Wednesday, October 30, 2013

परिचय - ४ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

भाग -३ से आगे...
संसार की अन्य किसी भी जाति की भांति आज हमें भी अपनी संस्कृति, विश्वासों और परम्परा सहित जीवित रहने का पूर्ण अधिकार है| हमें भी इस विशिष्टता की रक्षा के लिए स्वभाग्य-निर्णय करने और स्वभाग्य-निर्णय करने के लिए संघर्ष करने का नैतिक, वैधानिक और सामाजिक अधिकार है| स्वभाग्य-निर्णय की हमारी यह धारणा पूर्ण रूप से न्याय-संगत, औचित्यसंगत और युक्ति-युक्त है| इस बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा हमारी जो अधोगति अब तक की जा चुकी है उसका दिग्दर्शन इसी पुस्तक में आगे चल कर कराया जायेगा| यहाँ तो केवल इतना समझना होगा कि आत्म-रक्षा की हमारी इस भावना और चेष्टा को किसी भी अवस्था में शिथिल न होने दिया जाये; स्वभाव-निर्णय करने के हमारे इस न्यायसिद्ध अधिकार को कभी भी आँखों से ओझल न होने दिया जाये तथा एक जाति और राष्ट्र के रूप में उठने और आत्म-निर्णय करने के हमारे अधिकार को दी जाने वाली प्रत्येक चुनौती का दृढ़तापूर्वक मुकाबला किया जाये|

एक और हमारे सामने ऐतिहासिक अवशेषों, साहित्य, कला, संस्कृति आदि के रूप में प्रेरणादायक कर्तव्य याद दिलाने और हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराने वाली अत्यंत ही प्रभावशाली जीवित सामग्री अतुल मात्रा में विद्यमान है और दूसरी और जब हम अपनी वर्तमान रहन-सहन, मनोदशा आदि को देखते है तब पैरों के नीचे से भूमि खिसक जाती है| और आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है|

राजपूत जाति अब तक मार्ग-दर्शन के लिए राजा-महाराजाओं के मुंह की और ताकती आ रही है| ये राजा-महाराजा ही हमारे वंशानुगत नेता रहे है| वे ही हमारी राजनैतिक चेतना और क्रियाशीलता का अब तक मेरुदंड रहते आये है| मुझे इन्हीं राजाओं में से बहुतसों से सम्पर्क में आने का अवसर मिला है| राजस्थान के एक अति प्रतिष्ठित राजंश.....साहब के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ| वे गौशाला खोलकर दूध बेचने की योजना बना रहे थे; एक अन्य महाराजा भेड़ पालने के उपयुक्त स्थलों की खोज में थे; एक और महाराजा देश के समाचार-पत्रों को पढ़कर पंचवर्षीय योजना में खोये हुए थे; एक विदेश-भ्रमण के लिए साज-सज्जा तैयार कर रहे थे तथा हाड़ौती के एक महाराजा मेरे जैसे व्यक्ति के मिलने में अदृश्य भय और आशंकाओं से प्रकंपित थे| इन हमारे जन्म-जात और वंशानुगत नेताओं से मिलने के उपरांत मुझे यह चौपाई स्मरण हो आई,-

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी|

यहाँ पर प्रभु-मूर्ति देखने का तो प्रश्न नहीं है पर स्वयं की मूर्ति देखने का प्रश्न है| जिसकी जैसी भावना होती है और उसी प्रकार वह व्यक्ति कर्म करता है| जो जैसा कर्म करता है वैसा बनता भी है| दूध बेचकर ग्वाला का धन्धा करने वाले, भेड़ पालकर गडरिया की दक्षता प्राप्त करने वाले, प्रचार के सस्ते साधनों से प्रभावित होकर अपने सिद्धांत बनाने वाले, वर्ष के अधिकांश समय विदेशी-भ्रमण करने वाले और आस-पास के पवन की खड़बड़ाहट मात्र से डर और दुबक कर महलों में बंद रहने वाले राजा-महाराजाओं से क्या आशा की जाये कि वे क्षत्रियोचित ढंग से जीवन व्यतीत करने की क्षमता रखते है, तथा हमें राजनैतिक नेतृत्व प्रदान करने की योग्यता व हिम्मत रखते है| जिनके वंशों से दूसरों को प्रेरणा मिलती आई है स्वयं आज बिना किसी प्रेरणा के अंधकार में भटक रहे है|प्रेरणा की समस्त सामग्री विद्यमान होते हुए भी आज राजाओं का सा जीवन व्यतीत न करके ग्वाला और व्यवसायी बनाना चाहते है| अपने वास्तविक कर्तव्य और राज्य-लक्ष्मी को भूलकर अन्य प्रकार से प्रसाधनों को अपनाकर निम्न जीवन व्यतीत करने के लिए तत्पर हो उठाना, पतन और पराजय को मन, वचन और कर्म से स्वीकार करना है|

