकें| जिन्हें अभाव, आपदायें और विरोधी परिस्थितियां किंचितमात्र भी विचलित नहीं कर सके| हमें ऐसे कार्यकर्ताओं का निर्माण करना है; जिनके कर्तव्य-मार्ग में आने वाली भय, दबाव, प्रलोभन और शंकायें पुरुषार्थ-शक्ति के सामने स्वत: चूर चूर होकर समाप्त हो जाये| इस प्रकार के उत्साही वीर जब एक नेतृत्व की आज्ञा में ध्येय प्राप्ति के लिए निरंतर रूप से कार्य करते हुए आगे बढ़ते है तब उन्हें संसार की कोई भी बाधा रोकने का सामर्थ्य नहीं रखती| एक ध्येय के प्रति अटूट निष्ठावान, एक नेता की आज्ञा पर सर्वस्व बलिदान करने की भावना से परिपूर्ण, किसी भी परिस्थिति और वातावरण में कार्य करने की क्षमता रखने वाले उत्साही, साहसी, तेजस्वी, चरित्रवान, धैर्यवान और ज्ञानी व्यक्तियों के संगठन का नाम ही शक्ति है| यही शक्ति अन्य सब प्रकार की शक्तियों को उत्पन्न और गतिवान करने वाली महाप्रेरक शक्ति है| निर्जीव और भौतिक शक्ति की आज हमें क्या आवश्यकता ? हम तो आज उस सजीव शक्ति का निर्माण चाहते है जो इंगित मात्र पर साधन-शक्ति, श्रम-शक्ति आदि का सृजन कर दे, पल मात्र में असंभव को संभव और दुर्गम को सुगम बना दें और पहाड़ों को उलट कर पृथ्वी को रोंद डाले| इसी प्रकार की शक्ति सामर्थ्यवान होती है और यही सामर्थ्य ध्येय-रूपी मोक्ष-प्राप्ति का एकमात्र सिद्ध-मन्त्र है| सजीव और चेतन शक्ति का निर्माण करना हमारी कार्य-प्रणाली का एक मात्र लक्ष्य होना चाहिये| हमें अपनी ध्येय-प्राप्ति के लिए कब कौनसे साधन और कौन सी प्रणाली अपनानी चाहिये यह सब कुछ बाह्य परिस्थितियों और हमारी स्वयं की शक्ति पर निर्भर है, पर हमें जिस शक्ति का निर्माण करना है वह सब प्रकार की परिस्थियों और सब प्रकार के साधनों द्वारा समान रूप से कार्य करने की क्षमता रखने वाली अवश्य होनी चाहिये| इस प्रकार की शक्ति के निर्माण बिना जो व्यक्ति के उत्थान और ध्येय-प्राप्ति की दिशा में सोचते है वे अपनी विचार और और परिश्रम-शक्ति का केवल दुरूपयोग मात्र करते है|

जातीय-भावना का निर्माण करने के लिए हमें महापुरुषों की जयन्तियां, झुंझार मेले और इसी प्रकार के सांस्कृतिक सम्मलेन सामूहिक से मनाने चाहिए| सब इतिहास-प्रसिद्ध महापुरुषों की जयन्तियां ही यदि सामूहिक रूप से मनाई जायें तो वर्ष का एक दिन भी शायद बिना किसी उत्सव के नहीं रहेगा| प्रसिद्ध युद्ध-स्थलों, किलों और धार्मिक महत्त्व के स्थानों पर मेले लगाये जा सकते है| जातीय-भावना को प्रेरणा देने वाले त्योंहारों में सबसे महत्त्वपूर्ण है विजयादसमी का त्योंहार| राजपूतों के लिए इस पर्व से बढ़कर अन्य कोई पर्व नहीं है, अतएव विजयादसमी को सब स्थानों पर सामूहिक समारोह से मनाना चाहिये| राज-दरबारों के पतन के कारण इस त्योंहार को मनाने में जो निरुत्साह और शिथिलता की भावना आ गई है उसे दूर करने की आवश्यकता है| शस्त्रास्त्र-संचालन, प्रतिस्पर्धा, घुड़दौड़, ऊँटों की दौड़, सामूहिक भोज आदि कार्यक्रम इस पर्व पर रखे जा सकते है| इसी प्रकार गणगौर और अन्य प्रकार के ऐसे त्योंहारों को भी खूब तैयारी और उत्साह के साथ मनाना चाहिये| पशु-दौड़, शस्त्रास्त्र प्रतियोगिता और सामूहिक खेल आदि इन अवसरों पर रखे जाने चाहिये| रात्री के समय डिंगल कवि-सम्मलेन अथवा डिंगल काव्य-पाठ रखा जा सकता है| डिंगल-काव्य में संजीवनी शक्ति है, अतएव उसका रसास्वादन कर हमें अवश्य लाभ उठाना चाहिये| जिस जाति का साहित्य नहीं उसकी प्रगति असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है| साहित्य-दर्पण में जहाँ एक और जातीय-जीवन का वास्तविक स्वरूप देखने को मिलता है, वहां दूसरी और भविष्य के लिए उसमें प्रेरणात्मक संदेश भी भरे रहते है| साहित्य में नव-शक्ति, नव-प्रेरणा, नव-स्फुरण, नव-संदेश आदि उन्नति पथ पर गतिमान कर देने वाली प्रचुर सामग्री रहती है| डिंगल साहित्य में इसी प्रकार की संजीवनी-सामग्री प्रचुर मात्रा में है| वह आज हमें स्वाभिमान से जीवित रहने और गौरव से मरने के लिए तत्पर करने वाला अदभुत और सफल मन्त्र है| अतएव प्राचीन डिंगल-साहित्य के प्रकाशन और प्रचार में विशेष रूचि लेना हमारे उत्थान की महत्ती आवश्यकता है| बालकों को डिंगल-काव्य के प्रभावपूर्ण और मार्मिक स्थलों का रसास्वादन कराना उतना ही आवश्यक है जितना उन्हें रामायण और गीता के तत्वों का ज्ञान कराना| इस डिंगल साहित्य के निर्माताओं और विशेष कर महान चारण जाति के प्रति राजपूतों को सदैव कृतज्ञ, उदार और श्रद्धालु रहना चाहिये|

जातीय-भाव उत्पन्न करने में वैवाहिक सम्बन्ध एक महत्वपूर्ण वस्तु है| आजकल कतिपय संपन्न राजपूत घरानों का अंतरजातीय विवाह सम्बन्ध की और झुकाव दिखाई पड़ रहा है| हमें रक्त की शुद्धि का सदैव ध्यान रखना चाहिए, अतएव अंतरजातीय विवाह-संबंधो को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता नहीं है| जो व्यक्ति अनुलोम और प्रतिलोम विवाह-संबंधों के पक्षपाती है उन्हें इस प्रकार के विवाहों से उत्पन्न खतरों से सदैव सचेत रहना चाहिए| राजपूत जाति के व्यक्तियों का राजपूत समाज में ही विवाह होनाश्रेयस्कर कहा जा सकता है| ये विवाह-सम्बन्ध दूर-दूर के स्थानों पर होने से पारस्परिक सहयोग और मिलन की भावना को अधिक बल मिलेगा| इस समय हिन्दू विवाह संबंध की पवित्रता और उपयोगिता को नष्ट करने वाले जितने भी कानून बनाये जाते है उनके विषैले प्रभाव से समाज को सुरक्षित रखने की बड़ी आवश्यकता है|

इस प्रकार समाज की प्रचलित सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं के आधार पर सतोगुणी जातीय-भाव का निर्माण कर प्रत्येक व्यक्ति को स्वाभिमानी, उदार और नि:स्वार्थ बनाना सामाजिक-उत्थान की आवश्यक शर्त है|

जिस प्रकार सतोगुणी जातीय-भाव का निर्माण आवश्यक है, उसी प्रकार समाज के प्रत्येक व्यक्ति में उस भाव को धारण करते रहने की शक्ति का निर्माण भी आवश्यक है, अतएव इस भाव को धारण रखने के लिए आवश्यक प्रतीकों को हमें दृढ़तापूर्वक अपनाना चाहिये| क्षत्रियत्व के प्रतीकों में प्रथम श्रेणी में शस्त्रास्त्र आते है| शस्त्र न केवल आत्मरक्षा के ही साधन है अपितु आत्म-विश्वास उत्पन्न करने में भी वे प्रभावशाली साधन है| आज हमारी दुर्गति का यह भी कारण है कि हमें स्वयं पर विश्वास नहीं रहा| अपनी शक्ति के प्रति जब तक हमें विश्वास नहीं होगा तब तक हम किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते| आज हम अपनी आत्मिक, मानसिक और शारीरिक शक्ति के प्रति शंकित है| शस्त्र आत्म-शक्ति, आत्म-विश्वास और आत्मोल्लास उत्पन्न करने का सबसे अधिक महत्त्वशाली साधन है| जिस प्रकार विद्याहीन ब्राह्मण अपूर्ण होता है उसी प्रकार शस्त्रहीन राजपूत भी अपूर्ण होता है, -- विद्या ब्राह्मण का आभूषण है तो शस्त्र राजपूत का| जिस प्रकार बिना पंख, पक्षी अपंग होता है, उसी भांति शस्त्र-हीन राजपूत भी पंगु और निस्सहाय होता है| शस्त्रास्त्र रखना प्रत्येक राजपूत का सामाजिक अधिकार, व्यक्तिगत कर्तव्य और राष्ट्रीय आवश्यकता है| शस्त्रहीन राजपूत को देखने मात्र से पाप लगता है और उसका दर्शन अपशकुनसूचक तथा अमंगलकारी होता है|

क्रमश:.......

