Friday, November 29, 2013

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- ४ (राजपूत और भविष्य)

भाग - ३ से आगे
'जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता-शासन' एक आकर्षक वाक्य अवश्य है पर यह कल्पना वस्तुस्थिति से कोसों दूर है. इस व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्र का भाग्य बुद्धिमान, नि:स्वार्थ और सच्चे जन-भक्तों के हाथों में न आकर उन अवसरवादी लोगों के हाथों में आ जाता है जो साधन-संपन्न, मिथ्या-भाषी, प्रचार-पट्टू और येन-केन-प्रकारेण जनता को मुर्ख बनाने की कला में अधिक निपुण होते हैं. वास्तव में पेशेवर राजनीतिज्ञ और राजनैतिक गुण्डे इसमें अधिक सफल होते हैं. इस व्यवस्था के अंतर्गत बहुमत-प्राप्त दल को ही राज्य-संचालन का भार दिया जाता है. जिन लोगों के मतों से बहुमत का निर्माण होता है, वे वास्तव में समझते ही नहीं कि राज्य-संचालन क्रिया एक कला और बुद्धिमतापूर्ण कार्य है और जिनको वे मत देने जा रहे हैं वे इस कला को जानते हैं अथवा नहीं। वास्तव में प्रजातन्त्रवाद जनता के अज्ञान का दुरूपयोग है. बहुमत सदैव नारों, अभद्र उपायों और सामयिक घटनाओं से ही प्रभावित रहता है. वह कभी भी दूरदर्शी, चिंतनशील और बुद्धिमान नहीं हो सकता। इस व्यवस्था के अंतर्गत धारासभाओं और संसद के बहुमत-प्राप्त दलों के अधिकांश धरासाभाई और संसद-सदस्य या तो शासन-संचालन के मूल सिद्धांतों को समझते ही नहीं या संस्थान अनुशासन और ऐसे ही अन्य कारणो से उदासीन होकर केवल सत्तारूढ़-मंत्रिमंडल की हाँ में हाँ मिलाते रहते हैं. वास्तविक रूप से मंत्रिमंडल के सदस्य और विशेषतः प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ही वास्तविक शासक होता है. इस प्रकार यह शासन जनता द्वारा न होकर अंतिम रूप से एक या कुछ व्यक्तियों द्वारा ही होता है, उसी बहुमत-प्रधान वर्ग, जाति अथवा संप्रदाय के हितों को संरक्षण और प्रोत्साहन देने वाले कानून ही धारा-सभाओं आदि में बनाये जाते हैं. वे कानून अन्य वर्गों अथवा जातियों को चाहे समूल नष्ट करने वाले हों तो भी सत्तारूढ़ दल इसकी चिन्ता नहीं करता। इस प्रकार यह व्यवस्था जनता के लिए न होकर सदैव उन लोगों के लिए होती है जिनके मतों से एक दल सत्तारूढ़ होता है|

प्रजातन्त्रवाद में सिद्धांतत: सत्तारूढ़ दल सम्पूर्ण जनता अथवा मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होता है, पर जनता का कोई एक व्यक्तित्व, प्रतिनिधि नहीं होता और न वह जनता एक मस्तिष्क से सोच और समझ ही सकती है. जनता के प्रति जिम्मेवारी का अर्थ है किसी के भी प्रति जिम्मेवारी नहीं। यही कारण है कि सत्तारूढ़ दल सदैव अनियंत्रित, निरंकुश और गैर-जिम्मेवार होता है. वह सदैव एकपक्षीय और दलगत स्वार्थपूर्ति के कार्यों का कानूनों द्वारा वैधीकरण करता रहता है.

