भाग- १ से आगे .....
जैसा कि कहा जा चुका है, धर्म का बहुत कुछ स्थान आज राष्ट्रवाद ने ले लिया है| अतएव उच्च कोटि का राष्ट्रवादी बनना प्रत्येक का कर्तव्य है| उच्च कोटि का राष्ट्रवादी बनने के लिये ब्राह्मण राष्ट्र की ज्ञान परम्परा और आध्यात्मिक जीवन का विकास करें, क्षत्रिय उसके शासन तंत्र पर स्वामित्त्व की स्थापना कर उसके द्वारा राष्ट्र की सेवा करे; वैश्य राष्ट्र के आर्थिक जीवन को विकासवान बनावें और शुद्र राष्ट्र की कार्य-शक्ति को स्वस्थ्य और गतिमान रखें| यही राष्ट्र-भक्ति का सच्चा वास्तविक स्वरूप है, और इस दिशा में किया गया प्रत्येक कार्य राष्ट्र की सेवा के लिए किया गया राष्ट्र भक्तिपूर्ण कार्य है| राष्ट्रवाद के इस दृष्टिकोण के अतिरिक्त क्षत्रिय-परम्परा को अन्य कोई भी विचारधारा स्वीकृत नहीं हो सकती क्योंकि अन्य दृष्टियों से वह एक राष्ट्र निरपेक्ष विचारधारा है|
क्षात्र-परम्परा की पुनर्स्थापना को लेकर जो विरोधी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न होंगी उनमें से एक इस योजना की संभवता, स्वाभाविकता और अस्वाभाविकता तथा इसके अनौचित्य आदि पहलुओं को लेकर होगी| प्रत्येक स्थान पर ऐसे व्यक्ति अवश्य मिल जाते है जो किसी भी योजना को असंभव बता कर पहले-पहल उसका हर पहलू से विरोध करते है| इस प्रकार का विरोध बहुत कुछ निष्क्रिय और प्रभावहीन होता है| एक प्रभावशाली शक्ति को कार्य करते देखकर ऐसा विरोध सदैव समर्थन में बदल जाता है| जनता के बहुमत द्वारा भी इस योजना का विरोध करने की बात कही जा सकती है, पर यदि वास्तव में देखा जाय तो जनता का बहुमत सदैव उदासीन, तटस्थ और निष्क्रिय रहता है| कुछ मनचले लोग जनता के नाम से सदैव विरोध करने की योजना बनाते रहते है, अतएव इस प्रकार के विरोध को जनता का सामूहिक विरोध न समझ कर कुछ तत्वों और व्यक्तियों का ही विरोध समझना चाहिए| यही समझ कर उसका प्रतिकार करना चाहिए| हमें तटस्थ, उदासीन और निष्क्रिय विरोध से अधिक सावधान रहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इस प्रकार का विरोध उपयुक्त और मनोवैज्ञानिक अवसर आते ही थोड़ी सी शक्ति और त्याग द्वारा बड़ी आसानी से समर्थन में बदला जा सकता है| इस प्रकार के विरोध का नैतिक और सैद्धांतिक धरातल न होने के कारण यह निष्क्रिय और नपुंसक विरोध न हमारे लिये हानिप्रद ही हो सकता है और न लाभदायक ही|
इस प्रकार इस योजना का समर्थन जिन तटस्थ और उदासीन व्यक्तियों द्वारा होने वाला हो वह हमारे लिए कुछ अंशों में लाभदायक अवश्य सिद्ध हो सकता है| यह समाज के सफल नेतृत्व की कसौटी होगी कि इस प्रकार के क्षीण विरोध और समर्थन से कब और कैसे सावधान रहा जा सकता है और कब और कैसे लाभ उठाया जा सकता है|