Saturday, October 19, 2013

समस्या के रचनात्मक पहलू - भाग-१ (राजपूत और भविष्य)

संसार की सभी जातियों के उत्थान और पतन के कारणों में एक विचित्र साम्य मिलता है| भारतवर्ष का इतिहास महान आर्य जाति के उत्थान और पतन का इतिहास है| इतिहास के आदि युग में आर्य जाति संसार की सर्वश्रेष्ठ जाति थी| उसकी यह श्रेष्ठता हजारों वर्षों तक बनी रही| इस श्रेष्ठता के मूल में कुछ ऐसे नैसर्गिक गुण थे जो जातीय-संस्कारों के रूप में ढल कर आर्य जाति के जीवन में दृढ़ता के साथ गहराइयों से प्रवेश कर गये थे| इन गुणों में सबसे मुख्य था सतोगुणी जातीय-भाव| आर्य जाति का प्रारंभिक दृष्टिकोण सतोगुणी जातीय-भाव था| उसकी सर्वागीण प्रगति का आधार भी सतोगुणी जातीय-भाव ही था| सतोगुणी जातीय-भाव जातीय अथवा सामूहिक प्रगति को मुख्य लक्ष्य मानकर चलता है, पर इस प्रगति के मूल में विध्वंसात्म्क भावना न रह कर सृजनात्मक भावना रहती है| त्याग, बलिदान, सत्य, न्याय आदि गुणों से गुम्फित यह सृजनात्मक भावना जहाँ एक और जातीय शरीर के आंतरिक अंगों में सहयोगी और सामूहिक भावना का निर्माण एवं परस्पर विश्वास और सच्चाई का संचार करती रहती है वहां दूसरी और विजातीय अथवा विरोधियों के प्रति भी वह कल्याणकारी और अति उदार दृष्टिकोण को लेकर चलती है| विरोधियों का सर्वंगीण नाश करके स्वजाति को उत्थान के शिखर पर ले जाने वाली भावना जातीय-भावना तो है पर वह सतोगुणी जातीय-भावना न होकर तमोगुणी अथवा आसुरी जातीय भावना है|

इसी तमोगुणी जातीय-भावना ने आगे चलकर आर्य जाति में वंश-मर्यादा और कुलाभिमान को जन्म दिया ये गुण हजारों वर्षों तक आर्य जाति को पतन से बचाते रहे है| मैं ब्राह्मण कुलोत्पन्न अमुक अमुक ऋषि-महर्षि की संतान हूँ, अथवा मैं ब्राह्मण हूँ” की भावना ने न मालूम कितने हजार वर्ष तक ब्राह्मणों को स्वार्थ, हिंसा, असत्य, अविद्या आदि दुर्गुणों से बचाती रही होगी| जब ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व की भावना लुप्त-प्राय: होने लगी तब उनका पतन भी आरम्भ हो गया| जातीय-भावना तो उनमें बहुत वर्षों तक बनी रही होगी पर ब्राह्मणत्व का अभिमान उनमें नि:शेष हो चुका था| ब्राह्मणत्व का यही सात्विक अभिमान स्वाभिमान अथवा सतोगुणी जातीय भाव कहा जा सकता है|

इसी भांति क्षत्रियत्व के अभिमान ने हजारों वर्षों तक क्षत्रियों को पतन से बचाया| सूर्य-वंश का संचित गौरव न मालूम कितने हजार वर्ष तक सूर्य-वंशियों को कायरता, असत्य, अन्याय आदि दुर्गुणों से बचाता रहा होगा| पुरुषोतम भगवान् राम जैसे सर्व-शक्तिमान महापुरुष भी आपत्ति और कर्तव्य-संकट के समय सदैव सूर्य-वंश के चिर-संचित गौरव से प्रेरणा लेकर कार्य करते थे| वह चन्द्र-वंश की उज्जवल कीर्ति ही थी जिसने अर्जुन को कायरता पतन के गहरे गर्त में गिरते गिरते बचा लिया| कालांतर में जब क्षत्रिय क्षत्रियत्व की सतोगुणी भावना से शून्य होने लग गये तब वे आर्यत्त्व की भावना से भी रहित होने लग गये और उनमें सतोगुणी जातीय-भावना के स्थान पर या तो जातीय-भावना नाम मात्र को भी नहीं रही थी या वह तमोगुणी होकर स्वयं के नाश का कारण बन गई| क्षत्रियत्व की इसी सतोगुणी भावना का नाश होने के कारण क्षत्रियों में क्षत्रियत्व प्रधान गुणों का लोप हो गया| लगभग यही दशा आर्य जाति के अन्य वर्णों की भी हुई|

रोमन जाति में उत्थान का आधार भी शत-प्रतिशत जातीय था| जब तक उनमें यह जातीय भावना बनी रही तब तक उसकी उन्नति होती रही और ज्योंही इस जातीय-भावना का नाश हुआ त्योही उसका पतन भी आरम्भ हो गया| विशाल रोमन साम्राज्य का उत्थान और पतन वस्तुत: रोमन जाति के सतोगुणी जातीय-भाव का उत्थान और पतन ही था| इस्लाम के अभ्युदय के प्रारंभिक युगों में हमें इस प्रकार की सतोगुणी जातीय-भावना के दर्शन होते है| यद्यपि इस्लाम का जातीय-भाव पूर्णत: सतोगुणी नहीं कहा जा सकता पर उस समय वह उन जातियों के जातीय-भाव से कहीं अधिक सतोगुणी था जिन पर इस्लाम ने विजय प्राप्त की| जब तक इस्लाम में यह अपेक्षाकृत श्रेष्ठ जातीय-भाव बना रहा तब तक उसकी विजय पर विजय होती गई| ज्योंही उसमें जातीय-भाव का लोप हो गया अथवा वह तमोगुण-क्रांत हो गया त्योंही उसका पतन भी आरम्भ हो गया|

जिस समय भारतवर्ष में मुसलमान आये उस समय हिन्दुओं की अपेक्षा उनमें सतोगुण जातीय-भाव था| दोनों का अंतर भी स्पष्ट है- जहाँ एक हिन्दू स्वजाति के साथ विश्वासघात करके शत्रु से जा मिलता था वहां एक मुसलमान अपने इस्लामी बंधू के साथ कभी भी विश्वासघात करने को तैयार नहीं होता था| जब तक मुसलमानों में हिन्दुओं की अपेक्षा इस जातीय-भावना की श्रेष्ठता और प्रबलता रही तब तक वे हिन्दुओं पर राज्य करते रहे, पर ज्योंही उनकी यह जातीय-भावना तमोगुणा-क्रान्त होकर नष्ट-प्राय: होने लगी त्योंही हिन्दुओं ने उन्हें उखाड़ फेंक दिया| उत्तर मध्यकालीन मुग़ल इतिहास मुसलमानों के जातीय-भाव पतित होने का ज्वलंत उदाहरण है|

जब अंग्रेज भारत आये तब उनकी प्रगति का आधार भी शत-प्रतिशत जातीय था| उनकी यह जातीयता की भावना तत्कालीन भारत की अन्य जातियों से श्रेष्ठ थी| मुसलमानों की भांति अंग्रेजों में भी सतोगुणी जातीय-भाव का तो अभाव था पर विजितों की अपेक्षा उनमें जातीय-भाव प्रबल था| जब तक उनका यह जातीय-भाव प्रबल बना रहा तब तक वे संख्या में अति नगण्य होते हुए भी संसार के बड़े भू-भाग पर राज्य करते रहे पर ज्योहीं उनका जातीय-भाव अपेक्षाकृत निर्बल पड़ा त्योंही उन्हें अपने साम्राज्य से हाथ धोने पड़े| इस प्रकार संसार की सभी जातियों के उत्थानोंमुखी इतिहास में जातीय-भाव और विशेषत: सतोगुणी जातीय-भाव की प्रबलता और पतानोंमुखी इतिहास में इसी जातीय-भाव और विशेषत: सतोगुणी जातीय-भाव की शिथिलता सर्वत्र देखी जा सकती है|

