Saturday, November 30, 2013

"महान धर्म : निराली परम्परा" भाग- १ (राजपूत और भविष्य)

भारत में राजपूत जाति के उत्थान की प्रथम और अंतिम शर्त है ध्येय की एकता । भारत के प्रत्येक राजपूत का, चाहे वह किसी भी प्रान्त में, किसी भी स्थान पर क्यों न रह रहा हो, केवल एक ही ध्येय होना चाहिये । चाहे गरीब हो या अमीर, बुद्धिजीवी हो या श्रमिक, प्रत्येक धंधा करने वाले राजपूत का ध्येय केवल मात्र एक ही होना चाहिए । आज राजपूत समाज की सबसे बड़ी आवश्यकता यही होगी कि हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण तक और बंगाल, आसाम से लगा कर पंजाब, सिंध के राजपूतों को ध्येय के प्राकृतिक सम्बन्ध में बाँध दिया जाय। और फिर उन्हें समझा दिया जाय कि तुम्हारा केवल मात्र यही एक सच्चा और वास्तविक ध्येय है; केवल मात्र यही एक उद्देश्य हो सकता है, केवल मात्र इसी ध्येय में, तुम्हारी इहलौकिक उन्नति और पारलौकिक कल्याण निहित है । और आगे यह और अनुभव करा दिया जाय कि इसी ध्येय से च्युत होने के कारण, इसे विस्मृत करने के कारण आज तुम्हारी यह अधोगति हुई है । अपने ध्येय की एकता, श्रेष्टता, व्यावहारिकता, वैज्ञानिकता, शाश्वतता, प्रकृति-अनुकूलता और सर्व गुण-सम्पन्नता का सिक्का प्रत्येक क्षत्रिय के मस्तिष्क में जमा देना समाज-उत्थान की पहली शर्त होगी। अपने ध्येय के इन गुणों को समझने के लिए हमें गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। इस सृष्टि के जड़ और चेतन प्रत्येक पदार्थ के अस्तित्व का कोई न कोई कारण अवश्य होता है । इसी प्रकार सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ की रचना, स्थिति, गति और लय का भी कारण होता है । बिना कारण के कार्य असंभव है । इसी प्रकार प्रत्येक कार्य का परिणाम भी होता है । बिना परिणाम के भी कार्य असंभव है । अस्तित्व कारण और परिणाम के सहित होता है; अस्तित्व है तो उसका कारण भी होगा और परिणाम भी । प्रत्येक पदार्थ का परिणाम उसके कारण का विकसित रूप होता है । अस्तित्व का कारण निश्चित होता है, अतएव उसका परिणाम भी निश्चित ही होगा। किसी भी पदार्थ के अस्तित्व का यही निश्चित परिणाम उसकी स्वभावजन्य और प्रकृतिजन्य विशेषतायें होती हैं । ये ही स्वभावजन्य और प्रकृतिजन्य विशेषतायें उस पदार्थ का ध्येय अथवा उद्देश्य होती है । अतः उद्देश्य निश्चित होता है, वह बनाने से नहीं बनता ।

अब हम यदि मनुष्य जीवन के उद्देश्य पर विचार करें तो ज्ञात होगा कि मनुष्य जीवन के अस्तित्व में आने के पूर्व ही उसका कारण बन जाता है । इसीलिए मनुष्य जीवन के अस्तित्व में आने के पूर्व ही उसका परिणाम भी बन जाता है, इसीलिए मनुष्य जीवन के अस्तित्व में आने के पूर्व ही उसका उद्देश्य या ध्येय भी निर्मित हो जाता है। जीवन का ध्येय जीवन के प्रारंभ होने से पूर्व ही बन जाता है और जब मनुष्य जन्म लेता है तो उसकी प्रकृति में ध्येय पहले से ही निर्मित रहता है । जन्म के उपरांत यदि अनुकूल वातावरण मिल जाता है तो मनुष्य अपने स्वभावजन्य विशेषताओं का पूर्ण विकास कर ध्येय की प्राप्ति कर लेता है और प्रतिकूल वातावरण में वह पथ-भ्रष्ट होकर ध्येय-प्राप्ति से बिछुड़ जाता है ।

मनुष्य का किसी भी माता-पिता के घर जन्म लेना आकस्मिक घटना मात्र नहीं है, अपितु यह किसी निश्चित, नियमित प्रणाली का परिणाम होता है। हम चाहें तो इसे पूर्व जन्मों के कार्यों या संस्कारों का फल कह सकते हैं । मनुष्य जब जन्मता है तो उसके साथ उसके पूर्व जन्म के संस्कार भी जन्मते हैं और साथ के साथ उसके रक्त में माता-पिता से प्राप्त परम्परा भी होती है । यह परम्परा माता-पिता को उनके माता-पिता और पूर्वजों से प्राप्त हुई होती है, अतः जब-जब मनुष्य इस संसार में जन्म लेता है तो उसके साथ ही एक अति प्राचीन परंपरा अर्थात उस व्यक्ति की उसकी और पूर्वजों की अनुभूत विशेषतायें भी साथ जन्म लेती हैं । इस परंपरा के पालन करने के स्वरुप और अवस्था का नाम ही हमारी संस्कृति है और इन परंपरागत संस्कारों के मूर्तिमान-स्वरुप संस्कृति की श्रद्धापूर्वक रक्षा व पोषण करने का नाम ही स्वधर्म है।

इस प्रकार मनुष्य के जन्म के साथ उसकी परम्परा से कुछ गुण प्राप्त होते हैं और उन्ही गुणों के वशीभूत होकर मनुष्य जीवन में कर्म करता है । ये ही गुण उसके स्वभाव का स्वरुप बन जाते हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव, गुण और कर्म निश्चित रहते हैं । इस प्रकार अपने गुण, कर्म व स्वभाव के अनुकूल कार्य करना ही प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है और यही स्वधर्म व्यक्ति का साध्य अथवा उद्देश्य होता है।

आर्य सिद्धांतनुसार इस सृष्टि कि रचना त्रिगुणात्मक माया के वशीभूत हो कर हुई |सत्व ,राज और ताम के वशीभूत हो कर हर मनुष्य काम करता है |इन्ही गुणो में से कम या अधिक गुणो को मनुष्य परंपरा और पूर्व संस्कारों से प्राप्त करता है और इन्ही गुणो के अधर पर भारतीय मनीषियों ने वर्ण -व्यवस्था द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के स्वाभाविक कर्म अर्थात स्वधर्म कि विविचाना कि है |गीतकार के अनुसार परपरागत स्वाभाव और र्पाकृति से जो व्यक्ति अंतःकरण का निग्रह ,इंद्रियों का दमन, बहार-भीतरी शुद्धि,धर्म के लिए कष्ट सहन करना .क्षमावान ,मन, इंद्रियों और शरीर कि सरलता ,आस्तिक बूढी ,शास्त्र-विषयक ज्ञान और परमात्मा तत्त्व का अनुभव करने वाला हो वह ब्राह्मण है |जिस व्यक्ति में स्वाभाव से ही शूरवीरता ,तेज़,धैर्य ,चतुरता,युद्ध में न भागने का स्वाभाव ,दानशीलता,ईश्वरभाव आदि गुण हो वो क्षत्रिय है |जिस व्यक्ति में स्वाभाव से ही खेती ,गौपालन ,क्रय-विक्रय आदि करने के गुण हों वह वैश्य है |जिस व्यक्ति में स्वाभाव से ही सेवा करने का गुण हो वह शुद्र है |इस प्रकार ब्राह्मण के लिए ब्राह्मण धर्म, क्षत्रिय के लिए क्षात्र-धर्म ,वैश्य के लिए वैश्य -धर्म और शुद्र के लिए शुद्र-धर्म क्रमशः उनके स्वधर्म अथवा स्वाभाविक कर्तव्य हैं |और यही स्वधर्म प्रत्येक व्यक्ति का ध्येय अथवा उद्देश्य हो सकता है ,अतएव क्षत्रिय के लिए उद्देश्य क्षत्रिय धर्म |क्षात्र धर्म कि विस्तृत व्याख्या करने से पहले उसकी तात्विक प्रकृति को समझ लेना आवश्यक होगा |

सतोगुण मुख्यतः ज्ञान व चेतना -प्रधान ,रजोगुण इच्छा व क्रिया-प्रधान तथा तमोगुण अज्ञान व जड़ता -प्रधान है |ज्ञान व चेतना का अज्ञान और जड़ता से चिरकाल से संघर्ष चलता आया है |इसे ही हम सत्य और असत्य ,धर्म और अधर्म,न्याय और अन्याय ,प्रकाश और अंधकार ,भलाई और बुराई ,सद्गुणो और दुर्गुणो अथव दैवी और दानवी संघर्ष के नाम से पुकारते रहे हैं |तमोगुण सदैव से ही सतोगुण को पराजित करके उसे आकारांत करना चाहता है |बीच में रजोगुण पड़ता है अतएव तमोगुण का पहला संघर्ष रजोगुण से ही होता है |दूसरे शब्दों में हम केह सकते हैं कि रजोगुण-प्रधान कर्म करने वाले सांसारिक लोग तमोगुण -प्रधान आसुरी शक्ति द्वारा पहले पराजित होकर दानव बन जाते हैं,तन उनका आक्रमण सतोगुण पर होता है |सतोगुण स्वयं इच्छा और क्रिया से रहित होने के कारन तमोगुण के सामने अकेला ठहर नहीं सकता,अतएव उसे रजोगुण कि सहायता लेनी ही पड़ती है और रजोगुण को स्वयं अपने अस्तित्व के लिए सतवोन्मुखी होकर सैट कि सहायता करनी पड़ती है |इसलिए तो क्षात्र-वृति के बिना ब्राह्मण के सत्व-वृति का जीवित रहना कठिन है |ऐसी दशा में तो वह तमोभाव द्वारा आक्रांत होकर शूद्रत्व के निकृष्टतम गुणो को प्राप्त हो जाता है और इसीलिए जिस देश में क्षत्रिय न हों वहाँ ब्राह्मण का निवास करना वर्जित कहा गया है |इसी सिद्धांत के अनुसार सत्व राज कि सृस्टि करनी चाहिए और राज को सदैव सत्व कि रक्षा के लिए तत्पर रहना चाहिए |जब यह मर्यादा भंग हो जाती है तभी समाज विश्रृंखलित होकर पतनोमुखी बन जाता है|

क्रमश:........

