Monday, October 7, 2013

राजपूत और भविष्य : वास्तविक नेतृत्व (अंतिम भाग)

भाग ३ से आगे....
इन गुणों के अतिरिक्त भी वास्तविक नेतृत्व को परखने की कसौटी तब आती है जब भीषण पराजय, विकराल परिस्थितियाँ और प्रतिकूल वातावरण मुँह बाये समाज के सामने आ-उपस्थित होते हैं। इन परिस्थितियों में धैर्य और सहनशीलता से काम लेकर अपने मस्तिष्क के संतुलन को स्थिर रखते हुए उचित निर्णय करना वास्तव में ही उच्चतम योग्यता का परिचायक कहा जा सकता है। बहुधा ऐसा समय उपस्थित होता है जब निर्णय करने और निर्णय को कार्य रूप में परिणित करने में क्षण भर की देरी से भयंकर परिणाम हो सकते हैं। इन परिस्थितियों में क्षिप्र-निर्णय और क्षिप्र-कार्य, योग्य नेतृत्व से ही संभव हो सकता है। संकट की ऐसी घड़ियों में साहस छोड़कर संकुचित निर्णय करने वाला व्यक्ति राजपूत समाज का नेतृत्व करने के उपयुक्त नहीं हो सकता।

राजनीती और कूटनीति को समझना नेता के लिए उतना ही महत्वशाली है जितना साधारण जीवनयापन के लिया आहार। संसार भर के राजनैतिक सिद्धांतों से मस्तिष्क और स्मरण-शक्ति को लादे रखना राजनीतिज्ञता नहीं है। शत्रु की चालों को निष्प्रभ करके अपने राजनैतिक सिद्धांतों और आदर्शों के अनुकूल वातावरण बनाने की कला का नाम राजनीतिज्ञता है।और साम, दाम, दण्ड, भेद आदि प्रक्रिया से विरोधियों को प्रभावहीन करके अप्रत्याशित रूप से लाभ उठाने की प्रक्रिया का नाम कूटनीति है । अतएव एक राजनीतिज्ञ को सदैव संसार की और विशेष कर अपने देश की राजनैतिक घटनाओं और हलचलों तथा प्रतिक्रियाओं के प्रति जागरूक और सचेत रहना चाहिए। जो व्यक्ति राजनैतिक घटनाओं के परिणाम और प्रतिक्रियाओं का पहले से ही अनुमान लगा कर अपने अनुकूल पहले से ही वातावरण तैयार नहीं कर सकता वह साधारण श्रेणी का राजनीतिज्ञ भी नहीं कहा जा सकता । जो साधारण राजनीतिज्ञ भी नहीं वह समाज का नेता तो बन ही कैसे सकता है। किन परिस्थितियों में कैसा कार्य करना चाहिए और कब मौन रहकर निरीक्षण मात्र करते रहना चाहिए आदि बातों का निर्णय एक सफल राजनीतिज्ञ ही कर सकता है । इसीलिए नेता का पहले सफल राजनीतिज्ञ होना परमावश्यक है । दुर्भाग्य से अब तक के राजपूत नेता देश की साधारण राजनैतिक प्रगति को ही समझने में ही असफल रहे हैं। वे विरोधियों द्वारा उत्पन्न वातावरण में फँस कर अब तक उनका शिकार बनते रहे हैं।

नेता के लिए जितनी आवश्यक राजनीती है उतनी ही आवश्यक लोक-संग्रह की योग्यता भी है। संगठन के प्रारम्भिक सिद्धांतों से अनभिज्ञ और बिखरे हुए जनमत को एक ध्येय के प्रति एक निश्चित प्रणाली द्वारा क्रियाशील बनाये रखने का नाम संगठन है । केवल मात्र महती सभाओं में भाषण दे देना और किन्ही राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक सिद्धांतों का प्रतिपादन अथवा खंडन मात्र कर देने से संगठन नहीं होता । सच्चे और वास्तविक संगठन के लिए नियमित रूप से सामाजिक इच्छा और क्रिया को अपने ध्येय के प्रति उन्मुख करते हुए एक जागरूक, शक्ति-संपन्न और कला सुसंस्कृत समाज का निर्माण करना आवश्यक है। इस प्रकार के संगठन करने की कला एक नेता का आवश्यक गुण है।

इस प्रकार के लोक-संग्रह के लिए आवश्यक है-नेता स्वयं एक उच्च कोटि का लेखक और वक्ता हो। जो व्यक्ति अपनी अनुभूति और विचारों की स्पष्ट और प्रभावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्ति नहीं कर सकता वह लोक-संग्रह में कभी भी सफल नहीं हो सकता । भाषण देना स्वयं एक कला है और इस कला के सफल प्रयोग के लिए वक्ता का भाषा पर अधिकार होना आवश्यक है । सफल वक्ता वह है जो भाषण देते समय मूक श्रोताओं के चेहरों द्वारा उनकी मनोभावनाओं का अध्ययन करके उनकी सब शंकाओं को अपने भाषण में ही निर्मूल कर दे, तथा अपने तर्क, विचारों और सिद्धांतों के प्रति तटस्थ और उदासीन श्रोताओं को आकर्षित और विरोधियों को नमनशील बना दें।

समाज अपने आदर्श का साकार स्वरुप एक नेता में देखना चाहता है अतएव नेता सच्चरित्र, जितेन्द्रिय और वचनों का सदैव पक्का होना चाहिए । उसका व्यक्तित्व एकदम निर्मल और संदेह की सीमाओं से पार की वस्तु होना चाहिए । यदि एक नेता का चरित्र संदेह व टीका-टिप्पणी का विषय बन जाता है तो समाज का विश्वास प्राप्त करना बहुत कठिन होता है । इसीलिए नेता को समाज की दृष्टी में गिराने के लिए विरोधी सदैव उसके व्यक्तित्व और चरित्र पर प्रहार किया करते हैं।

इस प्रकार का वास्तविक और योग्य नेतृत्व स्वयं विकसित और निर्मित होता है, वह बनाने तथा चुनने से नहीं बनता। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि जब तक समाज को स्वयं-विकसित और स्वयं-सिद्ध नेतृत्व नहीं मिलेगा तब तक उसे सच्चा नेतृत्व मिल ही नहीं सकता और जब तक वास्तविक नेतृत्व नहीं मिलता तब तक उन्नति के रूप में हमारा सोचना व्यर्थ ही होगा।

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