अतएव आज सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि राजपूत जाति में एक प्रबल जातीय-भाव का निर्माण किया जाय| इस प्रबल जातीय-भाव के निर्माण द्वारा क्षत्रियत्व के प्रति स्वाभिमान और क्षत्रियत्व के प्रति स्वाभिमान द्वारा हिन्दूत्व के प्रति गौरव और समष्टि-प्रधान दृष्टिकोण का निर्माण किया जाय| हिन्दूत्व अथवा आर्यत्व की दृढ़ आधारशिला पर आरूढ़ होने के उपरांत ही विश्ववाद अथवा प्राणीवाद की और उन्मुख होना स्वाभाविक प्रक्रिया कही जा सकती है| आज हमें अपने हिन्दू भाइयों के साथ व्यवहार करते समय यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिये कि हम एक विशिष्ट परम्परा, इतिहास और गुणों का प्रतिनिधित्त्व करते है| इस प्रकार हमारी वंश-मर्यादा और कुल-गौरव की भावना हमें नीच और घृणित कार्य करने से बचाती रहेगी| जातीय-स्वाभिमान की उच्च भावना हमारे व्यवहार को त्याग, उदारता, साम्य, सत्य, न्याय आदि गुणों के क्षेत्र से बाहर नहीं जाने देगी| इसीलिए आज हमें राजपूत होने का स्वाभिमान होना चाहिये| हमारी वंश और कुल-कीर्ति से हमारा हृदय और शरीर सदैव पुलकित रहना चाहिये| यदि वास्तव में हम अपनी जातीय-मर्यादा को समझते है तो अपने अन्य भाइयों के साथ दुर्व्यवहार कर ही नहीं सकते| इसी भांति जब हम अन्य धर्मावलम्बियों से व्यवहार करें तो सदैव इस बात को ध्यान में रखें कि हम एक अतिमहान उदार और सुसंस्कृत हिन्दू-परम्परा के प्रतिनिधि है| अतएव हमारे व्यवहार में कोई ऐसी बात नहीं होनी चाहिये जिससे महान उज्जल हिन्दू-संस्कृति के परमोज्जवल भाल पर थोड़ा-सा भी कलंक का छींटा लग जाय| जब हम विदेशियों के सम्पर्क में आये तब हमें भारत-राष्ट्र की मर्यादा और उसके उच्चादर्शों का सदैव ध्यान रखना चाहिए| यह तभी संभव हो सकता है जब हम सर्वप्रथम अपने अन्दर सतोगुणी जातीय-भाव का निर्माण कर उसे व्यवहार में लाने लग जायें| यह निश्चित बात है कि जिसे राजपूत होने का गर्व नहीं, उसे हिन्दू होने का भी गौरव नहीं हो सकता और जिसे हिन्दू होने का गौरव नहीं वह भारत-राष्ट्र का शुभचिंतक कदापि नहीं हो सकता| अतएव राष्ट्र-प्रेम और सुनागरिकता के लिए आवश्यक है कि भारतवासियों में परम्परागत गुणों के आधार पर जातीय-भाव का निर्माण किया जाय| आज का प्रभुता-संपन्न बुद्धिजीवी-वर्ग अपने स्वार्थ के लिए जातीय-भाव का जो विनाश कर रहा है वह किसी दिन भारत-राष्ट्र की एकता और स्वतंत्रता के लिए अभिशाप सिद्ध होगा|

सतोगुणी जातीय-भाव के निर्माण की पहली शर्त सामाजिक दृष्टिकोण का निर्माण है| हमें व्यक्तिगत उत्थान के स्थान पर सामाजिक उत्थान के लिए अपनी शक्तियों को लगाना है – सामाजिक ध्येय को व्यक्तिगत ध्येय बनाना है, सकारात्मक रूप में सामाजिक-उत्थान की रुपरेखा तैयार कर उस पर चलना है| ऐसा करने में विरोधी शक्तियों के विनाश की रूपरेखा पहले तैयार करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि सतोगुणी जातीय-भाव का मुख्य दृष्टि-बिंदु रचनात्मक होता है, विध्वंसात्मक नहीं| यदि प्रगति के मार्ग में बाधाओं के रूप में आने वाली विरोधी शक्तियों को हटाने की आवश्यकता पड़े तो वे हटाई जा सकती है, पर हमारा प्रथम ध्येय केवल उनको समाप्त करना मात्र ही नहीं होना चाहिये| हमें निर्माण के लिए विनाश करना है, विनाश के लिए निर्माण नहीं|

वर्तमान युग में सत्ता-संपन्न बुद्धिजीवी-वर्ग का सहारा पाकर कतिपय निम्न जातियों में जातीय-भाव का बीजारोपण हो रहा है, पर इन जातियों का जातीय-भाव प्रतिद्वंद्वी जातियों के विनाश को पहली शर्त मानकर कार्य करने के कारण शतप्रतिशत तमोगुणी है| दूसरों की राख की ढेरी पर अपना महल खड़ा करने की आकांक्षा को लेकर चलने वाले जातीय-भाव को ही आज के बुद्धिजीवी कांग्रेसियों की भाषा में “साम्प्रदायिक” कहा जा सकता है| कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रकार के संकुचित जातीय-भाव से किसी का भी कल्याण नहीं हो सकता| उसे शीघ्र अथवा देर में स्वत: समाप्त होना पड़ेगा|

क्रमश:.....

अंधकार में प्रकाश : भाग- अंतिम (राजपूत और भविष्य)

भाग- २ से आगे......

साध्य और स्वधर्म का जहाँ तक प्रश्न है वहां लोग अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति के लिए मनमाना अर्थ भी निकाल लेते है, पर साध्य और स्वधर्म को एक ही पहलू के दो रूप मान लेने के विशेष कारण है| संसार में बहुत से ऐसे व्यक्ति है जो परिस्थिति विशेष से जीवन ग्रहण करते रहते है, पर इस प्रकार का परिस्थिति सापेक्ष जीवन अमर कदापि नहीं हो सकता| आज की परिस्थितियां कुछ ऐसी ही है जो संस्थाओं को जन्म देती है उनका कहना होता है – कल्याणकारी राज्य की स्थापना करेंगे; समाजवादी समाज का निर्माण करेंगे और देश से गरीबी और भ्रष्टाचार को उखाड़ फेकेंगे| पर उन सब कार्यों के हो चुकने के बाद क्या होगा- खुद को मिटाना अथवा रूपांतरित करते रहना ? इस प्रकार की संस्थाएं सदैव अपूर्ण सुख की कल्पना करके अपूर्ण ही बनी रहती है और इसलिये उनका जीवन स्थाई और दृढ़ नहीं रहता| न उनमें जीने वाले व्यक्तियों का ही सर्वंगीण विकास संभव हो सकता है| यह ध्रुव सत्य है कि शाश्वत सुख की कल्पना केवल शाश्वत पदार्थों से ही हो सकती है| किसी संस्था के जीवन को स्थायी बनाना है तो उसका उद्देश्य अथवा ध्येय भी देश, काल और परिस्थिति निरपेक्ष स्थायी होना आवश्यक है| हमें एक ऐसे संघर्ष में सम्मिलित होना है जो सृष्टि के आदि से प्रारंभ होकर आज तक चलता आया है और आगे भी बना रहेगा| प्रकाश और अंधकार, सत्य और असत्य, न्याय और अन्याय, भलाई और बुराई का द्वंद्व शाश्वत है, इसलिये यह सम्पूर्ण जगत द्वन्द्वात्मक है| हमें इन दोनों पक्षों में से एक का पक्ष लेना ही पड़ेगा| अतएव किसी व्यक्ति अथवा संस्था के साध्य में एक ऐसा अमर सत्य होना चाहिए जो अंत काल तक स्थाई बना रहे| काल की सीमाओं से आबद्ध साध्य अपूर्ण है|

साध्य को देश की सीमाओं से भी घिरा हुआ नहीं होना चाहिये| नाश करने की संभावना सबल द्वारा ही हो सकती है, निर्बल क्या विनाश कर सकता है|इसलिए हानि-रहित समाज अमृत होकर जीता है और नाशकारी समाज विष होकर जीता है| बिना परिणाम की चिंता किये और बिना आसक्ति के किसी निर्बल, दीन, असहाय की सहायता की जाती है तो वह किसी देश और समाज विशेष की सीमाओं से घिरे हुए जन-समुदाय को ही अपना कार्य-क्षेत्र बनाने की भावना से अधिक उदार और अनुकरणीय है| दुष्ट पिता का वध भी निषिद्ध नहीं है, क्योंकि न्याय की दृष्टि में मनुष्य मात्र में कोई भेद नहीं होता| अतएव जो साध्य देश, काल, परिस्थिति और व्यक्ति की सीमाओं से बद्ध नहीं है, उसी साध्य में स्थायित्व है और वही चिरन्तन सत्य का प्रतिरूप है|

उपर्युक्त विवेचना को ध्यान में रखते हुए यदि हम अपनी सबसे प्रबल विरोधी शक्ति बुद्धिजीवी-वर्ग द्वारा संचालित कांग्रेस की विवेचना करें तो ज्ञात होगा कि कांग्रेस आज एक निरुद्देश्य संस्था है| आप किसी खद्दरधारी महाशय या गांधी टोपीधारी नेताजी से पूछिये कि आपका ध्येय क्या है ? उत्तर मिलेगा- मेरा ध्येय वही है जो कांग्रेस का ध्येय है| फिर पूछिए- कांग्रेस का क्या ध्येय है ? इस प्रश्न को आप भिन्न भिन्न दस नेताओं से पुछ लीजिये और आपको दस प्रकार के परस्पर विरोधी उत्तर मिलेंगे| वे उत्तर इस प्रकार के होंगे –“हमारा ध्येय और अहिंसा है| हम साम्यवाद से देश की रक्षा करना चाहते है, हम लोगों के जीवन स्तर को उठाना चाहते है| हम कल्याणकारी राज्य की स्थापना चाहते है| हम समाजवादी समाज का निर्माण चाहते है| हम विश्व में सह-अस्तित्त्व की भावना को क्रियान्वित करना चाहते है’, आदि आदि| इसका वास्तविक अर्थ यह है कि कांग्रेस के पास आज कोई ध्येय नहीं है| येन केन प्रकारेण सत्ता पर अधिपत्य करके उसे हर उचित या अनुचित उपाय से अपने अधिकार में रखना मात्र आज कांग्रेस का ध्येय बन चुका है| इसीलिए इसी ध्येय की पूर्ति के लिए प्रसंग और आवश्यकतानुसार कांग्रेस का ध्येय निरंतर बनता बिगड़ता रहता है| जिन लुभावने नारों से जनमत को आकर्षित किया जाकर उससे मत लिए जा सकते है, वे ही नारे कांग्रेस का ध्येय बन जाते है| जनता को आकर्षित करने वाले भिन्न-भिन्न प्रान्तों में और भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न भिन्न नारे हो सकते है, इसलिए भिन्न-भिन्न प्रान्तों और परिस्थितियों में कांग्रेस का ध्येय भी भिन्न-भिन्न बन जाता है|