Friday, November 29, 2013

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- अंतिम (राजपूत और भविष्य)

भाग - ४ से आगे...
इसी भाँति वास्तविक साम्यवाद की चरम स्थिति के दो आवश्यक पहलू राज्यहीन और व्यक्तिगत सम्पतिहीन समाज की स्थापना केवल एक ऐसी आदर्श कल्पना मात्र कही जा सकती है जो कभी भी पूरी नहीं हो सकती। इस प्रकार राज्यविहीन समाज की कल्पना हिन्दू तत्वज्ञ बहुत पहले ही कर चुके थे। इस प्रकार की व्यवस्था की स्थापना के लिए ब्रह्मनिष्ठ, ज्ञानी, वासनाजयी और त्यागी व्यक्तियों के समाज-निर्माण का बहुत ही परिश्रम और संस्कारमयी प्रणाली द्वारा प्रयत्न भी किया गया। वास्तव में इस प्रकार के (Stateless Society) समाज की रचना और स्थापना इस प्रकार के श्रेष्ठ चारित्र्य से ही सम्भव हो सकती है। इस प्रकार के समाज में सब व्यक्ति परस्पर स्नेहपूर्ण, स्वार्थ-रहित होकर समाज का निर्माण और धारण करते हैं। ऐसी समाज के लिए राज-सता, दण्ड-नियम आदि के बंधन अनावश्यक होते हैं. यही अवस्था कृत-युग के नाम से पुकारी गई है। इस अवस्था का शास्त्रकारों शास्त्रकारों ने यों वर्णन किया है -
न राज्यं न च राजाˢˢसोन्न दण्डो न च दण्डिकः ।
धर्मेणेव प्रजाः सर्वा रक्षन्तिस्म् परस्परम् ।।

आज के साम्यवाद में जिस राज्यहीन सरकार की कल्पना की गई है, वह धर्महीन होने के कारण कितनी अराजकता और अनैतिकतापूर्ण और भयंकर होगी, उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है. हिन्दू शास्त्रकारों ने भी जब तक यह वांछनीय अवस्था प्राप्त न हो तब तक राजसता का होना आवश्यक मान लिया था और उस पर धर्म अथवा धर्मपरायण व्यक्तियों का नियंत्रण रख दिया, जो सब प्रकार से स्वार्थ-निरपेक्ष, निडर और ब्रह्म-रूप से समाज को देखने वाले समदर्शी होते थे। आज के साम्यवाद की राज्यहीन समाज की कल्पना अपूर्ण और अव्यावहारिक होने के साथ ही साथ धर्मविहीन होने के कारण अतीव भयंकर भी है। इसी भांति व्यक्तिगत सम्पतिहीन समाज की कल्पना भी वास्तविक नहीं है।

इनके अतिरिक्त साम्यवादियों की अन्य धारणायें और मान्यतायें भी असत्य हैं। द्वंदात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत और सृष्टि की जड़ अथवा स्थूल से उत्पति आदि की धारणायें बच्चों की सी बातें हैं। संसार द्वंदात्मक है अवश्य पर वह भौतिक र्रोप से शोषित और शोषक, मजदूर और पूंजीपति का द्वन्द न होकर तात्विक रूप से सत्य और असत्य, न्याय और अन्याय, धर्म और अधर्म, चेतन और जड़, प्रकाश और अंधकार का द्वन्द है। शोषित और शोषक तथा मजदूर और पूंजीपति का विभाजन तो बहुत ही मोटी बुद्धि का कार्य है। इसी द्वंदात्मक भौतिकवाद के अंतर्गत भौतिक साम्य की स्थापना भी एक असम्भव कल्पना मात्र है। समता अथवा साम्य आत्मिक गुण है, अतएव उसकी भौतिक रूप से प्राप्ति असम्भव है। आत्मा तक साम्यवादी दर्शन की पहुँच ही नहीं है। आत्मा और ईश्वर की सत्ता को वह स्वीकार ही नहीं करता, अतएव आत्म-साम्य आदि सत्य और उच्च सिद्धांतों तक साम्यवादी सोच भी नहीं सकते।

वास्तव में आज की साम्यवादी व्यवस्था दलगत अधिनायकवाद के अंतर्गत एक समाजवादी व्यवस्था है जो मनुष्य की घृणा, काम, हिंसा, प्रतिशोध, सांसारिक सुख आदि की पाशविक वृतियों को उतेजित करके सदैव सता हाथ में रखने की चेष्टा किया करती है। इस व्यवस्था के अनुसार व्यक्ति को आवश्यक भौतिक सुविधायें तो प्राप्त हो जाती हैं पर उसकी आत्मा कुण्ठित हो जाती है और स्वतंत्रता आदि गुणों का विनाश विनाश हो जाता है। इस व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति पूर्णतः पशुवत् और यन्त्रवत् होकर अधिनायकवाद को पुष्ट और जीवित रखने का साधन मात्र बन जाता है। अधिनायकवाद चाहे व्यक्तिगत हो अथवा संस्थागत, अतीव ही भयंकर और राक्षसी प्रवर्ति-प्रधान होता है। आस्तिकवाद की दया, उदारता, क्षमा, न्याय, सत्य आदि सद्गुण इस नास्तिक साम्यवादी अधिनायकवाद के लिए सर्वथा असत्य तत्व है। एक बार यदि यह व्यवस्था स्थापित हो जाती है तो इसका उन्मूलन बाह्य शक्ति की सहायता के बिना असम्भव सा होता है। अज्ञान और असंतोष में इसके कीटाणु अधिक पनपते हैं, अतएव इसकी एक-मात्र चिकित्सा ज्ञान-प्रसार और भौतिक रूप से संतोष की प्राप्ति है। वास्तव में आज की प्रचलित साम्यवादी व्यवस्था इस पृथ्वी पर नारकीय व्यवस्था है जो वर्तमान प्रजातंत्रीय समाजवाद और सामान्य प्रजातन्त्रवाद से कहीं अधिक भयानक है। इस व्यवस्था की तुलना हम मध्ययुगीन इस्लामी व्यवस्था से कर सकते हैं। जिस प्रकार एक आदर्श इस्लामी राज्य में विधर्मियों के अस्तित्व को सहा नहीं जा सकता, इसी भाँति साम्यवादी व्यवस्था में भी विरोधी दलों के अस्तित्व के लिए कोई स्थान नहीं है। आदर्श इस्लामी राज्य में विधर्मी और विजातीय तत्व केवल इस्लाम के प्रचार और प्रसार के लिए उपयुक्त साधन और सामग्री समझे जाते हैं, इसी भाँति साम्यवादी व्यवस्था में भी गैर-साम्यवादी लोग साम्यवाद के प्रचार और प्रसार के लिए केवल साधन मात्र होते हैं। एक आदर्श इस्लामी राज्य में राज्य के महत्वपूर्ण पदों और स्थानों पर केवल मुसलमान ही पदासीन हो सकते हैं इसी भाँति इस साम्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत राज्य के समस्त महत्वपूर्ण पद और स्थान साम्यवादीयों के लिए ही सुरक्षित रहते हैं। एक विधर्मियों से घृणा करता है तो दूसरा गैर-साम्यवादियों से घृणा करता है। एक इस्लाम का डंका संसार में बजाना अपना परम पवित्र कर्तव्य समझता है तो दूसरा साम्यवाद के अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव को बढ़ने में अपनी सार्थकता समझता है। सैद्धांतिक कट्टरता, गैरों के लिए घृणा, हिंसा और असहिष्णुता में इस्लाम और साम्यवाद के आदर्श एक समान ही हैं। इतनी समानता होने के उपरांत इस्लाम एक आस्तिक व्यवस्था और साम्यवाद एक नास्तिक व्यवस्था है। इस्लाम के अंतर्गत मुसलमानों के व्यक्तिगत अभ्युदय के लिए मार्ग पूर्ण रूप से खुला रहता है, पर साम्यवाद के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वतंत्रता नाम की कोई वस्तु नहीं है। वह एक बहुत बड़ा कारावास है जिसके अंतर्गत अयक्ति को यंत्रवत कार्य करते रहना पड़ता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस साम्यवादी व्यवस्था से प्रजातंत्री व्यवस्था कहीं अधिक बुद्धिमतापूर्ण एवं कल्याणकारी है।

भारत के लिए पश्चिमी प्रजातन्त्रवाद, समाजवाद अथवा साम्यवाद में से कोई भी शासन-प्रणाली उपयुक्त नहीं है। यहाँ के लिए तो केवल वर्ण-व्यवस्थानुसार शासन-प्रणाली ही श्रेयस्कर है। वर्ण-व्यवस्था में इन वादों के गुणों का समावेश और दोषों का परिहार हो जाता है। वर्ण-व्यवस्था शास्त्रोक्त व्यवस्था है और शास्त्र किसी एक, दो या चार-पाँच व्यक्तियों द्वारा भौतिक सुखों के चिंतन में बनाई गई पुस्तकें मात्र नहीं हैं। वे इस पृथ्वी पर ईश्वरीय आज्ञा का लिपिबद्ध अथवा भाषा-बद्ध स्वरुप हैं। वे हज़ारों वर्षों के हज़ारों त्यागी और तपस्वियों के मनन, चिन्तन, अनुभव और आत्म-ज्ञान की साक्षी स्वरुप हैं। शास्त्रोक्त होने के कारण वर्ण-व्यवस्था ही मूल रूप से हमारे लिए ग्राह्य और श्रेयष्कर हो सकती है।

