Friday, November 29, 2013

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- १ (राजपूत और भविष्य)

यह निर्विवाद सत्य है कि क्षात्र-धर्म से बढ़कर अन्य कोई भी धर्म, वाद अथवा उद्देश्य क्षत्रियों के लिए इस संसार में श्रेष्ट नहीं है। अब देखना यह है कि क्षात्र-धर्म के उत्थान में न केवल क्षत्रियों का ही अपितु समस्त राष्ट्र और मानवता का कल्याण निहित है। वह श्रेष्ठता ही किस काम की जो एक वर्ग या जाती के लिए कल्याणप्रद और दूसरों के लिए हानिप्रद हो।

क्षात्र -धर्म के उत्थान का अर्थ है - कर्म में उच्चकोटि कि नि:स्वार्थता, कर्त्तव्यपरायणता और कर्तापन के घमण्ड के प्रति उदासीनता। आज राष्ट्रीय जीवन में एक भयंकर कुप्रवृति घर कर गयी है और वह प्रवर्ति है स्वार्थ - भाव से कर्म करना। 'हम आज़ादी कि लड़ाई में जेल गए थे इसलिए इस प्रजातंत्रीय भारत में मंत्री बनना हमारा पहला अधिकार है' यह भावना आज प्रत्येक कांग्रेसी के दिल में काम कर रही है। योग्यता, निपुणता, अनुभव आदि पदों कि कसौटी न हो कर जेल-यात्रा पदों कि कसौटी समझी जा रही है। परिणामत: आज शासन में स्थान-स्थान पर अयोग्यता, स्वार्थपरायणता और भ्रस्टाचार को देखा जा सकता है। कोंग्रेसियों का जेल आदि जाने का त्याग वास्तव में बनियों जैसा एक सौदा मात्र था। क्षात्र - परंपरा में इस प्रकार के स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है। जो कुछ भी त्याग आदि किया जाता है, वह इसलिए नहीं कि उसके द्वारा बाद में किसी अच्छे फल की प्राप्ति होगी, बल्कि इसलिए किया जाना चाहिए की त्याग करना हमारा कर्त्वय है। हमारे आस्तित्व की सार्थकता ही इसी में है कि हम त्याग करके जीवित रहें। यह हमारे सत्ता के स्वामी का आदेश है। अतएव त्याग के पीछे जो फल-प्राप्ति कि इच्छा रखते हैं वह निम्न कोटि का बनिया वृती - प्रधान कर्म है। आज राष्ट्र में इस प्रकार कि त्यागमयी परंपरा को पुनर्जीवित करने कि आवश्यकता है जो बिना किसी प्रकार के प्रतिफल कि इच्छा किये हुए निरंतर रूप से कर्म करती रहे। यही त्यागमयी और कर्त्तव्य - परायण परंपरा क्षत्रिय परंपरा है।

कांग्रेसी दृष्टिकोण के कारण एक भयंकर प्रवर्ति देश में और पनप गयी है। आज इस प्रवर्ति ने देश के सम्पूर्ण जीवन को व्याधिगृस्त कर रखा है। यह प्रवर्ति है आत्म-प्रदर्शन कि सहज प्रवर्ति। इसी प्रवर्ति का विकृत रूप तमोगुणी व्यक्तिवाद और मिथ्याभिमान के रूप में प्रकट होता है। इसी व्यक्तिवाद के कारण अहंभाव पनप कर व्यक्ति को सर्वथा मदान्ध, निरंकुश और दुराग्रही बना देता है। इस प्रकार का व्यक्ति दुर्भाग्य से कभी सत्तारूढ़ हो जाता है तब सुन्दरतम शासन-व्यवस्था में भी विकृत रूप से व्यक्तिगत अधिनायकवाद पनप ही जाता है। भारत में आज इसी प्रकार की स्थिति है। आधुनिक युग में व्यक्तिगत समानता, स्वतंत्रता और अधिकारों कि माँग ने इस व्यक्तिवादी प्रवर्ति को और भी अधिक बेढंगे रूप में प्रोत्साहित कर दिया है।