अतएव यह तो स्पष्ट ही है कि कांग्रेस के पास आज कोई अपना निश्चित और शाश्वत सिद्धांत पर आधारित ध्येय नहीं है| जिस संस्था के पास कोई स्थायी ध्येय नहीं, ऐसी संस्था के ध्येय को अपने जीवन का ध्येय मानकर चलने वाले व्यक्तियों का उत्थान भी असंभव है| वे सत्ता का सहारा पाकर चंद दिनों तक मालामाल भले ही हो सकते है, पर उनके व्यक्तित्त्व के पूर्ण विकास की गुंजाइश इस प्रकार की संस्था में कदापि नहीं हो सकती| “सत्ता-प्राप्ति के लिए लुभावने सिद्धांतों की ओट में जनता को गुमराह करते रहो, उसे आपस में लड़ाकर अपना काम बनाये जाओ, सत्ता-प्राप्ति के पश्चात् धन एकत्रित करके स्वयं सबल बनो और अपने बंधू-बांधुओं को भी सबल बनाओ, सहयोगी जनों को नौकरियों और व्यापार में प्राथमिकता दो, विरोधियों को कुचलने के सब उपाय काम में लेते रहो और सदैव वे उपाय करते रहो जिससे सत्ता कभी भी हाथ से निकलने न पावे|” इस उपर्युक्त संदेश के अतिरिक्त आज कांग्रेस के पास और कौनसा व्यावहारिक संदेश है जो वह अपने सदस्यों के जीवन में दे सके|

अतएव क्षणिक, सामयिक एवं परिस्थितिजन्य सिद्धांतों पर आधारित उद्देश्य को लेकर चलने वाली कांग्रेस का अध:पतन अवश्यम्भावी है| कांग्रेस-संगठन का एकमात्र आधार व्यक्तिगत और संस्थागत स्वार्थ है| उसमें न निश्चितता, न शाश्वत और न प्रकृति अनुकूलता ही है| अतएव देश, काल परिस्थितिसापेक्ष उद्देश्यवान कांग्रेस को निकट भविष्य में पतन से बचाने की किसी में सामर्थ्य नहीं है|

यदि यह मान लिया जाय कि देश का शासन करना कांग्रेस का वास्तविक उद्देश्य है और अन्य सब प्रकार के घोषित उद्देश्य केवल इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन मात्र है तो भी इससे कांग्रेस का जीवन लंबा नहीं बन सकता| क्योंकि इस प्रकार के कार्य में छल और कपट प्रत्यक्ष है और अब भारत की स्वतंत्रवेता जनता ने असली और नकली में अंतर करना सीख लिया है|

और यदि कांग्रेस के सामयिक उद्देश्य की ही व्याख्या की जाय तो भी भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के सर्वथा विपरीत है| किसी भी राष्ट्र की अपनी परम्परायें और मान्यताएं होती है| ये परम्पराएँ और मान्यताएं राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन का आधारभूत अंग होती है| प्रत्येक राष्ट्र उन्हीं परम्पराओं और मान्यताओं को आधारभित्ति बनाकर उन्नति के भवन का निर्माण करना है और वास्तविक उन्नति तभी संभव हो सकती है| एक देश की परम्पराएँ और उन्नति के उपाय दुसरे देश में लाभदायक कदापि नहीं हो सकते| और यदि सत्ता के बल से इस प्रकार की विजातीय और विदेशी विचारधारायें, रीतिरिवाज देश में बलात प्रचलित किये जाते है तो इस प्रकार के कार्यों की प्रतिक्रिया विपरीत होती है और यही प्रतिक्रिया आगे चलकर निरंकुश सत्तान्धों को समाप्त करने का मूल कारण बनती है| आज कांग्रेस सत्ता का सहारा पाकर विधि व अन्य उपायों द्वारा सुधारवाद की ओट में हिन्दू धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के मूल पर आघात पर आघात कर रही है| यह तो समय ही बतायेगा कि इस प्रकार की विजातीय व विदेशी विचारधाराओं का भारतीय जन-जीवन के साथ एकीकरण कराने में कांग्रेसी बुद्धिजीवी-वर्ग कहाँ तक सफल होगा| पर इतना निश्चिन्त है कि इस प्रकार के कार्यों से इन कांग्रेसियों ने जनता के बड़े अंश को क्षुब्ध कर रखा है| अभी भारतियों में सांस्कृतिक चेतना का संचार नहीं हुआ है| भौतिक उन्नति के पश्चात् इस प्रकार की चेतना का संचार होना आवश्यक है| हमें जनता में इस सांस्कृतिक चेतना का संचार करना चाहिये|

अब थोड़ी देर के लिए कांग्रेस के साधक (व्यक्ति), साधना (कार्यप्रणाली) और साधनों पर भी विचार कर लेना चाहिये| कांग्रेस के साधकों की एकता की कड़ी केवल राष्ट्र की भौगोलिक सीमा है| बाढ़ के समय प्राणों पर संकट आया देख चूहे, बिल्ली, कुत्ते, शेर आदि एक टीले पर चढ़ जाते है तो क्या वह सम्मलेन किसी संगठन का सूचक होगा? परतंत्रतावादी बाढ़ के निवारण के लिए विरोधी हितों और स्वभाव वाले बहुत से व्यक्ति एक संस्था में सम्मिलित हो गये, पर इससे क्या राष्ट्रीय आत्मा का निर्माण हुआ? जिस प्रकार बाढ़ समाप्त होने पर बिल्ली चूहे पर कुत्ता बिल्ली पर झपटता है उसी प्रकार परतंत्रता रूपी बाढ़ के हट जाने पर कांग्रेस अन्य संस्थाओं पर झपटने लगी जिससे साम्यवादी, समाजवादी, फारवर्ड ब्लाक आदि संस्थाएं उससे अलग हो गई| सत्तारूढ़ होने के कुछ ही दिन उपरान्त कांग्रेस से पृथक हुए व्यक्तियों द्वारा प्रजा-समाजवादी दल और न मालूम और कितने दलों का निर्माण हो गया| यह क्यों ? इसलिए कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद कांग्रेस जनों को परस्पर एक सूत्र में बांध रखने वाली वस्तु केवल स्वार्थ थी| जब स्वार्थों में परस्पर टक्करें हुई तो विघटन आवश्यक हो गया| आज स्थिति यह है कि लगभग सभी प्रान्तों में सत्ता की छिनाझपटी के लिए कांग्रेसी आपस में लड़ रहे है| पुराने कार्य-कर्ता कांग्रेस से पृथक हो रहे है और नये स्वार्थी तत्व उसमें प्रवेश कर रहे है| कांग्रेस आज यादवी-नीति के पथ पर है| पाप का घड़ा शीघ्र ही भर रहा है| व्यक्तिवाद और स्वार्थ का इतना निर्लज्ज और नग्न ताण्डव करके भी यदि कोई संस्था सत्तारूढ़ रह सकती है तो समझना चाहिये कि विधि का विधान बदल गया है पर ऐसा होना असंभव है| कांग्रेस का उसकी स्वयं की नीति के कारण निकट भविष्य में ही पतन अवश्यमभावीहै| उसे एक बार तो पदच्युत, सत्ताच्युत होना ही पड़ेगा| इस पतन के बाहरी कारण इतने प्रबल नहीं है जितने भीतरी है| कांग्रेस की साधना-प्रणाली में त्याग पर बल दिया गया है और इस त्याग की वास्तविक कसौटी रखी गई है जेलयात्रा| इसीलिए जेल जाने वाले कांग्रेसियों के त्याग को मान्यता देकर राजनैतिक पीड़ितों के नाम पर जनता का काफी धन उनके भरण-पोषण के लिए खर्च किया जा रहा है| जेलों का भोजन साधारण भारतीय परिवारों की अपेक्षा अच्छा होता है और विशेष कर उस समय राजनैतिक बन्दियों को तो अनेक सुविधाएँ मिला करती थी| स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस का त्याग केवल जेल जाने तक ही सीमित रहा है| जो व्यक्ति फांसी के तख्तों पर लटके अथवा संघर्ष में वीरतापूर्वक लड़ते हुए काम आये उनको हिंसा का आश्रय लेने के कारण कांग्रेस ने कभी अपना नहीं माना| त्याग के इतने घटिया उदाहरण राष्ट्र के सामने रखे गए है जिससे वास्तव में जब उच्च कोटि के त्याग करने का समय आता है तो राष्ट्र के कांग्रेसी-विचारधारा से प्रभावित नौजवान केवल जेल जाने तक का ही साहस कर पाते है| इनका वीरत्त्व आज जोशीले भाषणों और शाब्दिक विरोधों तक ही सीमित हो गया है| अपने से कमजोर और निस्सहाय को कुचलना और शक्तिशाली के समक्ष घुटने टेक कर आत्म-समपर्ण करते रहना ही इन बुद्धिजीवियों का वीरत्त्व और त्याग है| देश का विभाजन होते समय जब रक्तिम क्रांति हुई तब एक भी कांग्रेसी सज्जन का रक्त नहीं बहा| वास्तव में कांग्रेस के सर्वेसर्वा बुद्धिजीवी-वर्ग की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह वास्तविक त्याग करने से डरता है| वह स्वयं मरने और खून बहाने से बहुत घबराता है| वह अपनी स्वार्थ-सिद्ध के लिए दूसरों को बलिदान का बकरा बना का उन्हें मरने के लिए प्रेरित कर सकता है, पर जब स्वयं के मरने और त्याग करने का समय आता है तो दीनतापूर्ण आत्म-समर्पण के अतिरिक्त उसके पास और कोई उपाय शेष नहीं रहता| मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाने के लिए इस बुद्धिजीवी-वर्ग की इस संस्कारजन्य-निर्बलता को भली-भांति पहचान लिया था| यह वर्ग स्वयं अपनी इस जन्मजात निर्बलता को जानता है और इसीलिए इस प्रकार के अवसर को असंभव बना डालने हेतु इनकी अदभुत सक्रियता और सतर्कता को प्रत्येक क्षेत्र में देखा और अनुभव किया जा सकता है|