इस योजना का सबसे भयंकर विरोध उन बुद्धिजीवी तत्वों द्वारा होगा जो आज सर्वेसर्वा बने हुए है| यह विरोध भयंकर, वैज्ञानिक और कठोर हो सकता है| प्रारंभिक दिनों में हमारी सामाजिक प्रतिक्रिया को जाग्रत करने के लिए इस प्रकार का विरोध बहुत लाभदायक सिद्ध होगा| इसलिए हमें इस विरोध से तनिक भी घबराने की आवश्यकता नहीं है| हमें इस प्रकार के अवसरों को ढूंढ निकालना होगा जहाँ विरोधी शक्तियां अपने मस्तिष्क का संतुलन खोकर हर क्षेत्र में हमारा विरोध करने लग जाये| इस विरोध का मूल्यांकन इसी रूप में करना चाहिये कि यह विरोध ईश्वर द्वारा भेजी हुई परोक्ष सहायता है जो हमारी योजना के लिए सतर्कता और कर्मठता को उत्पन्न कर हमें अधिक गतिशील बनाने के लिए आवश्यक है| इस प्रकार के विरोध का सामना करने के लिए हमें सदैव तैयारी की स्थिति में रहना पड़ेगा और निरंतर रूप से विरोधी शक्तियों की कमजोरियों पर प्रहार करते रहना होगा| ध्यान रहे हमारी शक्तियां आततायी अधिक है और आततायियों से रक्षा करने का सरलतम साधन है स्वयं आततायी बनकर उनके घरों में ही उन्हें निस्तेज और पंगु कर देना| ये विरोधी शक्तियां वीरत्वपूर्ण ढंग से रक्षा की लड़ाई लड़ना नहीं जानती और सदैव प्रबल शक्ति के सामने घुटने टेक कर अंत में आत्म-समर्पण करती है| अतएव हमें विरोधियों की इन मूलभूत कमजोरियों को ध्यान में रखकर दृढ़ता और धैर्यपूर्वक इनके विरोध का सामना करना चाहिये| इन बुद्धिजीवियों के सैद्धांतिक और व्यावहारिक विरोध को हमें निर्दयता, कठोरता और योजनापूर्वक कुचल कर सदैव उर्ध्वगामी बने रहना चाहिये|
इस योजना का दूसरा आंतरिक विरोध होगा जिसका आधार मुख्यत: अज्ञान, स्वार्थ अथवा व्यक्तिगत दुर्बलताएं होंगी| यह आंतरिक विरोध अत्यंत ही महत्त्व का होगा, क्योंकि इसकी सबलता अथवा निर्बलता पर ही इस योजना को क्रियान्वित करने वाली शक्ति की सबलता अथवा निर्बलता निर्भर रहेगी| दुर्भाग्य से हमारी जाति में विरोधियों के हाथ की कठपुतली बनकर समाज-शरीर के पीठ में छुरा भौंकने वाले पतित और नीच व्यक्तियों की संख्या आज कम नहीं है| यह आतंरिक शत्रु सदैव एक अप्रकट और अप्रत्याशित भय के रूप में हमारे सामने रहेंगे|
निरंतर क्रियाशील, सतर्कता तथा उच्च संस्कारों द्वारा समाज चरित्र का निर्माण करना ऐसे विरोध का रचनात्मक उत्तर हो सकता है| ऐसे व्यक्तियों में नैतिकता तथा साहस का अभाव होने के कारण सत्य और साहस पर आधारित प्रबल कार्य-शक्ति के सामने इनके पैर लड़खड़ाने लग जाते है| ऐसे स्वार्थी व्यक्तियों का नग्न और कलंकी रूप सदैव समाज के सामने रखते रहना चाहिये| समाज को सदैव इनसे सतर्क करते रहना चाहिये| फिर भी यदि इस प्रकार के स्वार्थी तत्व अपने स्वभाव को न छोड़े तो उन्हें उनके नीच और स्वार्थपूर्ण कार्यों के लिए सुन्दर और शिक्षाप्रद पाठ अवश्य पढाना चाहिए|