जीवित व्यक्तयों को पूजने की यह व्यक्तिवादी भावना आज संसार में सर्वाधिक रूप में भारत में ही दिखाई पड़ रही है। गाँधीजी को ईश्वर का रूप, अवतार, युग-पुरुष और महापुरुष आदि से रूप में चित्रित और प्रचारित करना बनिया-प्रभुत्व को स्थिर एवं जीवित रखने कि एक नीति तथा उस समय की एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता मात्र थी। पर बाद में भारतीय बुद्धिजीवियों ने इसका अन्धविश्वास के साथ अनुकरण आरम्भ किया कि जिससे गाँधी-वाक्य, वेद-वाक्य, धर्म-वाक्य और किसी भी सर्वमान्य सिद्धांत से भी बड़ा समझा जाने लगा। आवश्यकता तो इस बात की थी कि गाँधीजी के स्वर्गवास के उपरान्त उनके सिद्धांतो को जीवन में मूर्त रूप से ढाला जाता। यही महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने और उनके ऋण से उऋण होने की एक मात्र प्रणाली है, पर हुआ इसके ठीक विपरीत । गाँधीजी कि मृत्यु के उपरांत उनके नाम को और भी जोर-शोर और व्यापकता से प्रचारित किया गया । यह इसलिए नहीं की आज के उनके अनुयायी उनके सिद्धांतो का अनुकरण करते हैं, बल्कि इसलिए कि अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए उनका नाम और ख्याति से लाभ उठाया जा सके । वास्तव में गाँधीवाद तो उनकी मृत्यु के साथ ही मर गया था । जो कुछ भी उसका प्रभाव शेष था उसे उनके अनुयायियों ने उन्ही के नाम का ढिंढोरा पीटते हुए समाप्त कर दिया । आज आवश्यकता इस बात कि नहीं है कि गाँधीजी के नाम प्रचार से राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति की जाय, पर आवश्यकता इस बात की है कि उनके सिद्धांतो और विचारों को व्यवहारिक स्वरुप दिया जाय । वास्तव में इसी प्रकार जीवित व्यक्तियों कि पूजा और मृत व्यक्तियों के सिद्धांतो की अवहेलना के कारण अधिनायकवादी प्रवर्ति पनपती है । जो राष्ट्र सिद्धांतों के स्थान पर व्यक्तियों कि पूजा करते हैं उनका पतन किसी भी क्षण सम्भव हो सकता है । यह व्यक्तिवादी प्रवर्ति अन्य के महत्त्व को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती । जब अन्य लोग भी कर्म-क्षेत्र में उतर पड़ते हैं तब उनकी और व्यक्तिवादियों कि महत्वाकांक्षाएं परस्पर टकराने लग जाती हैं जिससे ईर्ष्या आदि भावों का जन्म होता है । जो इस व्यक्तिवादी अहम्-भाव की भावना को ठेस पहुँचाने वाले मार्ग में आते हैं, उन्हें उखाड़ फेंक दिया जाता है । जिन संस्थाओं में यह प्रवर्ति घर कर जाती है वहाँ व्यक्ति सर्वेसर्वा बन जाता है और सिद्धांत उस व्यक्ति के पीछे-पीछे चलना आरम्भ कर देते हैं ।

क्षत्रिय परंपरा इस प्रकार के अहम्-प्रधान व्यक्तिवाद को अत्यंत ही तुच्छ दृष्टि से देखती है, तथा कर्तापन की भावना को कभी भी प्रोत्साहित नहीं करती । वास्तव में सम्पूर्ण कर्म, प्रकर्ति के गुणो द्वारा वसीभूत होकर किये जाते हैं; ज्ञानी और अज्ञानी सब की चेष्टायें प्रकर्ति के वश रहती हैं तथा मनुष्य तो केवल साधन-मात्र होने के कारण श्रेय का भागी बन जाता है । यही क्षत्रिय परम्परा है । कहने कि आवश्यकता नहीं कि इस परंपरा का पुनर्जन्म आज राष्ट्र और मानवता के लिए कितना हितप्रद हो सकता है।

