Sunday, October 9, 2011

पवित्र पर्व- 1

संवत १७३७ विक्रमी के भाद्रपद मास की कृष्ण सप्तमी का दोपहर ढल चूका था| बादलों की शीतल छाया के नीचे आलनियावास की नदी में कुंवर राजसिंह सिर पर मोड़ बांधें दूल्हा के भेष में घोड़ी पर सवार होकर देवपूजन को जा रहे थे| पीछे दो रथ थे,जिनमे से एक में दुल्हन और उसकी सहेलियां बैठी थी|दूसरे रथ में अन्य स्त्रियां बैठी मांगलिक गीत गा रही थी| आगे कलावन्त सारंग राग अलाप रहा था| मांगलिक ढोल बज रहे थे|सारे आलनियावास गांव पर विवाहोत्सव और मांगलिक अनुष्ठानों की बहार-सी छाई हुई थी|

ठीक उसी समय हांफते हुए घोड़े पर एक सवार अजमेर की ओर से आया| उसने आगे बढ़कर कुंवर राजसिंह से कुछ कहा|थोड़ी देर तक उन दोनों में परस्पर वार्तालाप होती रही| कुछ ही क्षणों में मांगलिक गायन बंद हो गए| ढोलियों ने ढोल की ताल को बदल दिया| कलावन्त की राग का सुर भी बदल गया|

ठाकुर प्रतापसिंहजी गढ़ में एक बुर्ज पर चढ़कर वर्षा की संभावना पर विचार कर रहे थे| सहसा उन्होंने ढोल की बदली हुई ताल और कलावन्त के बदले हुए सुर को सुना|उन्होंने मन ही मन कहा-
"है,यह क्या?"उन्होंने फिर सावधानीपूर्वक कान लगाया| बात सच थी| विवाह के मांगलिक ढोल के स्थान पर अब मारू ढोल बज रहा था|कलावन्त की सिंधु राग उनके कानों में स्पष्ट आ रही थी|

"यह क्या उपद्रव खड़ा हो गया?यह क्या रहस्य है?रंग में यह भंग कैसा?" उन्होंने अपने आपसे यह प्रश्न पूछ डाले| उन्हें कुछ भी समझ नहीं आ रहा था| उन्होंने ज्यों ही दरवाजे की ओर देखा-कुंवर आनंदसिंह घोड़े को सरपट दौड़ाते हुए आते हुए दिखाई दिए| आनंदसिंह घोड़े से उतरे ही नहीं थे कि उन्होंने आतुरतावश पूछ लिया-"आनंद!यह क्या बात है,विवाह के देवपूजन के शुभ अवसर पर इस मारू ढोल और सिन्धु राग का क्या प्रयोजन?"आनन्दसिंह ने घोड़े पर चढ़े चढ़े ही उतर दिया-"अजमेर का फौजदार तहव्वर खां मेड़ता की पराजय का बदला लेने के लिए एक बड़ी सेना के साथ पुष्कर आ ठहरा है|कल कृष्ण जन्माष्टमी के दिन वह पुष्कर के पवित्र घाटों पर एक सौ गायों की कुर्बानी देगा| भगवान वाराहजी के मंदिर को ध्वंस करेगा,तथा ब्राह्मणों का कत्लेआम करेगा|"
ठाकुर प्रतापसिंहजी के मुँह से इतना ही निकला-"है,तब तो बड़ा अन्याय होगा और दूसरे क्षण वे गहरी विचार तन्द्रा में मग्न हो गए|

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बादशाह औरंगजेब का राजपूतों के अत यह युद्ध का समय था| जमरूद के थाने पर औरंगजेब ने विष देकर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह को मरवा दिया था और मारवाड़ पर अपनी सेना भेजकर उसने अधिकार कर लियाथा| बालक महाराज अजीतसिंह को वीरवर दुर्गादास आदि स्वामिभक्त सरदारों की सरंक्षण में सुरक्षित करके राठौड सरदारों ने मुगलों के थानों पर आक्रमण शुरू कर दिए थे| जोधपुर,सोजत,डीडवाना,सिवाना आदि शाही थाने लूट लिए गए थे|