जो आंतरिक विरोध अज्ञान द्वारा किया जाता हो उसे युक्ति और बुद्धिपूर्वक दूर करने की चेष्टा करनी चाहिए| इस विचारधारा को समाज के सामने विभिन्न रूपों में रखना चाहिए| जो जिस रूप में और जिस प्रणाली द्वारा समझ सके, समझाना चाहिए| समाज के अज्ञान को भी वरदान रूप में ग्रहण कर उसे भी महान ध्येय की पूर्ति के लिए साधन रूप में प्रयुक्त करना योग्य नेतृत्व का कार्य है| हमें अज्ञान को विरोध के रूप में रूपांतरित होने से पहले पक्ष में रूपांतरित कर उसे धीमे-धीमे अनुकूल और चेतन बनाते हुए दूर करना है|
जो लोग व्यक्तिगत दुर्बलताओं और विवशताओं के कारण इस योजना का विरोध करें तो समझना चाहिए कि इनका विरोध किसी सैद्धांतिक और व्यावहारिक धरातल पर आधारित न होकर हीन मनोवृति का तुच्छ परिणाम है| ऐसे व्यक्तियों की आत्म-दुर्बलताएं, शारीरिक कमजोरियां और पारिवारिक विवशताएँ सदैव बहानेबाजी, विरोध और कुतर्क के रूप में प्रकट हुआ करती है| उनमें इतना तो नैतिक साहस होता नहीं कि वे अपनी कमजोरियों को स्वीकार करके कार्य के प्रति असमर्थता प्रकट करें| ऐसे व्यक्ति अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए बुद्धिवाद सिद्धांतवाद और तर्क का सहारा लेकर कार्य और उसकी जिम्मेवारियों से बचने की सदैव चेष्टा किया करते है| ऐसे व्यक्तियों से त्याग और कार्य-शक्ति का आव्हान नहीं करना चाहिए| जब हमारी शक्ति प्रबल और अधिक क्रियाशील हो उठती है तब इस प्रकार के व्यक्ति स्वत: उसमें सम्मिलित होकर अपने अनुकूल कार्य ढूंढ निकालते है|
-: समाप्त :-
एक सर्वकल्याणकारी वर्ण-व्यवस्था की पुनर्स्थापना के लिए त्यागमयी क्षात्र-परम्परा की पुनर्स्थापना आवश्यक है| और इस त्यागमयी क्षात्र-परम्परा को पुनर्जीवित करने, प्रभावशाली बनाने तथा व्यावहारिक रूप देने के लिए राज्य सत्ता की प्राप्ति आवश्यक है| राज्य-सत्ता क्षात्र-परम्परा की स्थापना के लिए एकमात्र साधन है, अतएव अंतिम साध्य की प्राप्ति के लिए पहले आवश्यक है कि हम उसके एकमात्र साधन की प्राप्ति का ही प्रयत्न करें और निकट भविष्य में इसी राज्य सत्ता रूपी साधन की प्राप्ति को साध्य मानकर कार्य करें| इस कार्य-क्रम से हमें कई लाभ होंगे| इससे समाज के सामने सामाजिक उद्देश्य का साकार रूप आ जायेगा| जिससे सामाजिक चेतना, इच्छा और क्रियाशीलता को गतिशील होने के लिए एक निश्चित पथ मिल जायेगा| और हमारे हो रहे चतुर्मुखी पतन में एकदम रूकावट आ जायेगी| हमारी समस्त शक्तियां नकारात्मक क्रिया-शीलता से सकारात्मक प्रयत्न की और उन्मुख हो जायेंगी| जिससे नैतिकता को बहुत अधिक बल मिलेगा और अंतिम ध्येय की और होने वाली हमारी प्रगति की रुपरेखा स्थिर और सुनिश्चित हो जायेगी|