संसार के सब वादों में सर्व प्राचीन प्रजातन्त्रवाद है, जिसका जन्म अमेरिका के स्वातंत्र्य संग्राम और राज्य क्रांति के पश्चात हुआ है। इसकी अधिक से अधिक आयु पौने दो सौ वर्षों की है। समाजवादी व्यवस्था तो बीसवीं शताब्दी की कल्पना मात्र है और साम्यवाद की आयु चालीस वर्ष से अधिक नहीं है। अतएव कोई भी दृढ़तापूर्वक नहीं कह सकता कि इन वादों में कितना स्थायित्व और सत्य है। पर वर्ण-व्यवस्थानुसार समाज-व्यवस्था की आयु हज़ारों वर्षों की है। जिस व्यवस्था का पतन होने में लगभग तीन-चार हज़ार वर्ष लगे हों, उसकी दीर्धायु का सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है। पतनावस्था में भी वर्ण-व्यवस्था के शाश्वत सिद्धांत पश्चिमी वादों से कहीं अधिक व्यावहारिक और श्रेयस्कर हैं। अतएव वर्ण-व्यवस्था पूर्ण परीक्षित, पूर्ण वैज्ञानिक, शास्त्रोक्त और व्यावहारिक होने के कारण भारत के लिए एक मात्र ग्राह्य और उपयुक्त व्यवस्था है। यह भारत की अपनी मौलिक विशेषता है और यदि सुचारु रूप से इसकी पुनः स्थापना कर दी जाय तो संसार के बहुत से देश पश्चिमी वादों से अपना पिण्ड छुड़ा कर निश्चित रूप से इसकी और आकर्षित हो जायेंगे। भारत पुनः संसार के गुरुत्व पद पर प्रतिष्ठित हो जायेगा। वह माली कितना अभागा और अज्ञानी होगा जो अपने उधान में उत्पन्न केलों को बेचकर बाहर से लाल मिर्च लाकर खायेगा और वह ग्वाला कितना मुर्ख होगा जो दूध के मूल्य में मदिरा खरीद कर पीयेगा। इसी भांति वह देश कितना अभागा और अज्ञानी होगा जो अपनी मौलिक विशेषताओं को छोड़कर दूसरों के अनुकरण द्वारा उन्नति करना चाहेगा।

इस वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत क्षात्र-परम्परा अत्यधिक महत्वशाली व्यवस्था है। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था की स्थापना, उसके आदर्श, मर्यादा आदि की रक्षा का दायित्व मूल रूप से क्षात्र-वृति पर है। अतएव सर्वप्रथम हमें क्षात्र-धर्म के उत्थान के रूप में सोचना चाहिए। क्षात्र-धर्म के उत्थान से तात्पर्य किसी जाति विशेष के उत्थान से नहीं, वरन शास्त्रोक्त वर्ण-व्यवस्था के उत्थान से है। क्षात्र-परंपरा ही वास्तव में सेवा का दिव्या आधार है। इसकी उन्नति में ब्राह्मण, वैश्य, शुद्र की समान रूप से उन्नति निहित है, इसकी उन्नति में सम्पूर्ण मानवता की उन्नति निहित है और यही आज भारत राष्ट्र के लिए सर्व हितकारी, सर्वकल्याणकारी और सुन्दर योजना है।

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सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- ४ (राजपूत और भविष्य)

भाग - ३ से आगे
'जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता-शासन' एक आकर्षक वाक्य अवश्य है पर यह कल्पना वस्तुस्थिति से कोसों दूर है. इस व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्र का भाग्य बुद्धिमान, नि:स्वार्थ और सच्चे जन-भक्तों के हाथों में न आकर उन अवसरवादी लोगों के हाथों में आ जाता है जो साधन-संपन्न, मिथ्या-भाषी, प्रचार-पट्टू और येन-केन-प्रकारेण जनता को मुर्ख बनाने की कला में अधिक निपुण होते हैं. वास्तव में पेशेवर राजनीतिज्ञ और राजनैतिक गुण्डे इसमें अधिक सफल होते हैं. इस व्यवस्था के अंतर्गत बहुमत-प्राप्त दल को ही राज्य-संचालन का भार दिया जाता है. जिन लोगों के मतों से बहुमत का निर्माण होता है, वे वास्तव में समझते ही नहीं कि राज्य-संचालन क्रिया एक कला और बुद्धिमतापूर्ण कार्य है और जिनको वे मत देने जा रहे हैं वे इस कला को जानते हैं अथवा नहीं। वास्तव में प्रजातन्त्रवाद जनता के अज्ञान का दुरूपयोग है. बहुमत सदैव नारों, अभद्र उपायों और सामयिक घटनाओं से ही प्रभावित रहता है. वह कभी भी दूरदर्शी, चिंतनशील और बुद्धिमान नहीं हो सकता। इस व्यवस्था के अंतर्गत धारासभाओं और संसद के बहुमत-प्राप्त दलों के अधिकांश धरासाभाई और संसद-सदस्य या तो शासन-संचालन के मूल सिद्धांतों को समझते ही नहीं या संस्थान अनुशासन और ऐसे ही अन्य कारणो से उदासीन होकर केवल सत्तारूढ़-मंत्रिमंडल की हाँ में हाँ मिलाते रहते हैं. वास्तविक रूप से मंत्रिमंडल के सदस्य और विशेषतः प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ही वास्तविक शासक होता है. इस प्रकार यह शासन जनता द्वारा न होकर अंतिम रूप से एक या कुछ व्यक्तियों द्वारा ही होता है, उसी बहुमत-प्रधान वर्ग, जाति अथवा संप्रदाय के हितों को संरक्षण और प्रोत्साहन देने वाले कानून ही धारा-सभाओं आदि में बनाये जाते हैं. वे कानून अन्य वर्गों अथवा जातियों को चाहे समूल नष्ट करने वाले हों तो भी सत्तारूढ़ दल इसकी चिन्ता नहीं करता। इस प्रकार यह व्यवस्था जनता के लिए न होकर सदैव उन लोगों के लिए होती है जिनके मतों से एक दल सत्तारूढ़ होता है|

प्रजातन्त्रवाद में सिद्धांतत: सत्तारूढ़ दल सम्पूर्ण जनता अथवा मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होता है, पर जनता का कोई एक व्यक्तित्व, प्रतिनिधि नहीं होता और न वह जनता एक मस्तिष्क से सोच और समझ ही सकती है. जनता के प्रति जिम्मेवारी का अर्थ है किसी के भी प्रति जिम्मेवारी नहीं। यही कारण है कि सत्तारूढ़ दल सदैव अनियंत्रित, निरंकुश और गैर-जिम्मेवार होता है. वह सदैव एकपक्षीय और दलगत स्वार्थपूर्ति के कार्यों का कानूनों द्वारा वैधीकरण करता रहता है.

इस व्यवस्था के अंतर्गत दलगत राजनीति के पनपने के कारण कभी भी पक्षपातरहित कार्य नहीं हो सकता। सत्तारूढ़ दल सदैव अपने दल और दल के व्यक्तियों को लाभ पहुँचाने कि योजनायें क्रियान्वित करता रहता है. जनहित अथवा देशहित की भावना की अपेक्षा उसके सामने अपने दल और दलविशेष को आगामी चुनावों में सफल बनाने की भावना अधिक कार्य करती रहती है। आज हम जन कल्याण के लिए जितने भी कार्यक्रम देख रहे हैं वे वास्तव में जन कल्याण के कार्यक्रम न होकर मुख्या रूप से सत्तारूढ़ दल द्वारा चुनाव जीतने के व्यवस्थित उपाय मात्र हैं।

व्यवस्थापिका सभा (Legislative Functions) का और कार्यपालिका(Executive Functions) का कार्य एक ही दल के हाथों में होने के कारण सदैव राजकीय सत्ता का दुरूपयोग होता रहता है। सत्तारूढ़ दल पूर्ण निरंकुश और सर्वाधिकार-संपन्न होने के कारण अपनी इच्छाओं और मान्यताओं को कानून बना कर देश पल बलात लादा करता है. बहुमत-प्राप्त दल में भी बहुमत तो अज्ञानियों और मूर्खों का होता है, अतएव थोड़े से बुद्धिजीवी लोग अपनी इच्छाओं और मान्यताओं को कानून द्वारा सम्पूर्ण देश पर लादा करते हैं और उस दल के बहुमत का निर्माण करने वाले सदस्य प्रलोभन, मूर्खता अथवा दलगत अनुशासन के कारण चन्द बुद्धिजीवियों का प्रकट रूप से विरोध करने का साहस नहीं कर सकते। इस प्रकार प्रजातन्त्रवाद में एक दो व्यक्तियों की इच्छायें और मान्यतायें सम्पूर्ण देश कि इच्छा और मान्यता बना दी जाती हैं तथा विधि-निर्माण और विधि का प्रयोग एक ही दल के हाथों में होने के कारण प्रशासन के दोनों ही अंग निरंकुश और कालांतर में भ्रस्ट बन जाते हैं।

जिस देश में राजनैतीक संस्थायें अधिक होती हैं, उस देश में तो स्पष्ट रूप से प्रजातन्त्रवाद के अंतर्गत जनता के अल्पमत का ही शासन होता है। इसी भाँती यदि सत्तारूढ़ दल में भी परस्पर गुटबाज़ी हुई तो भी शासन अल्पमत का ही होता है, क्योंकि बहुमत के अंदर बहुमत का तात्पर्य सदैव अल्पमत ही हुआ करता है।

प्रजातन्त्रवाद में अल्पमत के सामने केवल तीन ही मार्ग होते हैं. या तो वह अपने सिद्धांतों को छोड़कर बहुमत या सत्तारूढ़ दल में मिल जाय, या अपने अल्पमत को शनै: शनै: बहुमत में रूपांतरित कर दे, या सदैव कुण्ठित होकर बहुमत की दासता करता रहे। सैद्धांतिक अल्पमत को विविशत: तीसरा ही मार्ग अपनाना पड़ता है। इस प्रकार सिद्धांतों के ऊपर आधारित अल्प-संख्यकों के लिए सैद्धांति उन्नती का कुछ भी अवसर नहीं रहता। अन्य शासन-प्रणालियों की भाँति प्रजातन्त्रवाद अप्राकृतिक, अधिक खर्चीली, अयोग्य और भ्रस्ट शासन-व्यवस्था है. मितव्ययिता, प्रशासनिक दक्षता, क्षिप्रता, ईमानदारी आदि से यह व्यवस्था कोसों दूर रहती है।

