Saturday, October 19, 2013

समस्या के रचनात्मक पहलू - भाग-१ (राजपूत और भविष्य)

संसार की सभी जातियों के उत्थान और पतन के कारणों में एक विचित्र साम्य मिलता है| भारतवर्ष का इतिहास महान आर्य जाति के उत्थान और पतन का इतिहास है| इतिहास के आदि युग में आर्य जाति संसार की सर्वश्रेष्ठ जाति थी| उसकी यह श्रेष्ठता हजारों वर्षों तक बनी रही| इस श्रेष्ठता के मूल में कुछ ऐसे नैसर्गिक गुण थे जो जातीय-संस्कारों के रूप में ढल कर आर्य जाति के जीवन में दृढ़ता के साथ गहराइयों से प्रवेश कर गये थे| इन गुणों में सबसे मुख्य था सतोगुणी जातीय-भाव| आर्य जाति का प्रारंभिक दृष्टिकोण सतोगुणी जातीय-भाव था| उसकी सर्वागीण प्रगति का आधार भी सतोगुणी जातीय-भाव ही था| सतोगुणी जातीय-भाव जातीय अथवा सामूहिक प्रगति को मुख्य लक्ष्य मानकर चलता है, पर इस प्रगति के मूल में विध्वंसात्म्क भावना न रह कर सृजनात्मक भावना रहती है| त्याग, बलिदान, सत्य, न्याय आदि गुणों से गुम्फित यह सृजनात्मक भावना जहाँ एक और जातीय शरीर के आंतरिक अंगों में सहयोगी और सामूहिक भावना का निर्माण एवं परस्पर विश्वास और सच्चाई का संचार करती रहती है वहां दूसरी और विजातीय अथवा विरोधियों के प्रति भी वह कल्याणकारी और अति उदार दृष्टिकोण को लेकर चलती है| विरोधियों का सर्वंगीण नाश करके स्वजाति को उत्थान के शिखर पर ले जाने वाली भावना जातीय-भावना तो है पर वह सतोगुणी जातीय-भावना न होकर तमोगुणी अथवा आसुरी जातीय भावना है|

इसी तमोगुणी जातीय-भावना ने आगे चलकर आर्य जाति में वंश-मर्यादा और कुलाभिमान को जन्म दिया ये गुण हजारों वर्षों तक आर्य जाति को पतन से बचाते रहे है| मैं ब्राह्मण कुलोत्पन्न अमुक अमुक ऋषि-महर्षि की संतान हूँ, अथवा मैं ब्राह्मण हूँ” की भावना ने न मालूम कितने हजार वर्ष तक ब्राह्मणों को स्वार्थ, हिंसा, असत्य, अविद्या आदि दुर्गुणों से बचाती रही होगी| जब ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व की भावना लुप्त-प्राय: होने लगी तब उनका पतन भी आरम्भ हो गया| जातीय-भावना तो उनमें बहुत वर्षों तक बनी रही होगी पर ब्राह्मणत्व का अभिमान उनमें नि:शेष हो चुका था| ब्राह्मणत्व का यही सात्विक अभिमान स्वाभिमान अथवा सतोगुणी जातीय भाव कहा जा सकता है|

इसी भांति क्षत्रियत्व के अभिमान ने हजारों वर्षों तक क्षत्रियों को पतन से बचाया| सूर्य-वंश का संचित गौरव न मालूम कितने हजार वर्ष तक सूर्य-वंशियों को कायरता, असत्य, अन्याय आदि दुर्गुणों से बचाता रहा होगा| पुरुषोतम भगवान् राम जैसे सर्व-शक्तिमान महापुरुष भी आपत्ति और कर्तव्य-संकट के समय सदैव सूर्य-वंश के चिर-संचित गौरव से प्रेरणा लेकर कार्य करते थे| वह चन्द्र-वंश की उज्जवल कीर्ति ही थी जिसने अर्जुन को कायरता पतन के गहरे गर्त में गिरते गिरते बचा लिया| कालांतर में जब क्षत्रिय क्षत्रियत्व की सतोगुणी भावना से शून्य होने लग गये तब वे आर्यत्त्व की भावना से भी रहित होने लग गये और उनमें सतोगुणी जातीय-भावना के स्थान पर या तो जातीय-भावना नाम मात्र को भी नहीं रही थी या वह तमोगुणी होकर स्वयं के नाश का कारण बन गई| क्षत्रियत्व की इसी सतोगुणी भावना का नाश होने के कारण क्षत्रियों में क्षत्रियत्व प्रधान गुणों का लोप हो गया| लगभग यही दशा आर्य जाति के अन्य वर्णों की भी हुई|