आज समस्त संसार शांति और युद्ध संधि-द्वार पर खड़ा है । दिन प्रति-दिन शांति कि आशा क्षीण और युद्ध की आशंका प्रबल होती जा रही है । सब राष्ट्र अपना-अपना अस्तित्व बचाने के लिए प्रयतनशील हैं । युद्ध की यह ज्वाला ईसा की बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही समस्त संसार को क्षुब्ध कर रही है । शांति के जितने भी उपाय निकाले जाते हैं वे सब निष्फल हो जाते हैं । शांति के उपायों कि इस निष्फलता का कारण है राष्ट्रों की परस्पर-विरोधी महत्वाकांक्षाएं और स्वार्थ । बीसवीं शताब्दी में ये महत्वाकांक्षाएं संसार पर नवीन रूप से प्रभुत्व स्थापित करने की भावना के रूप में प्रकट हुई हैं । प्रत्येक सबल राष्ट्र आज राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से शेष संसार को अपना आश्रित और अनुगामी देखना चाहता है । राष्ट्रों की इस मनोवृति का बीज हम राष्ट्रीयता और राष्ट्रों कि पृथक सत्ता को दिए जाने वाले महत्व के रूप में देख सकते हैं । पोप के धार्मिक प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए यूरोप में राष्ट्रवाद का जन्म हुआ । राष्ट्रवाद के जन्म के साथ ही साथ राष्ट्रीयता, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम आदि भावनाओं को भी जन्म देना आवश्यक समझा गया और कालांतर में राष्ट्र एक धर्म और सिद्धांत के रूप में अपना लिया गया । यूरोप के देशों में चिरकाल से चली आ रही जातीयता ने राष्ट्र और राष्ट्रीयता का नवीन बाना पहन लिया । राष्ट्रोन्नति अथवा राष्ट्र के राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रसार और प्रभुत्व के लिए किया गया प्रत्येक वैध और अवैध, मानुषिक और अमानुषिक तथा उचित और अनुचित कार्य उच्चकोटि का देश-भक्तिपूर्ण कार्य समझा जाने लगा।

बीसवीं शताब्दी में आते-आते इसी राष्ट्रीयता ने अपने नग्नरूप को विशिष्ट सिद्धांतो के निचे छिपाना शुरू कर दिया । नए-नए वादों का अविष्कार होने लगा । इटली का राष्ट्रवाद, फासिज्म, जर्मनी का नाज़ीवाद, रूस का साम्यवाद और इंग्लैंड, फ्रांस और अमेरिका का प्रजातंत्र वाद के रूप में प्रकट होकर सामने आने लगा । शक्ति को अधिक और दृढ बनाने के लिए सामान आदर्श और सिद्धांतो वाले राष्ट्रों के गुट भी बनने लगे । इस प्रकार फासिस्ट और प्रजातांत्रिक राष्ट्रवादी दो गुट मुख्य रूप से द्वितीय विश्व - युद्ध से पहले बन चुके थे। आज भी साम्यवादी और प्रजातांत्रिक राष्ट्रवाद के रूप में दो शक्तिशाली गुट संसार में बने हुए हैं । वस्तुत: इन वादों और साम्राज्यवाद में कोई मौलिक अंतर नहीं है। दोनों की मूल प्रवर्ति संसार पर प्रभुत्व स्थापित करने की ही रही है।