इस व्यवस्था के अंतर्गत दलगत राजनीति के पनपने के कारण कभी भी पक्षपातरहित कार्य नहीं हो सकता। सत्तारूढ़ दल सदैव अपने दल और दल के व्यक्तियों को लाभ पहुँचाने कि योजनायें क्रियान्वित करता रहता है. जनहित अथवा देशहित की भावना की अपेक्षा उसके सामने अपने दल और दलविशेष को आगामी चुनावों में सफल बनाने की भावना अधिक कार्य करती रहती है। आज हम जन कल्याण के लिए जितने भी कार्यक्रम देख रहे हैं वे वास्तव में जन कल्याण के कार्यक्रम न होकर मुख्या रूप से सत्तारूढ़ दल द्वारा चुनाव जीतने के व्यवस्थित उपाय मात्र हैं।

व्यवस्थापिका सभा (Legislative Functions) का और कार्यपालिका(Executive Functions) का कार्य एक ही दल के हाथों में होने के कारण सदैव राजकीय सत्ता का दुरूपयोग होता रहता है। सत्तारूढ़ दल पूर्ण निरंकुश और सर्वाधिकार-संपन्न होने के कारण अपनी इच्छाओं और मान्यताओं को कानून बना कर देश पल बलात लादा करता है. बहुमत-प्राप्त दल में भी बहुमत तो अज्ञानियों और मूर्खों का होता है, अतएव थोड़े से बुद्धिजीवी लोग अपनी इच्छाओं और मान्यताओं को कानून द्वारा सम्पूर्ण देश पर लादा करते हैं और उस दल के बहुमत का निर्माण करने वाले सदस्य प्रलोभन, मूर्खता अथवा दलगत अनुशासन के कारण चन्द बुद्धिजीवियों का प्रकट रूप से विरोध करने का साहस नहीं कर सकते। इस प्रकार प्रजातन्त्रवाद में एक दो व्यक्तियों की इच्छायें और मान्यतायें सम्पूर्ण देश कि इच्छा और मान्यता बना दी जाती हैं तथा विधि-निर्माण और विधि का प्रयोग एक ही दल के हाथों में होने के कारण प्रशासन के दोनों ही अंग निरंकुश और कालांतर में भ्रस्ट बन जाते हैं।

जिस देश में राजनैतीक संस्थायें अधिक होती हैं, उस देश में तो स्पष्ट रूप से प्रजातन्त्रवाद के अंतर्गत जनता के अल्पमत का ही शासन होता है। इसी भाँती यदि सत्तारूढ़ दल में भी परस्पर गुटबाज़ी हुई तो भी शासन अल्पमत का ही होता है, क्योंकि बहुमत के अंदर बहुमत का तात्पर्य सदैव अल्पमत ही हुआ करता है।

प्रजातन्त्रवाद में अल्पमत के सामने केवल तीन ही मार्ग होते हैं. या तो वह अपने सिद्धांतों को छोड़कर बहुमत या सत्तारूढ़ दल में मिल जाय, या अपने अल्पमत को शनै: शनै: बहुमत में रूपांतरित कर दे, या सदैव कुण्ठित होकर बहुमत की दासता करता रहे। सैद्धांतिक अल्पमत को विविशत: तीसरा ही मार्ग अपनाना पड़ता है। इस प्रकार सिद्धांतों के ऊपर आधारित अल्प-संख्यकों के लिए सैद्धांति उन्नती का कुछ भी अवसर नहीं रहता। अन्य शासन-प्रणालियों की भाँति प्रजातन्त्रवाद अप्राकृतिक, अधिक खर्चीली, अयोग्य और भ्रस्ट शासन-व्यवस्था है. मितव्ययिता, प्रशासनिक दक्षता, क्षिप्रता, ईमानदारी आदि से यह व्यवस्था कोसों दूर रहती है।