न्यायपालिका (Judiciary) को कार्यपालिका से स्वतंत्र रखने का सिद्धांत आज सर्वमान्य सा हो गया है, पर भारत में हम न्यायपालिका को पूर्ण स्वतंत्र नहीं कह सकते। उच्चन्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनका पृथक्करण सत्तारूढ़ दल के ही हाथों में है। इसके अतिरिक्त कई आयोगों आदि का न्यायाधीशों को अध्यक्ष बनाना तथा अवकाश के उपरांत उन्हें अन्य प्रलोभनों के पद देने की नीति ने आज अधिकांश न्यायाधीशों को केवल सत्तारूढ़ डाक का कृपाकांक्षी मात्र बना रखा है। न्यायपालिका तभी स्वतंत्र कही जा सकती है जब निर्धारित योग्यता और अनुभव वाले व्यक्तियों ला न्यायाधीशों के रूप में जनता द्वारा चुनाव हो और उनके कार्यकाल की अवधि निश्चित हो। इस प्रकार भारत में आज एक ही दल कानून बनता है, वही कानून को कार्यान्वित करता है और उसी के द्वारा नियंत्रित न्याय-व्यवस्था कानूनों के अंतर्गत न्याय करती है। यह सम्पूर्ण प्रणाली दोषपूर्ण है। इस प्रकार की प्रणाली में विरोधी पक्षों और विचारों को निष्पक्ष न्याय मिला दुर्लभ है।

भारतीय प्रजातंत्र के नाम पर जनता की पिछली ग़ुलामी की प्रतिक्रिया का लाभ उठा कर बुद्धिजीवी-वर्ग आज सर्वे-सर्व बन बैठा है. थोड़े से मनचले बुद्धिजीवी तत्वों की स्वार्थपूर्ति का साधन होने के कारन आज लोगों की इस प्रणाली में श्रद्धा कम होती जा रही है। देश का चेतन मस्तिष्क इसका अब बहिष्कार करने लग गया है। वह इस व्यवस्था से यहाँ तक उब गया है कि अन्य कोई भी स्पष्ट व्यवस्था उसके सामने न होने के कारण वह इससे कहीं अधिक निकृष्ट साम्यवादी व्यवस्था तक को अपनाने के लिए तैयार हो गया है। पूर्व और दक्षिण का साम्यवादी अभ्युदय इसी सत्य की और इंगित करता है। इस प्रणाली के अंतर्गत जितना व्यय और परिश्रम, प्रदर्शन और प्रचार किया जाता है उतना यदि वास्तविक रूप से जनहितकारी योजना पर किया जाय तो बहुत कुछ कल्याण हो सकता है।

इसी भांति आज की समाजवादी व्यवस्था भी एक विदेशी कल्पना और भारतीय वातावरण के सर्वथा विपरीत विचारधारा है। इस व्यवस्था के अंतर्गत अर्थोपार्जन के समस्त बड़े साधनों पर राज्य का अधिकार हो जाने अथवा उनका राष्ट्रीयकरण हो जाने के कारण सत्तारूढ़ दल और भी अधिक शक्ति-संपन्न और निरंकुश हो जाता है। ऐसी व्यवस्था में निरंकुश सत्तारूढ़ दल को पदच्युत करने का जनता के पास कोई भी साधन नहीं रहता। चुनाव-प्रणाली अधिक खर्चीली होने के कारण जनता के सच्चे और ईमानदार सेवक न तो चुनावों द्वारा ही सर्व-साधन-संपन्न सत्तारूढ़ दल को पृथक कर सकते हैं और न किसी अन्य साधन द्वारा ही उसे हटाया जा सकता है। यही कारण है कि एक बार सता हाथ आ जाने के उपरांत प्रत्येक महत्वाकांक्षी सतारूढ़ दल अपने प्रभाव को अक्षुष्ण रखने के लिए सदैव समाजवादी व्यवस्था की स्थापना किया करता है। समाजवादी व्यवस्था प्रजातन्त्रवाद के अंतर्गत सामान्य व्यवस्था से कहीं अधिक कठोर और जन-जीवन को अधिक नियंत्रित और प्रभावित करने वाली व्यवस्था है। इसमें दलगत अधिनायकवाद के पनपने की बहुत सम्भावना रहती है. इस प्रकार के प्रजातंत्रीय समाजवाद अथवा अधिनायकवाद में चुनाव आदि होते अवश्य हैं पर वे केवल प्रदर्शन और संसार के अन्य देशों को भुलावे में डालने के लिए ही होते हैं। इस प्रकार के उपायों को काम में लिया जाता है जिससे प्रत्येक बार सतारूढ़ दल ही विजयी होता है। हमें भय है कि आज का भारतीय प्रजातंत्री समाजवाद भी यही रूप न धारण कर ले।

क्रमश :......

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- ३ (राजपूत और भविष्य)

भाग -२ से आगे
वर्ण-व्यवस्था का आधार, मनुष्य की जन्मजात प्रवर्ति और प्रकर्ति होने के कारण, इसके अनुसार कार्य का विभाजन अत्यंत ही मनोवैज्ञानिक रूप से हुआ है. वंशानुगत, परम्परागत और स्वभाव के अनुकूल होने के कारण मनुष्य शीघ्र ही अपने-अपने कार्यों में निपुणता प्राप्त कर लेते हैं. न समाज में बेकारी की समस्या रहती है और न वर्ग-द्वेष ही. सबके सामने जन्म से ही धंधा रहता है. इसीलिए किसी को भी अपने पैतृक अधिकारों से च्युत करने कि आश्यकता नहीं रहती। प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ती की इसमें गारंटी रहती है। शिक्षा का आधार प्रकर्ति, स्वभाव और सहज प्रवर्तियों को मान कर मनोवैज्ञानिक रूप से शिक्षा और काम देने के कारण प्रत्येक उन्नत राष्ट्र आज ज्ञात अथवा अज्ञात रूप से वर्ण-व्यवस्था कि वैज्ञानिकता को अपना रहा है, पर आश्चर्य इस बात का है कि इस व्यवस्था का आदि स्रष्टा भारत इस व्यवस्था से दिनोदिन दूर हटता जा रहा है।

वर्ण-व्यवस्था की व्यवहारिकता, सरलता, वैज्ञानिकता और सर्वहितकारिता तब तक समझ नहीं आ सकती, जब तक हम आर्य-धर्म के अंतर्गत कर्मवाद को अच्छी प्रकार से समझ नहीं लेते। आर्य-दर्शन के अनुसार कर्म मनुष्य को ईश्वर द्वारा दिया गया दायित्व है. यदि मनुष्य अपने इस दायित्व को कुशलतापूर्वक पूर्ण कर देता है, तो वह अपने अस्तित्व की सार्थकता को पूर्ण कर लेता है. मनुष्य को ईश्वर द्वारा दिये गये इस दायित्व के अंतर्गत ही उसके इस लोक और परलोक सम्बन्धी सब कर्म और कर्त्तव्य आ जाते हैं. शेष उसके लिए करने को कुछ भी नहीं रहता। इस दायित्व को पूरा करने अथवा न करने, इससे त्यागने या अपनाने में मनुष्य स्वतंत्र अवश्य रहता है पर अपने कर्मो का फल वह अपनी इच्छा के अनुरूप ही प्राप्त करे, यह उसके वश की बात नहीं होती। वह फल भोगने में परतंत्र रहता है. अतएव जिस फल रुपी वस्तु पर उसका कोई अधिकार ही नहीं, उसकी चिंता किये बिना ईश्वर द्वारा सोंपे हुए कार्य को कर्त्तव्य समझ कर करते रहना ही निष्काम-कर्मयोग का सिद्धांत है। इस सिद्धांत से दो बातें प्रतिपादित होती हैं-प्रथम यह कि यह कार्य ईश्वरप्रदत्त कार्य है. अतएव इसको करना हमारा परम कर्त्तव्य है. जब एक मनुष्य किसी उच्चाधिकारी या मालिक द्वारा बताये हुए कार्य को उसे खुश करने के लिए पूर्ण मनोयोग, शक्ति और चतुराई से करता है तब वह सर्वशक्तिमान परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए उसका कार्य क्यों नहीं पूर्ण मनोयोग, शक्ति और चतुराई से करेगा। नेपोलियन के वीर सिपाहियों कि यह तीर्व इच्छा रहती थी कि एक बार वह उनकी और देख ले, फिर तो वे धधकती हुई अग्नि में भी कूद पड़ेंगे - एक बार नेपोलियन उन्हें नाम से सम्बोधित करके आज्ञा दे दे, फिर तो वे काल से भीड़ जायेंगे। जब नेपोलियन के सिपाही अपने लौकिक मालिक के प्रति इतने सच्चे और कर्त्तव्यशील थे तब हम अपने सर्वशक्तिमान मालिक के प्रति क्यों नहीं सच्चे और कर्त्तव्यशील हों. इस प्रकार कर्म को ईश्वरीय आदेश समझ कर, ईश्वरीय इच्छा की पूर्ती के निमित पूर्ण करने से किसी भी प्रकार की रुकावट, अव्यवहारिकता, बेईमानी और बहानेबाजी सामने नहीं आ सकती। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य द्वारा सौंपे गए दायित्व से तो छिप कर अथवा झूठ बोल कर बच सकता है पर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी ईश्वर द्वारा दिए गए दायित्व से वह कैसे बचेगा? कर्मवाद में जो दूसरी बात प्रतिपादित होती है वह है फल भोगने में परतंत्रता। जो हम कार्य करते हैं उनका फल मिलेगा तो अवश्य, पर वह फल हमारी इच्छा के अनुरूप ही होगा, यह आवश्यक नहीं है. इस सिद्धांत को हृदयंगम कर लेने से पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, छीना-झपटी और वर्ग-संघर्ष आदि कभी भी नहीं होंगे। मनुष्य जो कर्म करता है, उसके लिए जो कुछ फल उसे ईश्वरीय विधान के अंतर्गत मिलता हो, वह मिल कर रहता है. इस प्रकार कि सांसारिक धारणा बना लेने के उपरांत असंतोष नाम की कोई वास्तु नहीं रहती। असंतोष ही दुःख है.