रोमन जाति में उत्थान का आधार भी शत-प्रतिशत जातीय था| जब तक उनमें यह जातीय भावना बनी रही तब तक उसकी उन्नति होती रही और ज्योंही इस जातीय-भावना का नाश हुआ त्योही उसका पतन भी आरम्भ हो गया| विशाल रोमन साम्राज्य का उत्थान और पतन वस्तुत: रोमन जाति के सतोगुणी जातीय-भाव का उत्थान और पतन ही था| इस्लाम के अभ्युदय के प्रारंभिक युगों में हमें इस प्रकार की सतोगुणी जातीय-भावना के दर्शन होते है| यद्यपि इस्लाम का जातीय-भाव पूर्णत: सतोगुणी नहीं कहा जा सकता पर उस समय वह उन जातियों के जातीय-भाव से कहीं अधिक सतोगुणी था जिन पर इस्लाम ने विजय प्राप्त की| जब तक इस्लाम में यह अपेक्षाकृत श्रेष्ठ जातीय-भाव बना रहा तब तक उसकी विजय पर विजय होती गई| ज्योंही उसमें जातीय-भाव का लोप हो गया अथवा वह तमोगुण-क्रांत हो गया त्योंही उसका पतन भी आरम्भ हो गया|

जिस समय भारतवर्ष में मुसलमान आये उस समय हिन्दुओं की अपेक्षा उनमें सतोगुण जातीय-भाव था| दोनों का अंतर भी स्पष्ट है- जहाँ एक हिन्दू स्वजाति के साथ विश्वासघात करके शत्रु से जा मिलता था वहां एक मुसलमान अपने इस्लामी बंधू के साथ कभी भी विश्वासघात करने को तैयार नहीं होता था| जब तक मुसलमानों में हिन्दुओं की अपेक्षा इस जातीय-भावना की श्रेष्ठता और प्रबलता रही तब तक वे हिन्दुओं पर राज्य करते रहे, पर ज्योंही उनकी यह जातीय-भावना तमोगुणा-क्रान्त होकर नष्ट-प्राय: होने लगी त्योंही हिन्दुओं ने उन्हें उखाड़ फेंक दिया| उत्तर मध्यकालीन मुग़ल इतिहास मुसलमानों के जातीय-भाव पतित होने का ज्वलंत उदाहरण है|

जब अंग्रेज भारत आये तब उनकी प्रगति का आधार भी शत-प्रतिशत जातीय था| उनकी यह जातीयता की भावना तत्कालीन भारत की अन्य जातियों से श्रेष्ठ थी| मुसलमानों की भांति अंग्रेजों में भी सतोगुणी जातीय-भाव का तो अभाव था पर विजितों की अपेक्षा उनमें जातीय-भाव प्रबल था| जब तक उनका यह जातीय-भाव प्रबल बना रहा तब तक वे संख्या में अति नगण्य होते हुए भी संसार के बड़े भू-भाग पर राज्य करते रहे पर ज्योहीं उनका जातीय-भाव अपेक्षाकृत निर्बल पड़ा त्योंही उन्हें अपने साम्राज्य से हाथ धोने पड़े| इस प्रकार संसार की सभी जातियों के उत्थानोंमुखी इतिहास में जातीय-भाव और विशेषत: सतोगुणी जातीय-भाव की प्रबलता और पतानोंमुखी इतिहास में इसी जातीय-भाव और विशेषत: सतोगुणी जातीय-भाव की शिथिलता सर्वत्र देखी जा सकती है|