आज जो साधन इस बुद्धिजीवी-वर्ग ने अपना रखें है वे बहुत कपट-पूर्ण और मायावी होते हुए भी बहुत कुछ अंशों में तथ्यों से रहित होते है| नाजी नेता डाक्टर गोबेल्स का कहना था कि किसी भी झूंठ को तीन बार सत्य की भांति ही दोहरा दिया जाय तो जनता उसे सत्य ही समझने लग जायेगी| इस बुद्धिजीवी-वर्ग ने मानो इसी वाक्य को अपना गुरु-मन्त्र माना है और इसीलिए देश के प्रेस और रंगमंचों पर एकाधिपत्य करके इस वर्ग ने प्रत्येक क्षेत्र में झूंठ पर सुनहले सत्य का आवरण चढ़ा रखा है| इस प्रकार का मिथ्या प्रचार लंबे समय तक चल नहीं सकता| जब तक जनता अज्ञानी और अनभिज्ञ रहती है तभी तक इस प्रकार के मिथ्याडम्बर संभव हो सकते है| व्यक्तिगत क्षेत्र में और क्या संस्थागत क्षेत्र में, चरित्रता के विस्तृत और ठोस उदाहरण इस बुद्धिजीवी-वर्ग में मिलते है वे नि:संदेह हमारे लिए निराशा में आशा की स्वर्णिम लालिमा विकीर्ण करने वाले है|

-: समाप्त:-


अंधकार में प्रकाश : भाग-२ (राजपूत और भविष्य)

भाग -१ से आगे.........

उपर्युक्त सब गुणों के विकास और प्रयोग के लिए सुदृढ़ चरित्र शक्ति की आवश्यकता होती है| चरित्र की दृष्टि से कतिपय अमीर राजपूतों का चरित्र निम्न श्रेणी का कहा जा सकता है, पर वास्तव में बहुसंख्यक व्यक्तियों का चरित्र आज भी सर्वोपरि है| चरित्र के अंतर्गत केवल यौन- संबंधी आचार ही नहीं आते, अपितु उसके अंतर्गत मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को संवारने वाले सब गुणों का समावेश हो जाता है| चरित्र के अंतर्गत वचन और कर्म की वे सब विशेषताएँ आ जाती है जो मनुष्य के व्यक्तित्व को उठाने या गिराने में सहायक होती है, सौभाग्य की बात है कि राजपूत जाति का अधिकांश भाग आज अपेक्षाकृत कम बेईमान, कम असत्य भाषी, कम अविश्वसनीय और कम अन्य चारित्रिक दुर्बलताओं वाला है| इतने वर्षों तक राज-सत्ता उपभोग करने के उपरांत भी राजपूत जाति चारित्रिक अध:पतन के उस गहरे गर्त में नहीं गिरी है जिसमें हमारा प्रतिपक्षी बुद्धिजीवी वर्ग केवल पांच-सात वर्ष शासन करने के उपरांत ही गिर चुका है| वास्तविकता तो यह है कि सत्तारूढ़ राजपूत का चारित्रिक और नैतिक पतन इतनी शीघ्रता और गहराई से नहीं होता जितनी शीघ्रता से सत्ता-विहीन होने से होता है| हमें सब प्रकार की अनुकूल अथवा विपरीत दशाओं में अपने चारित्रिक बल को सदैव सर्वोपरि रखना चाहिए| उच्च चारित्रिक बल समाज-चरित्र की पहली शर्त है| इस व्यक्तिगत चारित्रिक विशेषता के कारण ही समाज-चरित्र का निर्माण होता है| आज समाज-चरित्र को और भी ऊँचा उठाने की आवश्यकता है| आगे चलकर यही समाज-चरित्र हमारी उन्नति का मेरु-दंड सिद्ध होगा| चारित्रिक दृष्टि से पतित समाज, संस्था अथवा कोई भी जाति उन्नति की भाषा में सोच नहीं सकती| हमारे बालकों में चरित्र संबंधी व्यावहारिक संस्कारों के निर्माण की सबसे अधिक आवश्यकता है| इस चारित्रिक सबलता की पराकाष्ठा हमें अपने स्त्री-समाज में मिलेगी| राजपूत स्त्री समाज में रूढिवश कई त्रुटियाँ घर कर गई पर उन्होंने अपने अमूल्य आभूषण सतीत्व को अभी तक ज्यों का त्यों सुरक्षित रख छोड़ा है| चरित्र-भ्रष्टता के इस युग में आज भी पति के शव के साथ अग्नि-स्नान करने वाली राजपूत महिलाओं की कमी नहीं है| वास्तव में देखा जाय तो इन्हीं सतियों के सत और धर्मपरायणता से यह जाति अभी तक जीवित बची हुई है| हिन्दू कोड का समर्थन करने वाली और पाश्चात्य वातावरण और संस्कारों से प्रभावित आज की कतिपय नवयुवतियां क्या समझे कि सतीत्व का महान आदर्श कितना उच्च और मूल्यवान होता है ? चंचल कौए को राजहंस की मर्यादा का क्या अनुभव! राजपूत जाति जब उन्नति के सर्वंगीण मार्ग पर अग्रसर होने लगेगी तब स्त्री समाज का यह सतीत्व और चारित्रिक-बल नि:संदेह अमृत तुल्य वरदान सिद्ध होगा|

राजपूतों का व्यक्तिगत और सामाजिक प्रभाव उनकी अपनी विशेषता है| जहाँ जहाँ भी वे बसे हुए है वहां-वहां वे अन्य जातियों के स्वाभाविक नेता है| इस व्यक्तिगत प्रभाव को हमें जन-साधारण की सेवा करके और भी अधिक बढ़ाना चाहिये| वास्तव में राजपूत का जन्म ही नेतृत्व करने के लिए होता है और उसे केवल इसी स्थिति की प्राप्ति से संतोष करना चाहिए| पर ये नेतृत्व ठोस-त्याग, परोपकार और क्रियाशीलता के आधार पर ही संभव हो सकता है|

इसी भांति राजपूत जाति की श्रेष्ठता के सामने आज सब जातियां नमनशील है| अभी कुछ समय से बुद्दिजीवी वर्गों ने जनता को सुनहले स्वप्न दिखाकर अपने पक्ष में कर रखा है, पर ज्योंही इस वर्ग का नग्न और वास्तविक स्वरूप प्रगट हो जायेगा, त्योंही जनता इस बुद्धिजीवी-वर्ग से विद्रोह कर देगी| आज भी राजपूतों का अधिपत्य सब वर्गों और जातियों को स्वीकार हो सकता है, पर अन्य बुद्धिजीवी वर्गों का अधिपत्य वे अधिक दिनों तक स्वीकार नहीं करेंगे| यह केवल जनता का आत्मलघुत्त्व की भावना का प्रतिफल नहीं है, परन्तु राजपूत जाति के प्रति उसके स्वाभाविक आकर्षण और प्रेम का ही परिणाम है| हमें इस नये शासक-वर्ग के नग्न रूप को जनता के सामने व्यवस्थित रूप से रखना होगा तथा अपनी जातीय-श्रेष्ठता को हर कीमत पर बनाये रखना होगा|