हमारे इस मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ आयेंगी और हमारी इस विचार-धारा का भिन्न-भिन्न क्षेत्रों द्वारा भिन्न-भिन्न रूपों में विरोध होगा| यह विरोध सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों ही आधारों पर होगा| अतएव हमें पहले से ही सब प्रकार की कठिनाइयों और विरोध के प्रति सावधान हो जाना चाहिये| सैद्धांतिक धरातल पर सबसे तीव्र विरोध आज की राष्ट्रवादी कही जाने वाली विचारधारा और हमारी विचारधारा में होगा| अतएव हमें समझना होगा कि हमारी राष्ट्र-भक्ति का वास्तविक स्वरूप क्या है और उसी स्वरूप को दृढ़तापूर्वक हमें जनता के सामने रखना और कार्य करना है|
लगभग चार सौ वर्ष पूर्व यूरोप में धर्म के प्रभुत्त्व को समाप्त कर, राष्ट्रवादी विचारधारा अथवा देश-भक्ति को जन्म दिया गया| इससे पूर्व सम्पूर्ण सभ्य राष्ट्र मुख्यत: धार्मिक भावना, अनुष्ठान और आचरण को प्रमुखता देते थे| धर्म के प्रति ही उनकी श्रद्धा और भक्ति का अभ्युदय होता था| उस समय धर्म-नियंत्रित शासन-तंत्र था और जीवन के प्रत्येक व्यापार में धर्म का ही महत्त्वपूर्ण स्थान था| भारत भी अन्य प्राचीन राष्ट्रों की भांति मुख्य रूप से एक धर्म-प्रधान देश रहा है और इसकी राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाएं सदैव से ही धर्म द्वारा प्रभावित और नियंत्रित रही है| जब भारतीय जन पाश्चात्य विचारधारा और सभ्यता के सम्पर्क में आये तब यहाँ भी शनै: शनै: राष्ट्र-भक्ति का विकास होता गया| भारतीय राष्ट्रवाद का विकास अंग्रेजों की दासता की प्रतिक्रिया के रूप में मुख्य रूप से रूप हुआ| पर धर्म पर मूल बहुत गहरा होने के कारण प्रत्येक राष्ट्रीय आन्दोलन सर्वप्रथम धार्मिक आन्दोलन के रूप में ही आरम्भ हुआ| जनता की धार्मिक भावना की पृष्ठभूमि पर ही उसे गति और जीवन मिला| इस प्रकार हम देखते है कि जिस रूप में आज देश-भक्ति अथवा राष्ट्रवाद समझा जा रहा है, आरम्भ में उसका रूप यहाँ धर्म मिश्रित सुधारवाद अथवा धर्मपरायण राजनैतिक चेतना के अतिरिक्त और कुछ नहीं था| ज्यों ज्यों पाश्चात्य दृष्टिकोण जोर पकड़ता गया त्यों त्यों धर्म और राष्ट्रवाद परस्पर एक दुसरे से अलग होते गये| आज राष्ट्रवाद अथवा देश-भक्ति ने धर्म का स्थान ग्रहण करके धर्म के पद को अत्यंत ही सीमित और गौण बना दिया है| राष्ट्रवाद के नाम से एक नये धर्म का उदय हुआ है और प्रत्येक नागरिक की सच्चाई, भक्ति और कर्तव्य-पालन की कसौटी धर्म के स्थान पर आज राष्ट्र अथवा देश बन गया है| धर्म के प्रति कर्तव्यशील होने के स्थान पर अब देश के प्रति कर्तव्यशील होना अधिक श्रेष्ठ समझा जाने लगा है| प्राचीन विचारधारा के अनुसार राष्ट्रवाद स्वत: धर्म के अंतर्गत आ जाता था, पर नवीन विचारधारा के अंतर्गत धर्म राष्ट्रवाद का एक अत्यंत उपेक्षित और गौण अंग मात्र बनकर रह गया है|