राजा-महाराजाओं से भी हीनतर दशा अमीर और बड़े जागीरदारों की है| उनमें से कुछ बिल्कुल विरक्त होकर, पतन और पराजय को कर्म-सन्यास के रूप में स्वीकार कर अपने जीवन की घड़ियाँ व्यतीत कर रहे है| जागीरों की समाप्ति से जहाँ उन्हें प्रतिशोधात्मक प्रेरणा मिलनी चाहिये थी वहां उसकी समस्त क्रियाशीलता ही समाप्त हो गई| दुसरे प्रकार के अमीर जागीरदार अपने अपने व्यवसायों में लगे हुए है| दुर्लभता और सौभाग्य से प्राप्त क्षति-पूर्ति रुपयों को गिन-गिनकर देख लेने मात्र से आत्म-संतुष्टि कर अधिक कमाने की चिंता में निमग्न है| शहरों के निवास और अपनी व्यावसयिक पृथकता के कारण उनके घर अनैतिकता के अड्डे बनते जा रहे है| एक तीसरे प्रकार का अमीरों का गुट विरोधियों के समक्ष आत्म-समर्पण कर उन्हें जी-जान से प्रसन्न करने में लगा हुआ है| वह उनकी शक्ति को बढ़ाकर आत्म-घाती नीति को अपना चुका है| अनैतिकता और आत्म-पतन की चरम सीमा पर पहुंचा हुआ यह अमीर वर्ग धीरे-धीरे शेष राजपूत समाज से पृथक होकर किसी नवीन वर्णसंकर जाति को जन्म देगा| गरीब राजपूत अपने पेट की ज्वाला शांत करने में लगे हुए है| उनका भी नैतिक पतन कम नहीं हुआ है| उनमें से कई परिवार शनै: शनै: जरायम-पेशा कौमों में परिवर्तित हो रहे है| राजपूत समाज का शिक्षित वर्ग सबसे अधिक निष्क्रिय, स्वार्थी और साहस-विहीन है| उनकी शिक्षा पर किया व्यय और श्रम व्यर्थ ही गया| वह शिक्षा, शिक्षा ही नही जो मनुष्य को भीरु, स्वार्थी और निष्क्रिय बना कर जातीय-गौरव और स्वाभिमान से वंचित कर दे|

इस प्रकार आज सम्पूर्ण राजपूत जाति उद्देश्यविहीन होकर जर्जर और खोखली बन चुकी है| पराजित मनोवृति, निराशा और निरुत्साह दिनोंदिन बढ़ते जा रहे है| प्रेरणा के इतने प्रभावशाली उपकरण होते हुए और एक महान जाति की सम्पूर्ण विशेषताओं के रहते हुए भी आज राजनैतिक-चेतना और कर्तव्य-ज्ञान लेशमात्र भी नहीं है| राजपूत जाति के इस निष्क्रियपूर्ण मौन का एक मात्र कारण यही है कि हम अपने स्वाभाविक कर्तव्य को भूल चुके है| ऐतिहासिक स्थलों के भ्रमण से जो महत्त्वकांक्षा उत्पन्न हुई है, युद्ध-स्थलों से जो संदेश प्राप्त हुए है, साहित्य ने जो अनुभूति प्रदान की है, इतिहास ने जो कर्तव्य-शिक्षा दी है और कला-कौशल और संस्कृति ने जिस सत्य का उदघाटन किया है उन्हीं के आधार पर मैंने यह पुस्तक लिखी है- इसलिए कि इसके द्वारा राजपूत जाति को अपने कर्तव्य, स्थिति और स्वरूप का वास्तविक ज्ञान कराया जाये|

आयुवान सिंह शेखावत

No comments:

Post a Comment