आज जिस बुद्धिजीवी-वर्ग ने राजपूतों को पददलित कर रखा है, वह वर्ग अजेय नहीं है| इस वर्ग के विनाश के उपकरण आज भारी मात्रा में एकत्रित हो चुकें है| विरोधियों के इस भावी अध:पतन की रुपरेखा को हम दो भागों में विभाजित कर सकते है; प्रथम समाज-विकास के स्वाभाविक क्रम के आधार पर और दुसरे विरोधियों की व्यक्तिगत और संस्थागत अपूर्णताओं के आधार पर|

समाज-विकास के स्वाभाविक क्रम के अनुसार अब हम देख चुकें है कि, किस प्रकार क्षत्रियों द्वारा ब्राह्मणों का और बनियों द्वारा क्षत्रियों का पतन हो चुका है| और यह भी देख चुके है कि किस प्रकार बुद्धिजीवी ब्राह्मणों ने युगधर्म को पहिचाना और बनियों से सांठ-गांठ करके क्षत्रिय-पतन में योग दिया| अब देखना यह है कि किस प्रकार वैश्य-ब्राह्मण गठबंधन आज ढीला पड़ता जा रहा है|

अब तक समाज अधिपत्य का विचार क्रमश: विद्या, बाहुबल और अर्थ रहते आये है| ब्राह्मणों ने अपने विद्या और तप के बल से समाज पर आधिपत्य जमाया| बाहुबल और अर्थ अर्थात दुर्गा व लक्ष्मी, सरस्वती के अधीन होकर रहने लगी| तत्पश्चात क्षत्रियों ने बाहुबल पर विद्या को आश्रित बना दिया| शक्ति ही समाज-अधिपत्य की एकमात्र कसौटी बनी रही| भगवती दुर्गा ने विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को अपने ऊपर निर्भर बना लिया| ब्राह्मण-प्रभुत्त्व का पतन और क्षत्रिय-प्रभुत्त्व का उत्थान हुआ| पर कालांतर में शक्ति अखंड और स्वावलम्बिनी नहीं रह सकी| वैश्यों की चकाचौंध उत्पन्न करने वाली मुद्राओं ने उसे हतप्रद कर लिया| अब ब्राह्मणों का जप,तप और क्षत्रिय का बाहुबल सर्वशक्तिमान मुद्रा रूपी मोहिनी शक्ति के पैरों को चूमने लगे| लक्ष्मी ने विद्या की देवी सरस्वती और शक्ति की देवी दुर्गा दोनों को पराजित किया| सरस्वती-पुत्र ब्राह्मण अपनी सब हेंकड़ी छोड़कर लक्ष्मी-पुत्र बनियों का दास बन गया| पर दुर्गा-पुत्र क्षत्रिय ऐसा करने में असमर्थ रहा और इसीलिए उसके विनाश के उपकरण जुट पड़े| पर लक्ष्मी का यह अधिपत्य भी चिरन्तन न रह सकेगा| बनियों के इस प्रभुत्त्व-काल में धन का संचय थोड़े से ही हाथों में केन्द्रित हो गया| बनियों ने अपने रूपये के बल से ब्राह्मण की विद्या और बुद्धि को ख़रीदा, राज-शक्ति को दबाये रखा और शुद्र श्रमिक-वर्ग की सेवाओं का मनमाना उपभोग किया| इन सब कारणों से बनियाँ-युग की प्रतिक्रिया भी आरम्भ हो गई| जिस श्रमजीवी शुद्र जाति के परिश्रम पर ब्राह्मणों का अधिपत्य, क्षत्रियों का वैभव और वैश्यों का धन निर्भर रहा है वे शुद्र अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गये है| भारत में अब श्रमजीवी शुद्र युग का सूत्रपात हो गया है| वैश्यों के हाथ से प्रभुत्त्व निकल कर अब श्रमजीवी शूद्रों के हाथों में आने लग गया है| ब्राह्मणों की विद्या, क्षत्रियों का बाहुबल और वैश्यों का धन-बल शूद्रों के श्रम-बल के समक्ष सर्वथा क्षीणप्रभ होकर निस्तेज और पंगु बनने लग गया है| सरस्वती और दुर्गा तो लक्ष्मी द्वारा पहले ही पराजित हो चुकी थी| अब नवागन्तुक चाण्डाली देवी ने लक्ष्मी को भी हतप्रद करके उसे अपने स्थान से पदच्युत कर दिया है| भारतीय संविधान में दी गई राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समानता और समाजवादी समाज की रचना के उद्देश्य को लेकर चलने के कारण भारत का प्रभुत्त्व अब विधानत: अल्प-संख्यक बुद्धिजीवियों के हाथों से निकल कर बहुसंख्यक श्रमजीवियों के हाथों में आ रहा है| वह दिन दूर नहीं जब श्रमजीवी अपनी शक्ति और सामर्थ्य के प्रति जागरूक होकर एक दिन इन बुद्धिजीवियों को पददलित कर स्वयं सत्तारूढ़ होने को आगे बढ़ जायेंगे| आज बुद्धिजीवी शक्तियाँ ह्रासोन्मुखी और श्रमजीवी शक्तियां विकासोन्मुखी है, अतएव इस समय सबसे अधिक आपत्ति और चिंता में कोई वर्ग है जो वह पूंजीवादी बनियाँ-वर्ग| इस बार भी बुद्धिजीवी ब्राह्मण-वर्ग ने युगधर्म पहचान कर लाभ उठाना प्रारंभ कर दिया है| ब्राह्मण वर्ग ने जिस भांति क्षत्रिय-अधिपत्य के समय क्षत्रियोचित गुणों और वैश्याधिपत्य के समय वैश्योचित गुणों का अपने में आरोपण कर लिया था उसी भांति आने वाले शुद्र्वाद के लिए वह शुद्रोचित गुणों को अपनाकर फिर से समाज का अगुवा बनने जा रहा है|

यद्यपि वैश्यों की सहायता से भारत का शासन कार्य अधिकांशत: ब्राह्मणों के हाथों में आ गया तथापि अंतर्राष्ट्रीय विकासक्रम के प्रति जागरूक होकर पाश्चात्य संस्कारों से प्रभावित ब्राह्मणों के एक बड़े अंश ने एक एक करके शुद्रत्त्व के सभी गुणों को अपनाना प्रारंभ कर दिया है| यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि अर्जन सदैव बुरी प्रवृतियों और दुर्गुणों का ही आसानी से होता आया है| यही कारण है कि अब तक ब्राह्मण शुद्रत्त्व के उच्चतम गुणों के स्थान पर उसके निकृष्टतम गुणों को अपनाने में ही सफल हुए है|

भारतीय पूंजीवादी बनिये ने बुद्धिजीवी ब्राह्मण की सहायता से क्षत्रिय-वर्ग को तो गिरा दिया पर अब शुद्रत्त्व के अति निकृष्टतम गुणों से वशीभूत अपने सहयोगी ब्राह्मण द्वारा पददलित होने का उसके सामने प्रत्यक्ष खतरा उत्पन्न हो गया है| अब ब्राह्मण बनियों के नियंत्रण से बाहर जा रहे है| आये दिन संपत्ति के अपहरण करने और आय को सीमित करने वाले बनाये जाने वाले कानून इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण है| समाजवादी राज्य के अंतर्गत राष्ट्रीय और करों की भरमार का भूत अब उसे लग चुका है| जिस प्रकार ब्राह्मण ने समय की आवश्यकता को पहचान कर शुद्रत्त्व को अपना लिया है, उसी प्रकार समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्थाओं के रूप में बनियाँ स्वेच्छा से शुद्रत्त्व को अपनाकर अपनी संचित पूंजी का महल ढहाने का साहस नहीं कर सकता| अतएव आज का बनियाँ-ब्राह्मण मित्र निकट भविष्य में ही दो विरोधी शिविरों को अपनाते हुए परस्पर शत्रु रूप में दिखाई देंगे| ब्राह्मण अधिकाधिक वामपंथी और बनियाँ दक्षिणपंथी होंगे| भविष्य में बनियाँ के सम्मानपूर्वक अस्तित्त्व का यदि कोई आधार हो सकता है तो वह है- क्षत्रिय वर्ग|

बुद्धिजीवियों द्वारा नियंत्रित कांग्रेस द्वारा समाजवादी व्यवस्था को अपनाना प्रत्यक्ष श्रमजीवी शुद्रत्त्व को महत्त्व देना है| श्रमजीवी शुद्रत्त्व को इस प्रकार महत्त्व देना बनिये के निहित स्वार्थों के विरुद्ध पड़ता है| इस कार्य में ब्राह्मणों ने सबसे अधिक उत्साह और सक्रियता दिखलाई है, अतएव पूंजीवादी अपने ब्राह्मण मित्रों के इस कार्य को अपने प्रति विश्वासघात समझते है| वे आज समाजवादी नारों और कार्यक्रमों से प्रसन्न नहीं है पर ब्राह्मणों के हाथों में सत्ता की बागडोर होने के कारण कुछ भी करने में असमर्थ है| अतएव भारतीय समाज विकास के क्रम के आधार पर निकट भविष्य में ही क्षत्रिय-पतन के लिए जिम्मेवार दो वर्गों ब्राह्मण-बनियों में राजनैतिक दृष्टि से फूट पड़ना आवश्यक है| यही नहीं इस कार्यक्रम को लेकर ब्राह्मण-वर्ग में भी फूट पड़ जावेगी| ब्राह्मणों का एक प्रभावशाली अंश दक्षिणपंथी संस्थाओं में आकर सक्रीय हो जावेगा और कुछ वामपंथी बन जावेंगे| इस फूट के कारण विरोधियों के आज के संगठन इस कांग्रेस रूपी मोर्चे में अवश्य निर्बलता और शिथिलता आयेगी| यह शिथिलता और निर्बलता हमारे लिए वरदान तुल्य सिद्ध होगी, इसमें संदेह नहीं| इस प्रकार हमारे विरोधियों की आज सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि शुद्रत्त्व को अपनाने संबंधी नीति को लेकर उनमें फूट उत्पन्न होगी, पर यह फूट जब तक बाहर दिखाई नहीं देगी तब तक कोई अन्य प्रभावशाली कार्यक्रम, ढहते हुए पूंजी के महल को सांत्वना का सहारा देने को समर्थ न होगा|