यही सुनकर कुंवर राजसिंह ने भी अपने साथी मेड़तिया राठौड सरदारों को इकट्ठा करके मेड़ता पर आक्रमण कर दिया और वहां के शाही हाकिम सदुल्लाहखां को मारकर लूट लिया था| इस घटना के तुरंत बाद ही कुंवर राजसिंह का विवाह हो गया था|उस समय मेड़ता अजमेर सूबे में था|जब अजमेर के सूबेदार तहव्वरखां के पास मेड़ता की दुर्दशा का संवाद पहुंचा,तब वह आग बबूला हो उठा| उसी समय बादशाह औरंगजेब की हिंदू-मंदिर तोड़ने की नीति भी पुरे भारतवर्ष में दृढ़ता के साथ क्रियान्वित की जा रही थी| तहव्वरखां इस अवसर से दोहरा लाभ उठाना चाहता था| वह जन्माष्टमी के दिन पुष्कर के घाटों पर गायों की कुर्बानी कर तथा वाराहजी का मंदिर तोड़ कर पुण्य लाभ भी करना चाह रहा था और वहां से आगे बढ़कर राठौड़ों को दंड देता हुआ मेड़ता पर पुन:अधिकार करना चाहता था| इसीलिए एक सौ गायों को साथ लेकर जन्माष्टमी से दो दिन पहले ही एक बड़ी सेना सहित पुष्कर में आकार ठहर गया|

जन्माष्टमी के दो दिन पहले पवित्र धाम पुष्करराज पर मृत्यु की काली छाया पड़ चुकी थी| वह कालांतर में और भी घनीभूत होकर मृत्यु के महाभायावाने स्वरुप का प्रत्यक्ष सृजन करने में सफल हो रही थी| इसी प्रत्यक्ष प्रलय से चरों ओर मृत्यु के पहले की निराशा,विवशता और भयंकरता दिखाई दे रही थी| लोग भयातुर हो अपने-अपने घर छोड़कर भाग रहे थे|
समस्त तीर्थों के गुरु पुष्करराज ने निराशापूर्ण नि:श्वास छोड़ते हुए कदाचित सोचा होगा-

"समस्त पापों के क्षय की कामना लेकर यहाँ स्नान करने वाले वाले करोड़ों मनुष्यों में से पवित्रता को बचाने वाला क्या एक भी नहीं है? गौभक्त भगवान कृष्ण के जन्म-दिन पर कुर्बानी की प्रतिज्ञा में गायों से भर्राये हुए,असहाय कंठो से क्या यह मूक आर्तनाद नहीं निकला होगा-

"दिलीप और कृष्ण की संतानों में से कोई शेष रहा हो तो आओ और इस समय रक्षा करो|"

भगवान वाराहजी ने क्या इसी दिन को अपने सच्चे भक्तों की परीक्षा का दिन नहीं चुना होगा|ब्राह्मणों ने ठीक इसी समय भगवान को अपने इन वचनों का स्मरण अवश्य दिलाया होगा_
"पारित्राणाय साधुनाम"


और ठीक ये सब बातें एक घुड़सवार थोड़े समय पहले कुंवर राजसिंह मेड़तिया को कह चूका था| क्षण-प्रतिक्षण सिन्धु राग की ध्वनि तीव्र और घनीभूत हो रही थी|इतने में कुंवर आनंदसिंह ने वापिस आकर कहा -

"दादाभाई,पिताजी ने कहलाया है कि पहले देव-पूजन कर लीजिए और फिर इस विषय पर सब मिलकर सोचेंगे|"
"वास्तव में मैं देव-पूजन ही करने जा रहा हूँ आनंद!तुम भी साथ आ जाओ| तीर्थराज पुष्कर जैसे पुण्य-स्थल में जन्माष्टमी से पवित्र पर्व पर गौ-माता की प्राण रक्षा,भगवान वाराहजी के मंदिर की प्रतिष्ठा-रक्षा,ब्राह्मणों की भय से मुक्ति और साथ के साथ स्वामी का बदला लेने का दुर्लभ अवसर अति भाग्यवान क्षत्रिय के अतिरिक्त किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकता,आनद!"

"किन्तु एक बार गढ़ में तो चलिए|"
"गढ़ में अवश्य चलता पर केसरिया कर लिया है,इसलिए लौटकर जाना पाप है|"
"यह केसरिया तो विवाह के निमित्त है,न कि युद्ध के निमित्त|"
"मैंने संकल्प द्वारा इन्हें युद्ध निमित्त ही मान लिया है|"

आनंदसिंह ने ये सब बातें आकर अपने पिता से कह दी| पिता ने सगर्व कहा-
"कोई बात नहीं यदि उसकी ऐसी ही इच्छा है तो तुम,चतरसिंह,रूपसिंह भी उसके साथ ही चले जाओ|"
थोड़ी देर में तीनों भाई और गढ़ के अन्य बचे खुचे लोग भी पुष्कर राज की ओर प्रयाण कर गए| मार्ग में उन्हें लौटते हुए जनाना रथ मिले| अब उनमे विवाह के मांगलिक गायनों के स्थान पर समर-प्रयाण के समय के मांगलिक-गीत गाये जा रहे थे| पहले दुल्हन लज्जावश चुप थी,पर अब वह उल्लासपूर्ण ढंग से इन गीतों में स्वयं योग दे रही थी|

क्रमश:..............

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