इस राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता की भावना से पृथक-पृथक राष्ट्रों को जहाँ लाभ पहुंचा है वहाँ मानवता की बड़ी हानि हुई है । प्रतिस्पर्धा की भावना से राष्ट्रों ने भौतिक उन्नति तो बहुत अधिक की पर स्वराष्ट्र की महता और राष्ट्रीय प्रभुत्व कि बढ़ाने की भावना के कारण विश्व में अधिक कटुता, संदेह और द्वेष फैला है. एक राष्ट्र वाले अपने को, अपनी राजनैतिक , आर्थिक और सांस्कृतिक मान्यताओं और प्रणालियों को दूसरों से श्रेष्ठ समझ कर उन्हें गुलाम बनाने का प्रयत्न करते हैं तथा उनका राजनैतिक और आर्थिक शोषण करना चाहते हैं. इन प्रयत्नों का प्रतिकार होता है और परिणाम में विश्व-युद्ध, विश्व-अशांति और विश्व-संकट उत्पन्न होकर मानवता के लिए विनाश की साज-सज्जा तैयार हो जाती है. इस राष्ट्रवाद का प्रलयकारी रूप तब सामने आता है जब एक योद्धा -राष्ट्र दूसरे योद्धा -राष्ट्र के समक्ष नागरिकों का निर्दयतापूर्वक विनाश करने लग जाता है। राष्ट्रवाद यह मान कर चलता है कि शत्रु-राष्ट्र में बसने वाले समस्त नागरिक दुष्ट, अन्यायी और शत्रु हैं। अतएव शत्रु-राष्ट्र को हारने के लिए उन सबका विनाश आवश्यक है। भले और बुरे, सज्जन और दुष्ट की सीमा-रेखा का आभाव हो जाता है। जब एक राष्ट्र परास्त हो जाता है तब उसके समस्त नागरिकों को पराजय के परिणाम-स्वरुप ग़ुलामी और अन्य व्याधियॉँ भुगतनी पड़ती हैं। वास्तव में यह दशा अत्यंत ही अन्यायपूर्ण और अवास्तविक है. प्रत्येक राष्ट्र में सज्जन और दुष्ट, दोषी और निर्दोष सब प्रकार के मनुष्य बसते हैं. अतएव न्याय और सत्य की रक्षा के लिए केवल दुष्टों और अपराधियों का ही विनाश होना चाहिए, सज्जनों और निर्दोषों का नहीं। पर आज का राष्ट्रवाद इस बुराई से बच नहीं सकता।

इस प्रकार आज के इस राष्ट्रवाद में दो बुराइयां मूल रूप से पनप रहीं हैं. संसार की अशान्ति और युद्धों के भय के लिए यह राष्ट्रवाद जिम्मेवार है और इसी राष्ट्रवाद के कारण युद्ध के समय भले और बुरे दोषी और निर्दोष नागरिकों का सामान रूप से उत्पीड़न किया जाता है. इन दोनों बुराइयों को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को मान्यता दी जेन लगी है, तथा राष्ट्रसंघ और सुरक्षापरिषद् आदि का निर्माण किया गया है। पर ये दोनों ही मार्ग अपूर्ण और अपर्याप्त हैं, क्योंकि ये रोग के कारणो को दूर न करके केवल ऊपरी उपचार मात्र का प्रयत्न करते हैं।

अत: आज मानवता को इस राष्ट्रवाद से उत्पन्न भयंकर दोषों से बचाने की सबसे बड़ी आवश्यकता है. संघर्ष अथवा युद्धों को बन्द करने के समस्त प्रयत्न अवास्तविक और असत्य है. त्रिगुणात्मक माया द्वारा संसार की रचना होने के कारण भलाई और बुराई, सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म, न्याय और अन्याय में संघर्ष अवश्यम्भावी है. जब तक यह संसार रहेगा तब तक न्यूनाधिक मात्रा में भलाई और बुराई, सत्य और असत्य भी अवश्य रहेंगे और इसीलिए इन दो विरोधी शक्तियों में संघर्ष भी अवश्यम्भावी है. यही सत्व और तम का संघर्ष है जो चिरकाल से होता आया है और चिरकाल तक होता रहेगा। अतः युद्ध या संघर्ष को बंद करने की बातें या तो केवल किन्ही राजनितिक स्वार्थों की पूर्ती के लिये किया जाने वाला ढकोसला मात्र है या संसार के राजनीतिज्ञों की बुद्धि का दिवालियापन। इस द्वंदात्मक संसार में से द्वन्द अथवा युद्ध को मिटाने की आवश्यकता नहीं है और न कोई शक्ति युद्धों को लम्बे समय तक बंद ही कर सकती है, पर आवश्यकता इस बात की है कि इस द्वंदात्मक संसार में आज राष्ट्र-निरपेक्ष सिद्धांत की स्थापना की जाय. संघर्ष में यह राष्ट्र-निरपेक्ष सिद्धांत ही क्षात्र-वृति और क्षात्र-परंपरा है|

क्रमश:........

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