हमारे आज के विरोधियों की सबसे बड़ी कमजोरी है उनका उद्देश्यहीन होना| व्यक्ति का उद्देश्य अथवा साध्य उसका स्वधर्म है| जो व्यक्ति अपना ईश्वरप्रदत साध्य भूलकर राज्य-रहित समाज की और धर्म-रहित राज्य की कल्पना करता है वह पाखंडी है, इसीलिए व्यक्ति को स्वधर्म का पालन करना ही चाहिये| संस्थाएं व्यक्तियों से बनती है, उनमें व्यक्ति इसलिए सम्मिलित होते है कि वैयक्तिक भावना का निर्माण कर सारे समाज को अपने साथ ऊपर उठावें| वैयक्तिक रूप से कई महापुरुष हो चुके है और होंगे| उन्हें अपने उत्थान के लिए संस्थाओं की भी आवश्यकता नहीं रहती, पर सामाजिक उत्थान चाहते है उन्हें संस्थाएं बनाने की आवश्यकता रहती है| संस्थाएं भी अनुशासनमय सहयोग और सामूहिक जीवन की भावना का निर्माण कर व्यक्तियों का उत्थान करना चाहती है अतएव इन दोनों ही दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्ति के उत्थान की भावना से प्रेरित नहीं होती वे लोकप्रिय कभी नहीं बन सकती| व्यक्ति के उत्थान का तात्पर्य है उसके जीवन का संसार के लिए सदुपयोग| स्वधर्म व्यक्ति को उपयोगी बनाता है| वही संसार में उसका स्थान ढूंढकर निकालता है, इसलिए स्वधर्म ही सच्चा साध्य है|

क्रमशः......

Thursday, October 17, 2013

अंधकार में प्रकाश : भाग-१ (राजपूत और भविष्य)

निर्दिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम एक पूर्ण व्यवस्थित योजना की आवश्यकता रहती है| पूर्ण व्यवस्थित योजना के मुख्यत: दो पहलु होते है- प्रथम अपनी निर्बलताओं और विरोधियों की विशेषताओं को ध्यान में रखना और दुसरे अपनी विशेषताओं और विरोधियों की निर्बलताओं को ध्यान में रख कर कार्य करना| गत अध्यायों में हम विरोधियों की विशेषताओं और अपनी निर्बलताओं का अध्ययन कर चुके है| इस अध्याय में हमें अपनी विशेषताओं और विरोधियों की निर्बलताओं पर विशेष रूप से विचार करना है| जिस प्रकार अपनी अपूर्णतायें और विरोधी शक्ति की विशेषताएँ हमारे निरुत्साह और निराशा का कारण हो सकती है, उसी प्रकार अपनों विशेषताएँ और विरोधी शक्ति की अपूर्णतायें हमारे उत्साह और आशा का कारण अन सकती है| हमें अपनी अपूर्णताओं को दूर करना, विरोधी शक्ति की निर्बलताओं से सदैव लाभ उठाते रहना चाहिए| भगवान् के इस अटल नियम पर विश्वास रखना चाहिए कि अंधकार की उपस्थिति के साथ प्रकाश की उपस्थिति भी अनिवार्य है| इसी विश्वास के साथ हम अन्धकार से प्रकाश तथा निराशा से आशा की ओर बढ़े|

राजपूत जाति में व्यक्तिगत और कुलगत अहं-भाव होते हुए भी अपेक्षाकृत सामाजिक अनुशासन की उतनी कमी नहीं है| समाज की एकचालकानुवर्तित्त्व की संस्कारजन्य मनोवृति के कारण संकट के समय एक नेतृत्व के नीचे आ जाना राजपूत जाति की स्वाभाविक विशेषता है| यद्यपि गत सैंकड़ों वर्षों से इस गुण की न परीक्षा की गई और न इससे लाभ उठाया गया है, पर राजपूत जाति के आंतरिक संस्कारों से परिचित व्यक्ति से यह गुण छिपा नहीं रह सकता| महान संकट उपस्थित हो जाने दीजिये, मृत्यु को सर्वनाश के उपकरण लेकर सामने आने दीजिये और प्रतिरोध के लिए आप राजपूत समाज का आव्हान करिये| आप देखेंगे, तब वहां न कायरता मिलेगी, न स्वार्थ और न अहंभाव की प्रवृति; आपको केवल मृत्यु से लोहा लेने को प्रस्तुत आज्ञा-पालन की प्रतीक्षा से हँसते हुए हजारों चेहरे मिलेंगे| वहां क्यों, कब, कैसे आदि तर्क-प्रधान और निर्बलतासूचक प्रश्नों का नामोनिशान भी न होगा| सामने का खतरा जितना भयंकर होगा, राजपूत जाति की प्रतिक्रिया भी उसी अनुपात में भयंकर होगी| पर शांति के समय इस प्रकार के प्रतिक्रियात्मक अनुशासन में अपने को बांधना राजपूत जाति ने नहीं सीखा है| शांति के समय इसी प्रकार की अनुशासन की भावना उत्पन्न करना किसी संस्कारमयी प्रणाली द्वारा ही संभव हो सकती है| इतने विश्वास-पात्र वीर और त्यागी अनुयायी भारतवर्ष में किसी भी नेतृत्व के पास नहीं है|

सामाजिक अनुशासन का जवलंत उदाहरण हमें राजस्थान के प्रथम आप चुनाव और भू-स्वामी संघ के आन्दोलन में देखने को मिला| यद्यपि कोई शाश्वत उद्देश्य समाज के सामने नहीं रखा गया था, कोई निश्चित नीति निर्धारित नहीं की गई थी और वास्तव में न कोई महान संकट ही सामने था| उन चुनावों में राजपूतों का एक भी मत विरोधियों कि पेटी में जाकर नहीं गिरा और भू-स्वामी संघ के आन्दोलनों में राजपूत का एक घर भी नहीं बचा जिसने तन-मन-धन से सहयोग न दिया हो| भू-स्वामी संघ के आन्दोलन में राजपूत शक्ति का परीक्षात्मक प्रयोग था और यह हर्ष की बात है कि प्रथम प्रयोग ही इतना सफल और प्रभावशाली रहा| गत चार सौ वर्षों के इतिहास में यह पहला अवसर था जब राजस्थान के समस्त राजपूत एक ध्वज के नीचे और एक नेतृत्व की आज्ञा में उपस्थित हुए| रेत के कणों ने जिनके चरणों को कभी स्पर्श नहीं किया और सूर्य की किरणों तक ने जिनका कभी दर्शन तक नहीं किया ऐसी कोमलाँगी कुलीन महिलाओं ने परम्परागत विश्वासों की परवाह न करके पैदल चलकर मतदान किया| भू-स्वामी संघ के आन्दोलनों में वे सच्ची वीरांगनाओं की भांति स्वेच्छा से जेल जाने को तत्पर हो गई और धन और मन से उनमें पूर्ण सहयोग दिया| विरोधियों ने उन महिलाओं को पर्दाहीन होकर पैदल चलते देख कर प्रतिशोधात्मक अट्टहास किया पर हम लोग गर्व से गौरान्वित हो उठे|

प्रथम आम चुनावों और दुसरे आम चुनावों के बीच के समय में कुछ लोगों द्वारा कांग्रेस में चले जाने के कारण राजपूतों का नैतिक पतन अवश्य हुआ है| इस पतन के लिए कुछ लोगों ने अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिये दूसरे चुनाव में विरोधियों का साथ दिया, पर उनका यह आत्मघाती और नीच कार्य समाज के स्वस्थ और बहुसंख्यक वर्ग द्वारा कभी भी प्रशंसित और उचित नहीं ठहराया गया| किसी निश्चित उद्देश्य और कार्यक्रम के अभाव में इस प्रकार की व्यक्तिगत क्षुद्राकांक्षाओं को बढ़ावा मिलना असंभव नहीं कहा जा सकता| निश्चित कार्यक्रम अपना कर इस प्रकार के अधिकांश पथ-भ्रष्ट लोगों को सुधारा और ठीक किया जा सकता है|

