Monday, October 10, 2011

पवित्र पर्व - 2

भाग-1 से आगे-

जिस समय प्राची के पर्दे में से सप्तमी का चन्द्रमा मुँह निकालकर झाँकने लगा था| ठीक उसी समय ५०-६० घुड़सवार भगवान वाराहजी के मंदिर के सामने जाकर उतर पड़े| थोड़ी देर विश्राम कर लेने के उपरांत फिर वे घोड़ों पर सवार हुए और पुष्कर के पूर्वी घाटों पर विश्राम करती हुई शाही सेना पर उसी समय टूट पड़े| बात की बात में उन्होंने सैकड़ों मुसलमानों को तलवार के घाट उतार दिया और सब गायों को बंधन-मुक्त कर दिया| इस अचानक आक्रमण से चोट खाकर अब शाही सेना भी सावधान हो चुकी थी| उसने भी चांदनी के खुले प्रकाश में प्रत्याक्रमण कर दिया| दोनों ओर से भयंकर मारकाट होने लगी| रात्री की निस्तब्धता को चीर कर पुष्कर की सुनी गलियों में टकराती हुई- "जय वाराह,जय पुष्कर राज," "अल्लाहो अकबर" की ध्वनि,प्रतिध्वनि ने आसपास के समस्त गांवों को सजग और सतर्क कर दिया| सप्तमी की सारी रात और अष्टमी के सारे दिन यह युद्ध होता रहा| पुष्कर की समस्त गलियां रक्त के कीचड़ से सन चुकी थी| अष्टमी का सूर्य पश्चिम क्षितिज में ज्योंही गोता लगाने की तैयारी कर रहा था, त्योंही पश्चिम क्षतिज पर से धूलिका का एक बादल-सा उठता हुआ दिखाई पड़ा| सैकड़ों कंठो से एक साथ निकला रहा था -

"रण बंका राठौड|"

वाराहजी के मंदिर के दरवाजे से घोड़ा लगाकर लड़ते हुए राजसिंह से एक सवार ने आकर कहा-

"सावधान ! कुंवर केशरीसिंह रियां,ठाकुर गोकुलसिंह बजोली,ठाकुर हठीसिंह,जगतसिंह,सुजाणसिंह आदि अपनी-अपनी सेनाओं को लेकर आ पहुंचे है|"
इतने में और भी समीप आती हुई ध्वनि सुनाई दी-

"रण बंका राठौड|"

राजसिंह ने खिसककर आँखों पर आये हुए मोड़ को ऊपर खींचते हुए प्रत्युतर दिया-

"रण बंका राठौड|"

और दूसरे ही क्षण वे घोड़ा कूदा कर शाही सेना के मध्य में जा पहुंचे|

जब कुंवर केशरीसिंह रियां और अन्य सरदार युद्ध स्थल पर पहुंचे तब उन्होंने देखा कि एक बिना सिर का दूल्हा-योद्धा शाही सेना से घिरा हुआ दोनों हाथों से तलवार चला रहा था| फिर एक भयंकर उदघोष हुआ-"रण बंका राठौड|"प्रत्युतर आया "अल्लाहो अकबर" और खचाखच सपासप तलवारे चलने लगी गयी| उस रात्रि को भी भयंकर मारकाट होती रही| भगवान कृष्ण के जन्म महोत्सव को तलवारों की खनखनाहट के बीच युद्ध-घोषों की वीरोचित ध्वनि के द्वारा मनाया गया| नवमी के दिन भी इसी प्रकार पुष्कर के घर-घर के सामने युद्ध होता रहा| समस्त गलियां लाशों से भर गई| पुचकार राज की पवित्र भूमि हिंदू-मुश्लिम रक्त से रंजित होकर और भी पवित्र होती गई|

नवमी की संध्या को एक घुड़सवार अलसाई हुई चाल से आलनियावास की ओर जा रहा था| वह मार्ग में पूछने वालों को उत्तर दे रहा था-

"आलनियावास के कुंवर राजसिंहजी,आनंदसिंहजी,चतुरसिंहजी,रूपसिंहजी.रियां के कुंवर केसरीसिंहजी,बाजोली के ठाकुर गोकुलसिंहजी,तथा ठाकुर हठीसिंघजी,जगतसिंघजी,सुजाणसिंहजी आदि मेड़तिया सरदार वीरगति को प्राप्त हो गए है|

और थोड़ा रूककर वह फिर कहता था- " तहव्वरखां की पूरी सेना मारी गयी है और वह भागकर तारागढ़ पर चढ़ गया है|"

समाप्त

2 comments:

  1. आपकी कोई भी पोस्ट प्रकाशित होने के 15 सैकिंड के बाद ही अपनी पोस्ट को टिप्स हिंदी में ब्लॉग पर देखें | है न सबसे तेज | यकीन नहीं होता तो आप अपनी पोस्ट प्रकाशित करें व ठीक 15 सैकिंड बाद इस लिंक पर कलिक करके देख लें |

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  2. आपके इस कदम की जितनी प्रसंसा की जाये कम है. आवश्यकता इसी बात की है , कि हिंदी के साहित्य , ज्ञान और हमारे पूर्वजों की बौद्धिक फसल को अंतरजाल पर नये बिज के रूप में बो दिया जाये, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी , जो गूगल के सहारे नोट्स खोज , पाए गए तथ्यों को प्रामाणिक मानती है , सच मानती है .. उसके सामने हमारा ज्ञान विशुद्ध रूप में , अपनी मातृभाषा में हो. वर्ना भारतीय सांस्कृतिक विरासत और शोध को अपने मूल रूप में पा सकें .

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