कर्मवाद के ये ही दो पहलु वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक कार्य और प्रणाली को नियन्त्रित और परिचालित करते रहते हैं. इन सिद्धांतो को मानकर नहीं चलने से वर्ण-व्यवस्था या अन्य कोई भी व्यवस्था सफल, व्यावहारिक और स्थाई नहीं हो सकती। वर्त्तमान समाज-गठन उसके संस्कार और वातावरण इस व्यवस्था को प्रचलित करने के लिए उपर्युक्त नहीं है. इस व्यवस्था को प्रचलित करने के पूर्व वर्षों पर्यन्त अनुकूल सामाजिक संस्कारों का निर्माण करना पड़ेगा। शिक्षा, संस्कारों और विधि-नियमों द्वारा मनुष्यों के नैतिक और चारित्रिक स्तर को इस धरातल तक उठाना पड़ेगा, योजनाबद्ध रूप से एक सामाजिक क्रांति का आह्वान और आयोजन करना पड़ेगा, वर्त्तमान पीढ़ी के विकृत संस्कारों और मानसिक धरातल को सुधार कर तथा विकसित करके नवीन साँचे में ढालना होगा और नई पीढ़ी को मनोवैज्ञानिक रूप से नई व्यवस्था के लिए तैयार करना पड़ेगा। तभी जाकर इस व्यवस्था के अंतर्गत कार्य करने की क्षमता और कौशल का प्रादुर्भाव हो सकेगा।

वर्ण-व्यवस्था और उसके द्वारा कार्य संचालन की तुलना में आज का प्रजातन्त्रवाद अत्यंत ही अभावग्रस्त एवं अपूर्ण व्यवस्था है. वास्तव में प्रजातन्त्रवाद को मूर्खवाद कहना चाहिए, क्योंकि यह बहुमत का शासन होता है और बहुमत बहुधा मूर्खों का ही हुआ करता है. भारतीय प्रजातन्त्रवाद को तो हम निश्चित रूप से मूर्खवाद कह सकते हैं. राज्यों की धारासभाओं और संसद में ऐसे व्यक्तियों का बाहुल्य है जो विधान अथवा कानूनी बारीकियों को लेशमात्र भी नहीं समझ सकते। जिन पर कानून द्वारा देश का भाग्य-निर्माण करने का दायित्व हो वे यदि कानून के प्रारंभिक ज्ञान के प्रारंभिक सिद्धांतों से ही शुन्य हो तो यह देश के लिए कितने दुर्भाग्य की बात है. कुछ मनचले बुद्धिजीवी लोग इस प्रकार के अज्ञानी और स्वार्थी लोगों को आगे करके स्वार्थों की सदैव पूर्ति किया करते हैं. भारतीय जनता का अस्सी प्रतिशत अंग ऐसा है जो स्वयं राजनैतिक दृष्टि से उचितानुचित का निर्णय नहीं कर सकता। वह प्रलोभन, भय, अज्ञान और दबाव के कारण सदैव से ही पथ-भ्रस्ट होते आया है. साधन-संपन्न, प्रचार-पट्टू, पेशेवर, बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों का गिरोह इसी प्रकार की निर्धन, भोली, अज्ञानी, भावुक और कर्त्तव्या-कर्त्तव्य के प्रति अचेत जनता से अधिक मत प्राप्त कर लेते हैं और इसी बहुमत के आधार पर वे केंद्र और प्रांतों में सरकारें बनाकर देश के पूर्ण भाग्य-विधाता बन बैठते हैं.

इसी प्रकार की स्थिति से अनैतिकता और अनाचरण कि सृष्टि होती है. भारत में वर्त्तमान समय में प्रचलित चुनाव-प्रणाली अनैतिकता और भ्रस्टाचार का एक ठोस और ज्वलंत उदाहरण है. सत्तारूढ़ दल द्वारा भय, प्रलोभन, दबाव, और हथकंडों से अशिक्षित, गरीब, रूढ़िवादी और उदासीन जनता से मत प्राप्त करना सरल अवश्य है, पर इससे मतदाताओं का नैतिक स्तर जिस सीमा तक गिरता जा रहा है, वह चिन्तनीय है. एक और मतदान होने जा रहा है, दूसरी और सत्तारूढ़ दल द्वारा जलबोर्ड के रूपये बाँटे जाते हैं, पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत सड़कों का काम शुरू कराया जाता है, पंचों और मुखियाओं को तकाबी के रूपये दिए जाते हैं और इसी प्रकार विकास और तरक्की के नाम पर मतदाताओं को प्रलोभन दिया जाता है. पंचवर्षीय योजना, निर्माण और विकास के कार्यों पर जितना धन आम चुनाव अथवा ज़िला बोर्ड, तहसील आदि चुनावों के कुछ महीने पहले से और उन चुनावों के समय खर्च किया जाता है उतना धन कदाचित कुछ स्थायी योजनाओं के अतिरिक्त पूरे पाँच वर्षों में भी खर्च नहीं किया जाता। देश के बुद्धिमान लोगों की दृष्टि में पंचवर्षीय योजना आज चुनाव जीतने का एक हथकंडा मात्र समझी जेन लगी है. विकास और निर्माण की योजनाओं में और अन्य सभी प्रकार से खर्च होने वाला धन भारत के समस्त नागरिकों का है. उसे केवल एक संस्था विशेष को सत्तारूढ़ करने के लिए खर्च करना एक और जहाँ सत्ता का दुरूपयोग है दूसरी और वह भारत के समस्त करदाताओं के साथ विश्वासघात भी है. ठीक इसी समय विरोधी दृष्टिकोण रखने वाले मतदाताओं और उमीदवारों पर मुकदमों और कुर्की का भूत सवार किया जाता है.

कानून में एक उमीदवार द्वारा चुनावों में खर्च की जाने वाली धन राशि सीमित है, पर संस्था द्वारा किसी एक व्यक्ति के धरा-सभा के चुनाव के लिए यदि एक लाख (या फिर करोड़ों) भी खर्च कर दिए जाते हैं तो उसे चुनौती नहीं दी जा सकती। आज की सत्तारूढ़ संस्था भ्रस्टाचार और अनैतिकता का खुल्लम-खुल्ला अड्डा है. वह पूंजीपतियों, व्यवसाइयों, राजा-महाराजाओं और उन सबसे जो सत्ता का सहारा पाकर अनुचित रूप से मालामाल हो रहे हैं, लाखों रूपये चंदे के रूप में वसूल करती है. पूंजी-पतियों को चुनाव के टिकट बेचे जाते हैं. यह अतुल धन-राशि चुनावों के समय अपनी संस्था को सत्तारूढ़ करने के लिए खर्च की जाती है. एक-एक कांग्रेसी धारासभाई उमीदवार चुनाव के समय 10 - 15 (आज 100 -200) मोटर-गाड़ियों का प्रबंध और 50-60(आज कल करोड़ों) हज़ार तक रूपये खर्च कर देता है. बेचारे विरोधी उम्मीदवारों के पास इससे शतांश भी सुविधायें नहीं रहती। जितने रूपये एक व्यक्ति द्वारा चुनाव जीतने के लिए खर्च किये जाते हैं, उससे कई गुणा अधिक सत्तारूढ़ होने के उपरांत कमा लिये जाते हैं। यह कमाई खून-पसीने की न होकर नि:संदेह बेईमानी और भ्रस्टाचार की होती है. कांग्रेसी उम्मीदवारों द्वारा आम-चुनावों में इस प्रकार अन्धाधुन्ध खर्च करने के कारण प्रत्येक मतदाता अपने मत को बेचना चाहता है. गांवों के भोले लोग जो कुछ वर्ष पहले रिश्वत देना और लेना एक नैतिक अपराध समझते थे, वे अब प्रत्यक्षतः रिश्वत लेकर वोट देने के अतिरिक्त अब दूसरी भाषा में बोलते भी नहीं हैं. चुनाव अब इस प्रकार के मतदाताओं के लिए कमाई का एक उपाय बन गया है. इससे देशव्यापी अनैतिकता और भ्रस्टाचार को जो प्रोत्साहन मिलता है, वह अकथनीय है। जो संस्था चंदे आदि के रूप में दूसरों से रिश्वत लेकर उसे अनैतिक ढंग से खर्च करती है वह अपने सदस्यों को रिश्वत लेने और अनैतिकता से चुनाव जीतने से रोक भी कैसे सकती है. इसी भाँती सरकारी कर्मचारियों के दबाव और प्रभाव को जिस रूप में काम में लिया जाता है, वह भी कम अशोभनीय नहीं है. आज से दस वर्ष पूर्व भारत का सामान्य नागरिक यह कल्पना भी नहीं करता था कि सत्य और नैतिकता के पुजारी गाँधीजी और नेहरूजी की कांग्रेस सत्ता-प्राप्ति के लिए इतने निम्नस्तर तक उतर आवेगी। इसे प्रजातन्त्रवाद कि अपूर्णता कहा जाय अथवा उसका दुर्भाग्य?

जो व्यक्ति केवल प्रजातन्त्रवाद के आकर्षक सिद्धांतों की परिधि में ही सोचते हैं और उसके व्यावहारिक स्वरुप का चिंतन नहीं करते उनके लिए प्रजातन्त्रवाद शासन-प्रणाली सर्वश्रेष्ट हो सकती है, पर प्रजातंत्र के लुभावने सिद्धांतों के व्यावहारिक स्वरुप को देख लेने के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रह सकते कि प्रजातंत्र के सिद्धांत या तो व्यावहारिक सत्य का बाना पहन ही नहीं सकते या व्यावहारिक सत्य तक पहुँचते-पहुँचते वे अपना मौलिक स्वरुप स्थिर न रख सकने के कारण अत्यंत ही विकृत और दूषित हो जाते हैं. सिद्धांतत: यह शासन-प्रणाली उत्तम कही जा सकती है पर व्यवहारत:इसमें कई दोषों का पनप जाना अवश्यम्भावी है.

क्रमश :........