अनुशासन-पालन की पहली शर्त त्याग और बलिदान की भावना का मूल रूप से पहले से विद्यमान होना है| त्याग और बलिदान की भावना से रहित समाज में अनुशासन-पालन के संस्कारों का जन्म हो ही नहीं सकता| गत सैंकड़ों वर्षों के कुसंस्कारों के कारण यद्यपि यह भावना अब परिस्थितिसापेक्ष हो गई है, तथापि यदि अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण और प्रतिकूल परिस्थितियों का निराकरण कर दिया जाये तो अल्पकाल में ही यह भावना फिर पनप सकती है| मध्ययुगीन शासक जातियों ने राजपूतों की इस स्वाभाविक प्रवृति को खूब समझा था और यही कारण था कि काबुल से लेकर बंगाल, आसाम तक और हिमालय से लेकर सुदूर दक्षिण तक चप्पा-चप्पा भूमि राजपूत रक्त से रंजित हो गई| उस समय कोई जातीय उद्देश्य सामने नहीं था, अतएव राजपूतों का त्याग और बलिदान की स्वाभाविक प्रवृति का विरोधियों ने सदैव अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए लाभ उठाया| आज आम राजपूतों को जातिय-उद्देश्य बतला दीजिए, उस उद्देश्य की पवित्रता, उच्चता और श्रेष्ठता को दृढ़तापूर्वक उनके मस्तिष्कों और दिलों में अंकित कर दीजिए और फिर उस उदेश्यपूर्ति के लिए आप राजपूतों को परिश्रम, त्याग और बलिदान करने का आव्हान करिए, संसार आश्चर्य चकित देखेगा कि परिश्रम में कोई कमी नहीं, बलिदान की भावना में कितनी तीव्रता है और त्याग के कार्यों की कितनी प्रचुर मात्रा सामने आती है| पग पग पर त्याग और बलिदान के उदाहरण मिलेंगे| यह योग्य नेतृत्व की कसौटी होगी कि त्याग और बलिदान की इस पवित्र भावना को क्षुद्र स्वार्थ और सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त काम में न लेकर समाज के महान उद्देश्य की पूर्ति की तैयारी के काम में लिया जाय| जब यही त्याग और बलिदान की भावना किसी निश्चित और महान उद्देश्य की रक्षा के लिए धैर्य सहित क्रियात्मक रूप धारण करती है तब वीरत्त्व के नाम से पुकारी जाती है| वीरत्त्व की पूर्ण उपलब्धि के लिए, किसी निश्चित उद्देश्य की रक्षा के लिए इस भावना को क्रिया में रूपातंरित करना आवश्यक हो जाता है, अतएव जब तक समाज के सामने कोई निश्चित उद्देश्य नहीं होता तब तक त्याग और बलिदान के मूर्तरूप वीरत्त्व के हमें राजपूत समाज में दर्शन नहीं होंगे| आज राजपूत जाति में वीरत्त्व की जो कमी दिखाई दे रही है उसका मूल कारण यह है कि उसके सामने कोई सामाजिक उद्देश्य नहीं है| आज समाज में पराक्रम की जो कमी दिखाई दे रही है उसका मूल कारण भी यही है कि पराक्रम को जागृत करने हेतु समाज के सामने कोई लक्ष्य नहीं है| जितना उद्देश्य महान होगा उसकी पूर्ति के लिए किया गया क्रियात्मक त्याग और बलिदान रूपी वीरत्त्व और पराक्रम भी उतने महान होंगे| संसार का कोई भी कार्य वीरत्त्व और पराक्रम के सामने असंभव नहीं है| वीरत्त्व क्षत्रियों का स्वाभाविक गुण है और पराक्रम उनका स्वभाव| अतएव पूर्ण अनुशासित और व्यवस्थित रूप से केवल इन्हीं गुणों से उचित और सम्यक लाभ उठाया जाये तो विरोधी शक्तियाँ अधिक दिनों तक सामने ठहर नहीं सकती|

वीरत्त्व और पराक्रम को सम्यक रूप से जाग्रत करने के लिए प्रतिशोध की भावना का होना आवश्यक है और प्रतिशोध की भावना का उदय पीड़ा और क्रोध की सम्मिलित भावना से होता है, अतएव मुख्य रूप से पहले हमें समाज की पीड़ा को जाग्रत करना चाहिए| समाज की दुर्दशा और पीड़ा को देखकर हमारे हृदय में असीम पीड़ा का उदय होना आवश्यक है; पर पीड़ा अकेली निश्चेष्ट होती है अत: उसे सचेष्ट करने के लिए सात्विक क्रोध की भावना को उत्तेजित करना भी उतना ही आवश्यक है| पीड़ा और क्रोध की सम्मिलित भावना के जागरण से प्रतिशोध की संजीवनी शक्ति का उदय और विकास होगा जो मानवीय अस्तित्त्व का गौरवमयी आभूषण है| हमें अपने शत्रुओं से सौ पीढ़ी बाद में भी प्रतिशोध लेने की अग्नि को समय समय पर आहुति देकर प्रज्वलित रखना चाहिए| प्रतिशोध लेना उतना ही महान गुण है जितना किसी भलाई के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना और ऋण से उऋण होना| प्रतिशोध स्वयं एक धर्म है| इस धर्म का पालन करते समय दया-धर्म, अहिंसा-धर्म आदि को भूल जाना चाहिए| नैतिकता और उदारता के सामान्य मापदंड को एक और उठा कर रख देना चाहिए| इस प्रतिशोध रूपी महादेवता की तृप्ति के लिए शत्रुओं के मांस, रक्त, मेदा, हड्डी और मज्जा का महा-रुचिकर भोग लगाना चाहिए| पूर्ण श्रद्धा, दृढ़ विश्वास, क्रूर निर्दयतापूर्वक उच्च अट्ठाहस से प्रतिशोध रूपी महादेवता की पूजा करनी चाहिए| यही एक मात्र उसको तृप्त करने का विधिविधान है| तभी वह महादेवता प्रसन्न होकर अमर जीव और अक्षय कीर्ति का वरदान देता है| प्रतिशोध की भावना का उदय और विकास या तो निर्बल नपुंसकों में नहीं होता या उनमें जो आत्म-विस्मृति के गड्ढे में गिरकर सर्वथा संज्ञाहीन हो चुके है| प्रतिशोध की भावना जीवित समाज का एक आवश्यक गुण है|

कहने की आवश्यकता नहीं कि राजपूत जाति में प्रतिशोध की भावना का विशेष रूप से विकास हुआ है| असीम क्षमाशीलता और भयंकर प्रतिशोध आदि की परस्पर विरोधी भावनाओं का क्षात्र-चरित्र में जो सामंजस्य हुआ है, वह क्षात्र धर्म की अपनी मौलिक विशेषता है| इस प्रतिशोध की भावना को निरंतर नवीन और उत्साहित करते रहना चाहिये| समझलो कि जिस दिन प्रतिशोध की भावना का नाश हुआ उस दिन क्षत्रियत्व की मूल प्रेरक-शक्ति का भी नाश हो जायेगा|

पर राजपूतों की प्रतिशोध की भावना में उद्वेग और उफान नहीं होना चाहिये| उद्वेग और उफान के वशीभूत होकर किये गए कार्यों में विचारतत्व का अभाव होने के कारण वे अपने ही नाश के हेतु बनते है| जितनी प्रतिशोध की भावना आवश्यक है उतना ही आवश्यक है सहनशीलता और धैर्य है| व्यावहारिक सफलता की दृष्टि से इन दोनों गुणों का होना नितांत आवश्यक है| हमें जल्दबाजी में कोई ऐसा संकुचित निर्णय नहीं कर लेना चाहिये जिसका परिणाम आगे चलकर दुखदायी हो| अत्याचार और उत्पीड़न को तब तक धैर्यपूर्वक सहते रहना आवश्यक है जब तक कि उसके पूर्णप्रतिकार के लिए आवश्यक शक्ति का संचय न हो जाये| ज्वालामुखी पर्वत, शीत, उष्णता, वर्षा आदि सब कुछ मूक रूप से सहता रहता है पर उसके अंत:करण में ज्वाला प्रज्वल्लित रहती है| वह अंत: की अग्नि दिनरात समान रूप से क्रियाशील रहती है और जब भभकने का अनुकूल अवसर आता है तब सहनशीलता और धैर्य की लंबी उपस्थिति का क्षण भर में नाश हो जाता है और उस ज्वालामुखी पर्वत का भयंकर विस्फोट सर्वनाश का महातांडवी दृश्य उपस्थित कर देता है| वास्तव में क्षत्रिय को इसी प्रकार ज्वालामुखी पर्वत की भांति सहनशील और धैर्यवान रहना चाहिए और अनुकूल अवसर आते ही सहनशीलता और धैर्य के सब बन्धनों को तोड़कर महाप्रलयकालीन दृश्य उपस्थित कर देना चाहिए| ध्यान रहे, सहनशीलता और धैर्य का तात्पर्य निष्क्रियता नहीं है| किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्रियाशील रहते हुए अनुकूल अवसर तक प्रतीक्षा करते रहने का नाम धैर्य और सहनशीलता है, पर निष्क्रियता में निरुद्देश्य जड़ता और निराशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता| यह प्रसन्नता का विषय है कि राजपूत जाति में इस प्रकार के धैर्य और सहनशीलता का आज भी अभाव नहीं है| पर आवश्यकता इस बात की है कि धैर्य और सहनशीलता को निष्क्रियता में परिणित न होने दिया जाये|

क्रमश:.....