अतएव आज सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि राजपूत जाति में एक प्रबल जातीय-भाव का निर्माण किया जाय| इस प्रबल जातीय-भाव के निर्माण द्वारा क्षत्रियत्व के प्रति स्वाभिमान और क्षत्रियत्व के प्रति स्वाभिमान द्वारा हिन्दूत्व के प्रति गौरव और समष्टि-प्रधान दृष्टिकोण का निर्माण किया जाय| हिन्दूत्व अथवा आर्यत्व की दृढ़ आधारशिला पर आरूढ़ होने के उपरांत ही विश्ववाद अथवा प्राणीवाद की और उन्मुख होना स्वाभाविक प्रक्रिया कही जा सकती है| आज हमें अपने हिन्दू भाइयों के साथ व्यवहार करते समय यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिये कि हम एक विशिष्ट परम्परा, इतिहास और गुणों का प्रतिनिधित्त्व करते है| इस प्रकार हमारी वंश-मर्यादा और कुल-गौरव की भावना हमें नीच और घृणित कार्य करने से बचाती रहेगी| जातीय-स्वाभिमान की उच्च भावना हमारे व्यवहार को त्याग, उदारता, साम्य, सत्य, न्याय आदि गुणों के क्षेत्र से बाहर नहीं जाने देगी| इसीलिए आज हमें राजपूत होने का स्वाभिमान होना चाहिये| हमारी वंश और कुल-कीर्ति से हमारा हृदय और शरीर सदैव पुलकित रहना चाहिये| यदि वास्तव में हम अपनी जातीय-मर्यादा को समझते है तो अपने अन्य भाइयों के साथ दुर्व्यवहार कर ही नहीं सकते| इसी भांति जब हम अन्य धर्मावलम्बियों से व्यवहार करें तो सदैव इस बात को ध्यान में रखें कि हम एक अतिमहान उदार और सुसंस्कृत हिन्दू-परम्परा के प्रतिनिधि है| अतएव हमारे व्यवहार में कोई ऐसी बात नहीं होनी चाहिये जिससे महान उज्जल हिन्दू-संस्कृति के परमोज्जवल भाल पर थोड़ा-सा भी कलंक का छींटा लग जाय| जब हम विदेशियों के सम्पर्क में आये तब हमें भारत-राष्ट्र की मर्यादा और उसके उच्चादर्शों का सदैव ध्यान रखना चाहिए| यह तभी संभव हो सकता है जब हम सर्वप्रथम अपने अन्दर सतोगुणी जातीय-भाव का निर्माण कर उसे व्यवहार में लाने लग जायें| यह निश्चित बात है कि जिसे राजपूत होने का गर्व नहीं, उसे हिन्दू होने का भी गौरव नहीं हो सकता और जिसे हिन्दू होने का गौरव नहीं वह भारत-राष्ट्र का शुभचिंतक कदापि नहीं हो सकता| अतएव राष्ट्र-प्रेम और सुनागरिकता के लिए आवश्यक है कि भारतवासियों में परम्परागत गुणों के आधार पर जातीय-भाव का निर्माण किया जाय| आज का प्रभुता-संपन्न बुद्धिजीवी-वर्ग अपने स्वार्थ के लिए जातीय-भाव का जो विनाश कर रहा है वह किसी दिन भारत-राष्ट्र की एकता और स्वतंत्रता के लिए अभिशाप सिद्ध होगा|

सतोगुणी जातीय-भाव के निर्माण की पहली शर्त सामाजिक दृष्टिकोण का निर्माण है| हमें व्यक्तिगत उत्थान के स्थान पर सामाजिक उत्थान के लिए अपनी शक्तियों को लगाना है – सामाजिक ध्येय को व्यक्तिगत ध्येय बनाना है, सकारात्मक रूप में सामाजिक-उत्थान की रुपरेखा तैयार कर उस पर चलना है| ऐसा करने में विरोधी शक्तियों के विनाश की रूपरेखा पहले तैयार करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि सतोगुणी जातीय-भाव का मुख्य दृष्टि-बिंदु रचनात्मक होता है, विध्वंसात्मक नहीं| यदि प्रगति के मार्ग में बाधाओं के रूप में आने वाली विरोधी शक्तियों को हटाने की आवश्यकता पड़े तो वे हटाई जा सकती है, पर हमारा प्रथम ध्येय केवल उनको समाप्त करना मात्र ही नहीं होना चाहिये| हमें निर्माण के लिए विनाश करना है, विनाश के लिए निर्माण नहीं|

वर्तमान युग में सत्ता-संपन्न बुद्धिजीवी-वर्ग का सहारा पाकर कतिपय निम्न जातियों में जातीय-भाव का बीजारोपण हो रहा है, पर इन जातियों का जातीय-भाव प्रतिद्वंद्वी जातियों के विनाश को पहली शर्त मानकर कार्य करने के कारण शतप्रतिशत तमोगुणी है| दूसरों की राख की ढेरी पर अपना महल खड़ा करने की आकांक्षा को लेकर चलने वाले जातीय-भाव को ही आज के बुद्धिजीवी कांग्रेसियों की भाषा में “साम्प्रदायिक” कहा जा सकता है| कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रकार के संकुचित जातीय-भाव से किसी का भी कल्याण नहीं हो सकता| उसे शीघ्र अथवा देर में स्वत: समाप्त होना पड़ेगा|

क्रमश:.....

No comments:

Post a Comment