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- २ (राजपूत और भविष्य)

भाग-१ से आगे....
क्षात्र-धर्म अपने को राष्ट्र अथवा राष्ट्रीयता की संकुचित सीमाओं में आबद्ध नहीं रखता। भलाई, सत्य, न्याय, धर्म आदि कहीं भी, किसी भी राष्ट्र में क्यों न हो, वे रक्षणीय हैं और बुराई, अन्याय, असत्य, अधर्म आदि कहीं भी क्यों न हों वे सब ताड़नीय और दण्डनीय हैं। बुराई आदि असाधु प्रवर्तियाँ चाहे स्वराष्ट्र में हों अथवा पर-राष्ट्र में, चाहे स्वजाति में हों अथवा पर-जाति में, उनके विनाश के लिए क्षात्र-वृति को सदैव तत्पर रहना चाहिए और इसी भांति भलाई और साधू-वृत्तियाँ चाहे जिस राष्ट्र अथवा जाति में हों, क्षात्र-वृत्ति द्वारा वे रक्षणीय है। आज हम राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता के रूप में न सोच कर सत्य अथवा भलाई की स्थापना और उन्नती के रूप में सोचने लग जाएँ तो संसार का राग-द्वेष और तनाव बहुत कुछ मात्रा में कम हो सकता है. इस प्प्रकार कि राष्ट्र-निरपेक्ष भावना से जहाँ एक और राष्ट्रीयता के दुर्गुणो से बचाव होता है, वहाँ दूसरी और युद्ध के समय केवल असत्य और बुराई के पक्ष-पोषक लोगों का ही विनाश होता है. तब न सर्व-विनाशकारी आणविक अस्त्रों के निर्माण की आवश्यकता रहती है और न ही उनके प्रयोग और नियंत्रण की ही। यही राष्ट्र, जाति संप्रदाय-निरपेक्ष-परम्परा क्षात्र-परंपरा है। अतः क्षात्र-परंपरा के उत्थान की आज के इस अशांति और अविश्वास के युग में संसार-कल्याण के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है. पर उन्नती कि व्यवहारिक उपलब्धि के लिए राष्ट्र का अस्तित्व आज आवश्यक हो गया है. जब राष्ट्र का अस्तित्व आवश्यक है तब उसके प्रति किसी न किसी रूप में जिम्मेवारी और कर्त्तव्य भी आवश्यक है. तात्विक दृष्टि से क्षात्र-धर्म को समझने से ज्ञात होगा कि इस प्रकार सब बुराइयों से रहित राष्ट्रवाद क्षात्र-धर्म के अंतर्गत ही आ जाता है. इस प्रकार कि बुराइयों और अपूर्णताओं से रहित राष्ट्रवाद क्षात्र-धर्म का ही एक पोषक अंग है. फिर भी ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्र-निरपेक्ष धर्म हो सकता है पर धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र नहीं।

इसी प्रकार क्षात्र-परंपरा एक मजहब-निरपेक्ष परंपरा है. आर्य-धर्म का दृष्टिकोण इतना व्यापक और विशाल है कि उसे वास्तव में मानव और प्राणी-धर्म कहना चाहिए। इस आर्य-धर्म के अंतर्गत क्षात्र-परंपरा तो किसी भी भांति के मजहबी बंधन को स्वीकार नहीं करती। स्वधर्मी और स्वजाति की बुराई, अन्याय आदि क्षात्र-वृति द्वारा दंडनीय और परधर्मावलम्बियों की भलाई की भलाई और न्याय की वृतियाँ रक्षणीय हैं. क्षात्र-परंपरा हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध आदि के दृष्टिकोण से न देखकर भलाई और बुराई के दृष्टिकोण से सदैव देखती है. यही कारण है कि क्षात्र-परंपरा के अंतर्गत मुसलमानों आदि विधर्मियों की रक्षा करने में सर्वस्व तक का बलिदान किया गया है. दीन,असहाय, शरणागत, सज्जन और साधू चाहे जिस देश, जाति, धर्म के क्यों न हों, क्षात्र-परंपरा द्वारा वे सदैव रक्षणीय और अभिमानी, दुष्ट और आततायी चाहे जिस जाति, देश, धर्म के अनुयायी क्यों न हों, सदैव दण्डनीय है। इतनी उदार परंपरा संसार के किसी भी धर्म के अंतर्गत नहीं हो सकती। इसी भाँति क्षात्र-परंपरा किसी व्यक्ति विशेष का भी पक्षपात नहीं करती। अधर्मी व्यक्ति चाहे पितामह, पिता, गुरु, चाचा, मामा, भाई, पुत्र, पौत्रादि ही क्यों न हो वे सब दण्डनीय हैं। यह परंपरा किसी परिस्थिति-विशेष के उत्पन्न होने से पैदा नहीं होती, वरन यह एक साश्वत परंपरा है जो सब गुणो और परिस्थितियों में समान रूप से महत्वदायी है।

अतः क्षात्र-परंपरा के अंतर्गत न्याय और सत्य, देश, काल, परिस्थिति, व्यक्ति और मजहब-निरपेक्ष है। वे सब के लिए सब युगों में, सब मजहबों में और देशों में समान रूप से प्राप्य है. वास्तव में क्षात्र-धर्म के अंतर्गत चेष्टाएँ ईश्वरीय विधान में सहायक होने वाले कर्म हैं और इसलिए क्षात्र-धर्म ईश्वरीय-धर्म, ईश्वरीय-विधान, सर्वजन-हिताय, सर्वजन-सुखाय, सर्व-कल्याणकारी योजना है।

इस क्षेत्र-परंपरा की पुनः स्थापना का वास्तविक अर्थ है वर्णाश्रम धर्म की पुनः स्थापना। केवल वर्णाश्रम धर्म ही ऐसी योजना है जो भारत के लिए सर्वश्रेष्ट हो सकती है। इस व्यवस्था के अंतर्गत सत्ता किसी एक के हाथ में संगृहीत न होकर उसका पूर्ण और संतुलित विभाजन रहता है. अतः निरंकुश और सत्ता के दुरूपयोग का कभी अवसर ही नहीं आता. आज की धारा-सभाओं और संसदों आदि का कार्य वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत उन लोगों के हाथ में रहता था जो सांसारिक कार्यों में पूर्ण पक्षपातरहित, निर्लिप्त और व्यक्तिगत रूप से पूर्ण तटस्थ रहते थे। इससे कभी ऐसे कानून बनाये ही नहीं जा सकते जो अन्यायपूर्ण, एक-पक्षीय और किसी व्यक्ति या दलगत स्वार्थों की पूर्ति करने वाले मात्र हों. आक का प्रजातंत्र बहुमत द्वारा संचालित होता है. व्यावहारिक दृष्टि से यह बहुमत अल्पमत के प्रति सदैव आततायी और आक्रमणकारी रहता है। इसलिए प्रजातन्त्रवाद में अल्पमत को सदैव बहुमत की चक्की में पिसते रहना पड़ता है। पर वर्णाश्रम-व्यवस्था के अंतर्गत बनने वाले प्रत्येक कानून का आधार बहुमत न होकर शास्त्र होता है. शास्त्रोक्त आधार का अर्थ है सत्य, न्याय और समानता के शाश्वत सिद्धांतों का आधार। यदि हम शास्त्रों को ईश्वर-कृत न भी मानें तो भी उनके निर्माता ऐसे महापुरुष थे जिनका अनुभव और ज्ञान, चिंतन और मनन और जिनकी पक्षपात-रहित सर्व कल्याणकारी भावना आज के धारा-सभाई और संसद के सदस्यों से लाखों गुना बढ़कर थी। इस प्रकार शास्त्रों को आधारभूत मान कर, शाश्वत सिद्धांतों को आधारभूत मान कर पूर्ण त्यागी, तपस्वी, विद्वान, सत्ता के मोह से सर्वथा उदासीन, सांसारिक कार्यों से निर्लिप्त और तटस्थ सर्वभूतों का कल्याण चाहने वाले ब्रह्मणो के हाथों से राष्ट्र के विधान और कानून बनाने का दायित्व आजाने से न कभी जल्दबाज़ी का भय रहता है, न पक्षपात का और न किसी के अहित व् अकल्याण का ही. इसी भांति आज कि कार्यपालिका (Executive) अथवा शासन सञ्चालन का दायित्व क्षत्रियों पर रहता है. क्योंकि उनको मनमाने ढंग से कानून बनाने का किंचित मात्र भी अधिकार नहीं होता। अतः ब्रह्मणो द्वारा निर्मित कानूनों को निरपेक्ष और निर्लिप्त भाव से कार्यान्वित करना मात्र उनका कर्त्तव्य रहता है. आज की संसदीय प्रणाली (Parliamentary Democracy) के अनुसार कानून बनाने और उसे कार्यान्वित करने का अधिकार एक ही दल के हाथों में होने के कारण बड़ा अनर्थ होता है. एक ही दल के हाथ में दोनों कार्य आ जाने के कुछ प्रशासनिक सुविधाएँ तो अवश्य प्राप्त हो जाती हैं पर इससे व्यक्तिगत और दलगत भावना और भ्रस्टाचार का बोलबाला हो जाता है. इस प्रकार का बहुमत-प्राप्त साल सैद्धांतिक आधार पर स्थापित अल्पमत को तो कुचल ही डालता है. भारत जैसे देश में इस प्रणाली द्वारा अल्प-मतों को किसी भी दशा में न्याय नहीं मिल सकता। पर वर्ण-व्यवस्था के अनुसार विधि-निर्माण और उसका प्रयोग सर्वथा दो पृथक-पृथक घटकों के हाथ में होने के कारण शासक-दल का आततायी, भ्रष्टाचारी, निरंकुश, और संकुचित मनोवृति युक्त होने का खतरा कभी भी पैदा नहीं होता है. इसी भांति अर्थ का उत्पादन व् वितरण भी शासक वर्ग क्षत्रिय के हाथ में नहीं रहता इससे वह कभी भी सर्व-शक्ति संपन्न प्रभु नहीं बन सकता। क्षत्रियों का शासन-संचालन के निमित अर्थ के लिये सदैव वैश्य पर अवलम्बित रहना पड़ता है. कानून बना कर किसी भी सम्पत्ति या धन पर अधिकार करने का उसको अधिकार होता ही नहीं। इसलिए क्षत्रिय कभी भी अपनी सत्ता का दुरूपयोग नहीं कर सकता। ऐसे ही हाथों में न्याय रहने से सब को पक्षपात रहित न्याय मिल सकता है. वास्तव मने न्यायपालिका और न्यायाधीशों को पूर्ण निर्लिप्त और सर्वोच्च सत्तावान होना चाहिए। आज के प्रजातंत्रीय देशों तक में न्यायधीशों की चोटी बहुमत-प्रधान शासक-दल के हाथों में होती हैं. इसलिए आज की न्याय-पालिकायें न स्वतंत्र हैं, न निर्लिप्त, न पक्षपातरहित और न सर्वोच्च सत्ता-संपन्न ही। आज का युग अर्थ-प्रधान युग है. जिनके हाथों में अर्थ का उत्पादन है वे सर्वेसर्वा बन सकते हैं. पर वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत यह शक्ति भी पनप नहीं सकती, कारण कि अर्थ का उत्पादन जिन वैश्यों के हाथों में होता है उनके हाथों में न तो कानून बनाने वाले पूर्ण त्यागी और तपस्वी ब्राह्मणों को खरीदने की ही सामर्थ्य होती है, न शक्तिशाली क्षत्रियों से सत्ता छीनने की शक्ति। आज के युग में जिस प्रकार बनियों ने कानून-निर्माता बहुमत दल के नेताओं को खरीद रखा है वैसे वे वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत ब्राह्मणों को खरीद कर अपने पक्ष में कानून नहीं बना सकते।