न्यायपालिका (Judiciary) को कार्यपालिका से स्वतंत्र रखने का सिद्धांत आज सर्वमान्य सा हो गया है, पर भारत में हम न्यायपालिका को पूर्ण स्वतंत्र नहीं कह सकते। उच्चन्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनका पृथक्करण सत्तारूढ़ दल के ही हाथों में है। इसके अतिरिक्त कई आयोगों आदि का न्यायाधीशों को अध्यक्ष बनाना तथा अवकाश के उपरांत उन्हें अन्य प्रलोभनों के पद देने की नीति ने आज अधिकांश न्यायाधीशों को केवल सत्तारूढ़ डाक का कृपाकांक्षी मात्र बना रखा है। न्यायपालिका तभी स्वतंत्र कही जा सकती है जब निर्धारित योग्यता और अनुभव वाले व्यक्तियों ला न्यायाधीशों के रूप में जनता द्वारा चुनाव हो और उनके कार्यकाल की अवधि निश्चित हो। इस प्रकार भारत में आज एक ही दल कानून बनता है, वही कानून को कार्यान्वित करता है और उसी के द्वारा नियंत्रित न्याय-व्यवस्था कानूनों के अंतर्गत न्याय करती है। यह सम्पूर्ण प्रणाली दोषपूर्ण है। इस प्रकार की प्रणाली में विरोधी पक्षों और विचारों को निष्पक्ष न्याय मिला दुर्लभ है।

भारतीय प्रजातंत्र के नाम पर जनता की पिछली ग़ुलामी की प्रतिक्रिया का लाभ उठा कर बुद्धिजीवी-वर्ग आज सर्वे-सर्व बन बैठा है. थोड़े से मनचले बुद्धिजीवी तत्वों की स्वार्थपूर्ति का साधन होने के कारन आज लोगों की इस प्रणाली में श्रद्धा कम होती जा रही है। देश का चेतन मस्तिष्क इसका अब बहिष्कार करने लग गया है। वह इस व्यवस्था से यहाँ तक उब गया है कि अन्य कोई भी स्पष्ट व्यवस्था उसके सामने न होने के कारण वह इससे कहीं अधिक निकृष्ट साम्यवादी व्यवस्था तक को अपनाने के लिए तैयार हो गया है। पूर्व और दक्षिण का साम्यवादी अभ्युदय इसी सत्य की और इंगित करता है। इस प्रणाली के अंतर्गत जितना व्यय और परिश्रम, प्रदर्शन और प्रचार किया जाता है उतना यदि वास्तविक रूप से जनहितकारी योजना पर किया जाय तो बहुत कुछ कल्याण हो सकता है।

इसी भांति आज की समाजवादी व्यवस्था भी एक विदेशी कल्पना और भारतीय वातावरण के सर्वथा विपरीत विचारधारा है। इस व्यवस्था के अंतर्गत अर्थोपार्जन के समस्त बड़े साधनों पर राज्य का अधिकार हो जाने अथवा उनका राष्ट्रीयकरण हो जाने के कारण सत्तारूढ़ दल और भी अधिक शक्ति-संपन्न और निरंकुश हो जाता है। ऐसी व्यवस्था में निरंकुश सत्तारूढ़ दल को पदच्युत करने का जनता के पास कोई भी साधन नहीं रहता। चुनाव-प्रणाली अधिक खर्चीली होने के कारण जनता के सच्चे और ईमानदार सेवक न तो चुनावों द्वारा ही सर्व-साधन-संपन्न सत्तारूढ़ दल को पृथक कर सकते हैं और न किसी अन्य साधन द्वारा ही उसे हटाया जा सकता है। यही कारण है कि एक बार सता हाथ आ जाने के उपरांत प्रत्येक महत्वाकांक्षी सतारूढ़ दल अपने प्रभाव को अक्षुष्ण रखने के लिए सदैव समाजवादी व्यवस्था की स्थापना किया करता है। समाजवादी व्यवस्था प्रजातन्त्रवाद के अंतर्गत सामान्य व्यवस्था से कहीं अधिक कठोर और जन-जीवन को अधिक नियंत्रित और प्रभावित करने वाली व्यवस्था है। इसमें दलगत अधिनायकवाद के पनपने की बहुत सम्भावना रहती है. इस प्रकार के प्रजातंत्रीय समाजवाद अथवा अधिनायकवाद में चुनाव आदि होते अवश्य हैं पर वे केवल प्रदर्शन और संसार के अन्य देशों को भुलावे में डालने के लिए ही होते हैं। इस प्रकार के उपायों को काम में लिया जाता है जिससे प्रत्येक बार सतारूढ़ दल ही विजयी होता है। हमें भय है कि आज का भारतीय प्रजातंत्री समाजवाद भी यही रूप न धारण कर ले।

क्रमश :......

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