सेवा और श्रम का कार्य शूद्रों के दायित्व में रहता है, पर चूँकि उनके हाथों में अन्य साधन नहीं होते और उनके संख्या-बल और मतों का का कोई महत्व नहीं रहता, इसलिए वे आज के युग कि भाँति समाज पर हावी नहीं हो सकते। इस प्रकार ब्राह्मण कानून और विधान आदि का दायित्व अपने ऊपर लेकर न्याय, रक्षा, अर्थ, श्रम आदि के लिए अन्य वर्णो पर आश्रित रहते हैं। वैश्य अर्थ के उत्पादन और वितरण के दायित्व को अपने ऊपर लेकर अन्य सब आवश्यकताओं के लिए शेष वर्णो पर आश्रित रहते हैं. वर्ण-व्यवस्था के अनुसार समाज-शरीर का प्रत्येक अंग एक दूसरे का सहायक और पूरक होता है. न कोई वर्ण किसी से बड़ा होता है और न छोटा, न श्रेठ और न नीच. सब वर्ण अपने-अपने गुण, कर्म और स्वभावानुसार कार्य करते रहते हैं. किसी पर किसी का प्रतिबन्ध नहीं होता।

इस प्रकार इस विभक्तिकरण के अनुसार विधि-निर्माण सत्ता, राज-सत्ता और द्रव्योत्पादन शक्ति पृथक-पृथक रहती हैं. धन एक शक्ति है और राज-सत्ता भी एक शक्ति है। दोनों ही शक्तियों के एकत्रित होने पर मदोन्मादक शक्ति और भी प्रबल होकर अन्याय और अत्याचार की सृष्टि करती है.एक ही व्यक्ति, व्यक्ति-समूह अथवा संस्था के हाथ में इन दोनों शक्तियों के केंद्रित हो जाने से शेष समस्त समाज सर्वथा दीन, ग़ुलाम और असहाय बन कर भाग्य और पराजयवादी बन जाता है. फिर इस अत्याचार की प्रतिक्रियास्वरूप उसमे विद्रोही भावना पनप उठती है. समाज वर्गों में बाँट जाता है और यही दुखी वर्ग सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर बैठता है. इसीलिए वर्ग-संघर्ष उत्पन्न होकर समाज कि शांति और सुख का नाश होता है. इस प्रतिक्रियास्वरूप यही विद्रोही वर्ग सत्तावान बन कर धर्म, संस्कृति का घोर शत्रु बन कर पूर्ण नास्तिक और जड़वादी बन जाता है. इस विध्वंशावस्था से बचा कर समाज को चिर-शांति देने के लिए राज-सत्ता को धनहीन और धन-सत्ता को राज-सत्ताहीन रख कर दोनों को परावलम्बी, अन्योनाश्रित करके दोनों के ऊपर त्यागी, स्वार्थ-निरपेक्ष, न्यायपूर्ण, धर्मात्मा व्यक्तियों का नियंत्रण स्थापित कर देने से, सत्ताधारी अथवा धनवान में से कोई भी समाज के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं कर सकता। यही हिन्दू-संस्कृति के अंतर्गत समाज-रचना की मौलिक और सुन्दर व्यवस्था है.

क्रमश :.....

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- १ (राजपूत और भविष्य)

यह निर्विवाद सत्य है कि क्षात्र-धर्म से बढ़कर अन्य कोई भी धर्म, वाद अथवा उद्देश्य क्षत्रियों के लिए इस संसार में श्रेष्ट नहीं है। अब देखना यह है कि क्षात्र-धर्म के उत्थान में न केवल क्षत्रियों का ही अपितु समस्त राष्ट्र और मानवता का कल्याण निहित है। वह श्रेष्ठता ही किस काम की जो एक वर्ग या जाती के लिए कल्याणप्रद और दूसरों के लिए हानिप्रद हो।

क्षात्र -धर्म के उत्थान का अर्थ है - कर्म में उच्चकोटि कि नि:स्वार्थता, कर्त्तव्यपरायणता और कर्तापन के घमण्ड के प्रति उदासीनता। आज राष्ट्रीय जीवन में एक भयंकर कुप्रवृति घर कर गयी है और वह प्रवर्ति है स्वार्थ - भाव से कर्म करना। 'हम आज़ादी कि लड़ाई में जेल गए थे इसलिए इस प्रजातंत्रीय भारत में मंत्री बनना हमारा पहला अधिकार है' यह भावना आज प्रत्येक कांग्रेसी के दिल में काम कर रही है। योग्यता, निपुणता, अनुभव आदि पदों कि कसौटी न हो कर जेल-यात्रा पदों कि कसौटी समझी जा रही है। परिणामत: आज शासन में स्थान-स्थान पर अयोग्यता, स्वार्थपरायणता और भ्रस्टाचार को देखा जा सकता है। कोंग्रेसियों का जेल आदि जाने का त्याग वास्तव में बनियों जैसा एक सौदा मात्र था। क्षात्र - परंपरा में इस प्रकार के स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है। जो कुछ भी त्याग आदि किया जाता है, वह इसलिए नहीं कि उसके द्वारा बाद में किसी अच्छे फल की प्राप्ति होगी, बल्कि इसलिए किया जाना चाहिए की त्याग करना हमारा कर्त्वय है। हमारे आस्तित्व की सार्थकता ही इसी में है कि हम त्याग करके जीवित रहें। यह हमारे सत्ता के स्वामी का आदेश है। अतएव त्याग के पीछे जो फल-प्राप्ति कि इच्छा रखते हैं वह निम्न कोटि का बनिया वृती - प्रधान कर्म है। आज राष्ट्र में इस प्रकार कि त्यागमयी परंपरा को पुनर्जीवित करने कि आवश्यकता है जो बिना किसी प्रकार के प्रतिफल कि इच्छा किये हुए निरंतर रूप से कर्म करती रहे। यही त्यागमयी और कर्त्तव्य - परायण परंपरा क्षत्रिय परंपरा है।

कांग्रेसी दृष्टिकोण के कारण एक भयंकर प्रवर्ति देश में और पनप गयी है। आज इस प्रवर्ति ने देश के सम्पूर्ण जीवन को व्याधिगृस्त कर रखा है। यह प्रवर्ति है आत्म-प्रदर्शन कि सहज प्रवर्ति। इसी प्रवर्ति का विकृत रूप तमोगुणी व्यक्तिवाद और मिथ्याभिमान के रूप में प्रकट होता है। इसी व्यक्तिवाद के कारण अहंभाव पनप कर व्यक्ति को सर्वथा मदान्ध, निरंकुश और दुराग्रही बना देता है। इस प्रकार का व्यक्ति दुर्भाग्य से कभी सत्तारूढ़ हो जाता है तब सुन्दरतम शासन-व्यवस्था में भी विकृत रूप से व्यक्तिगत अधिनायकवाद पनप ही जाता है। भारत में आज इसी प्रकार की स्थिति है। आधुनिक युग में व्यक्तिगत समानता, स्वतंत्रता और अधिकारों कि माँग ने इस व्यक्तिवादी प्रवर्ति को और भी अधिक बेढंगे रूप में प्रोत्साहित कर दिया है।

जीवित व्यक्तयों को पूजने की यह व्यक्तिवादी भावना आज संसार में सर्वाधिक रूप में भारत में ही दिखाई पड़ रही है। गाँधीजी को ईश्वर का रूप, अवतार, युग-पुरुष और महापुरुष आदि से रूप में चित्रित और प्रचारित करना बनिया-प्रभुत्व को स्थिर एवं जीवित रखने कि एक नीति तथा उस समय की एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता मात्र थी। पर बाद में भारतीय बुद्धिजीवियों ने इसका अन्धविश्वास के साथ अनुकरण आरम्भ किया कि जिससे गाँधी-वाक्य, वेद-वाक्य, धर्म-वाक्य और किसी भी सर्वमान्य सिद्धांत से भी बड़ा समझा जाने लगा। आवश्यकता तो इस बात की थी कि गाँधीजी के स्वर्गवास के उपरान्त उनके सिद्धांतो को जीवन में मूर्त रूप से ढाला जाता। यही महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने और उनके ऋण से उऋण होने की एक मात्र प्रणाली है, पर हुआ इसके ठीक विपरीत । गाँधीजी कि मृत्यु के उपरांत उनके नाम को और भी जोर-शोर और व्यापकता से प्रचारित किया गया । यह इसलिए नहीं की आज के उनके अनुयायी उनके सिद्धांतो का अनुकरण करते हैं, बल्कि इसलिए कि अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए उनका नाम और ख्याति से लाभ उठाया जा सके । वास्तव में गाँधीवाद तो उनकी मृत्यु के साथ ही मर गया था । जो कुछ भी उसका प्रभाव शेष था उसे उनके अनुयायियों ने उन्ही के नाम का ढिंढोरा पीटते हुए समाप्त कर दिया । आज आवश्यकता इस बात कि नहीं है कि गाँधीजी के नाम प्रचार से राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति की जाय, पर आवश्यकता इस बात की है कि उनके सिद्धांतो और विचारों को व्यवहारिक स्वरुप दिया जाय । वास्तव में इसी प्रकार जीवित व्यक्तियों कि पूजा और मृत व्यक्तियों के सिद्धांतो की अवहेलना के कारण अधिनायकवादी प्रवर्ति पनपती है । जो राष्ट्र सिद्धांतों के स्थान पर व्यक्तियों कि पूजा करते हैं उनका पतन किसी भी क्षण सम्भव हो सकता है । यह व्यक्तिवादी प्रवर्ति अन्य के महत्त्व को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती । जब अन्य लोग भी कर्म-क्षेत्र में उतर पड़ते हैं तब उनकी और व्यक्तिवादियों कि महत्वाकांक्षाएं परस्पर टकराने लग जाती हैं जिससे ईर्ष्या आदि भावों का जन्म होता है । जो इस व्यक्तिवादी अहम्-भाव की भावना को ठेस पहुँचाने वाले मार्ग में आते हैं, उन्हें उखाड़ फेंक दिया जाता है । जिन संस्थाओं में यह प्रवर्ति घर कर जाती है वहाँ व्यक्ति सर्वेसर्वा बन जाता है और सिद्धांत उस व्यक्ति के पीछे-पीछे चलना आरम्भ कर देते हैं ।

क्षत्रिय परंपरा इस प्रकार के अहम्-प्रधान व्यक्तिवाद को अत्यंत ही तुच्छ दृष्टि से देखती है, तथा कर्तापन की भावना को कभी भी प्रोत्साहित नहीं करती । वास्तव में सम्पूर्ण कर्म, प्रकर्ति के गुणो द्वारा वसीभूत होकर किये जाते हैं; ज्ञानी और अज्ञानी सब की चेष्टायें प्रकर्ति के वश रहती हैं तथा मनुष्य तो केवल साधन-मात्र होने के कारण श्रेय का भागी बन जाता है । यही क्षत्रिय परम्परा है । कहने कि आवश्यकता नहीं कि इस परंपरा का पुनर्जन्म आज राष्ट्र और मानवता के लिए कितना हितप्रद हो सकता है।

आज समस्त संसार शांति और युद्ध संधि-द्वार पर खड़ा है । दिन प्रति-दिन शांति कि आशा क्षीण और युद्ध की आशंका प्रबल होती जा रही है । सब राष्ट्र अपना-अपना अस्तित्व बचाने के लिए प्रयतनशील हैं । युद्ध की यह ज्वाला ईसा की बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही समस्त संसार को क्षुब्ध कर रही है । शांति के जितने भी उपाय निकाले जाते हैं वे सब निष्फल हो जाते हैं । शांति के उपायों कि इस निष्फलता का कारण है राष्ट्रों की परस्पर-विरोधी महत्वाकांक्षाएं और स्वार्थ । बीसवीं शताब्दी में ये महत्वाकांक्षाएं संसार पर नवीन रूप से प्रभुत्व स्थापित करने की भावना के रूप में प्रकट हुई हैं । प्रत्येक सबल राष्ट्र आज राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से शेष संसार को अपना आश्रित और अनुगामी देखना चाहता है । राष्ट्रों की इस मनोवृति का बीज हम राष्ट्रीयता और राष्ट्रों कि पृथक सत्ता को दिए जाने वाले महत्व के रूप में देख सकते हैं । पोप के धार्मिक प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए यूरोप में राष्ट्रवाद का जन्म हुआ । राष्ट्रवाद के जन्म के साथ ही साथ राष्ट्रीयता, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम आदि भावनाओं को भी जन्म देना आवश्यक समझा गया और कालांतर में राष्ट्र एक धर्म और सिद्धांत के रूप में अपना लिया गया । यूरोप के देशों में चिरकाल से चली आ रही जातीयता ने राष्ट्र और राष्ट्रीयता का नवीन बाना पहन लिया । राष्ट्रोन्नति अथवा राष्ट्र के राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रसार और प्रभुत्व के लिए किया गया प्रत्येक वैध और अवैध, मानुषिक और अमानुषिक तथा उचित और अनुचित कार्य उच्चकोटि का देश-भक्तिपूर्ण कार्य समझा जाने लगा।

बीसवीं शताब्दी में आते-आते इसी राष्ट्रीयता ने अपने नग्नरूप को विशिष्ट सिद्धांतो के निचे छिपाना शुरू कर दिया । नए-नए वादों का अविष्कार होने लगा । इटली का राष्ट्रवाद, फासिज्म, जर्मनी का नाज़ीवाद, रूस का साम्यवाद और इंग्लैंड, फ्रांस और अमेरिका का प्रजातंत्र वाद के रूप में प्रकट होकर सामने आने लगा । शक्ति को अधिक और दृढ बनाने के लिए सामान आदर्श और सिद्धांतो वाले राष्ट्रों के गुट भी बनने लगे । इस प्रकार फासिस्ट और प्रजातांत्रिक राष्ट्रवादी दो गुट मुख्य रूप से द्वितीय विश्व - युद्ध से पहले बन चुके थे। आज भी साम्यवादी और प्रजातांत्रिक राष्ट्रवाद के रूप में दो शक्तिशाली गुट संसार में बने हुए हैं । वस्तुत: इन वादों और साम्राज्यवाद में कोई मौलिक अंतर नहीं है। दोनों की मूल प्रवर्ति संसार पर प्रभुत्व स्थापित करने की ही रही है।

इस राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता की भावना से पृथक-पृथक राष्ट्रों को जहाँ लाभ पहुंचा है वहाँ मानवता की बड़ी हानि हुई है । प्रतिस्पर्धा की भावना से राष्ट्रों ने भौतिक उन्नति तो बहुत अधिक की पर स्वराष्ट्र की महता और राष्ट्रीय प्रभुत्व कि बढ़ाने की भावना के कारण विश्व में अधिक कटुता, संदेह और द्वेष फैला है. एक राष्ट्र वाले अपने को, अपनी राजनैतिक , आर्थिक और सांस्कृतिक मान्यताओं और प्रणालियों को दूसरों से श्रेष्ठ समझ कर उन्हें गुलाम बनाने का प्रयत्न करते हैं तथा उनका राजनैतिक और आर्थिक शोषण करना चाहते हैं. इन प्रयत्नों का प्रतिकार होता है और परिणाम में विश्व-युद्ध, विश्व-अशांति और विश्व-संकट उत्पन्न होकर मानवता के लिए विनाश की साज-सज्जा तैयार हो जाती है. इस राष्ट्रवाद का प्रलयकारी रूप तब सामने आता है जब एक योद्धा -राष्ट्र दूसरे योद्धा -राष्ट्र के समक्ष नागरिकों का निर्दयतापूर्वक विनाश करने लग जाता है। राष्ट्रवाद यह मान कर चलता है कि शत्रु-राष्ट्र में बसने वाले समस्त नागरिक दुष्ट, अन्यायी और शत्रु हैं। अतएव शत्रु-राष्ट्र को हारने के लिए उन सबका विनाश आवश्यक है। भले और बुरे, सज्जन और दुष्ट की सीमा-रेखा का आभाव हो जाता है। जब एक राष्ट्र परास्त हो जाता है तब उसके समस्त नागरिकों को पराजय के परिणाम-स्वरुप ग़ुलामी और अन्य व्याधियॉँ भुगतनी पड़ती हैं। वास्तव में यह दशा अत्यंत ही अन्यायपूर्ण और अवास्तविक है. प्रत्येक राष्ट्र में सज्जन और दुष्ट, दोषी और निर्दोष सब प्रकार के मनुष्य बसते हैं. अतएव न्याय और सत्य की रक्षा के लिए केवल दुष्टों और अपराधियों का ही विनाश होना चाहिए, सज्जनों और निर्दोषों का नहीं। पर आज का राष्ट्रवाद इस बुराई से बच नहीं सकता।

इस प्रकार आज के इस राष्ट्रवाद में दो बुराइयां मूल रूप से पनप रहीं हैं. संसार की अशान्ति और युद्धों के भय के लिए यह राष्ट्रवाद जिम्मेवार है और इसी राष्ट्रवाद के कारण युद्ध के समय भले और बुरे दोषी और निर्दोष नागरिकों का सामान रूप से उत्पीड़न किया जाता है. इन दोनों बुराइयों को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को मान्यता दी जेन लगी है, तथा राष्ट्रसंघ और सुरक्षापरिषद् आदि का निर्माण किया गया है। पर ये दोनों ही मार्ग अपूर्ण और अपर्याप्त हैं, क्योंकि ये रोग के कारणो को दूर न करके केवल ऊपरी उपचार मात्र का प्रयत्न करते हैं।

अत: आज मानवता को इस राष्ट्रवाद से उत्पन्न भयंकर दोषों से बचाने की सबसे बड़ी आवश्यकता है. संघर्ष अथवा युद्धों को बन्द करने के समस्त प्रयत्न अवास्तविक और असत्य है. त्रिगुणात्मक माया द्वारा संसार की रचना होने के कारण भलाई और बुराई, सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म, न्याय और अन्याय में संघर्ष अवश्यम्भावी है. जब तक यह संसार रहेगा तब तक न्यूनाधिक मात्रा में भलाई और बुराई, सत्य और असत्य भी अवश्य रहेंगे और इसीलिए इन दो विरोधी शक्तियों में संघर्ष भी अवश्यम्भावी है. यही सत्व और तम का संघर्ष है जो चिरकाल से होता आया है और चिरकाल तक होता रहेगा। अतः युद्ध या संघर्ष को बंद करने की बातें या तो केवल किन्ही राजनितिक स्वार्थों की पूर्ती के लिये किया जाने वाला ढकोसला मात्र है या संसार के राजनीतिज्ञों की बुद्धि का दिवालियापन। इस द्वंदात्मक संसार में से द्वन्द अथवा युद्ध को मिटाने की आवश्यकता नहीं है और न कोई शक्ति युद्धों को लम्बे समय तक बंद ही कर सकती है, पर आवश्यकता इस बात की है कि इस द्वंदात्मक संसार में आज राष्ट्र-निरपेक्ष सिद्धांत की स्थापना की जाय. संघर्ष में यह राष्ट्र-निरपेक्ष सिद्धांत ही क्षात्र-वृति और क्षात्र-परंपरा है|

क्रमश:........