यद्यपि हिन्दू धर्म का स्वरूप आज के राष्ट्रवाद से कहीं अधिक विस्तृत और व्यापक है, पर आज का बुद्धिजीवी वर्ग इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है| कोई व्यक्ति धार्मिक हो अथवा न हो पर उसे राष्ट्रवादी होना आवश्यक-सा है| धर्म के प्रति गद्दारी बर्दास्त की जा सकती है और बहुत कुछ अंशों में धर्म के प्रति विद्रोहात्मक भावना को प्रोत्साहन भी दिया जाने लगा है, पर राष्ट्र के प्रति गद्दारी किसी भी दशा में बर्दास्त नहीं की जा सकती| आज राष्ट्र के प्रति किसी भी प्रकार की विद्रोहात्मक भावना एक भयंकर अपराध है|
अब प्रश्न यह है कि यह राष्ट्र है क्या वस्तु, और राष्ट्र के नाम पर हमें किन किन तत्वों के प्रति और किन किन रूपों में विश्वसनीय और भक्त रहना चाहिये|
देश जहाँ हमें किसी भूखण्ड की भौगोलिक बनावट, सीमा, स्थूल और जड़ अवयवों का बोध कराता है, राष्ट्र वहां इससे आगे बढ़ कर देश की चेतन और सूक्ष्म व्यवस्थाओं का ज्ञान कराता है| राष्ट्र के अंतर्गत किसी भी राष्ट्र की भौगोलिक सीमा और स्वरूप के अतिरिक्त राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्थायें भी आ जाती है| आज राष्ट्र सम्पूर्ण जातीय-जीवन का प्रतिरूप समझा जाने लगा है, अतएव राष्ट्र-भक्ति का तात्पर्य है राष्ट्र का निर्माण करने वाले प्रत्येक तत्व के प्रति सच्चा, ईमानदार और भक्त बने रहना|
राष्ट्र के इन तत्वों के प्रति तब तक कोई सच्चा नहीं रह सकता जब तक उनसे व्यक्ति अथवा जाति का भावनात्मक सम्बन्ध न हो| केवल कानून का अंकुश किसी भी व्यक्ति को राष्ट्र के प्रति सदैव सच्चा और भक्त रखने में समर्थ नहीं हो सकता| केवल तर्कों के आधार पर कोई भी व्यक्ति अथवा जाति राष्ट्र से सदैव बंधे हुए नहीं रह सकते| राष्ट्र और उसकी व्यवस्थाओं से हमारा रागात्मक और भावनात्मक सम्बन्ध जितना गहरा होगा उतनी ही पक्की और गहरी राष्ट्रीयता की भावना होगी|
राष्ट्र के प्रति इस भावनात्मक सम्बन्ध का आधार भिन्न भिन्न व्यक्तियों और जातियों में भिन्न भिन्न होता है| एक जाति का संबंध राष्ट्र के साथ केवल राजनैतिक और भौगोलिक होता है तो दूसरी जाति का धार्मिक और सांस्कृतिक| मुसलमानों और ईसाइयों का भारत के साथ केवल राजनैतिक और भौगोलिक सम्बन्ध मात्र है, पर हिन्दुओं के साथ इसके सब प्रकार का सम्बन्ध है| मुसलमानों और ईसाइयों के लिए भारत मातृभूमि तो है किन्तु पुण्य-भूमि, धर्म-भूमि और पवित्र भूमि नहीं, पर हिन्दुओं के लिए यह मातृभूमि, पुण्य भूमि, धर्म भूमि, पवित्र भूमि आदि सर्वस्व है| अतएव मुसलमानों और ईसाइयों की अपेक्षा हिन्दुओं का भारत के साथ अधिक गहरा भावनात्मक संबंध है और इसीलिए मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दू अधिक सच्चे और पक्के राष्ट्र-भक्त हो सकते है| भारत के प्रति उनकी श्रद्धा और भक्ति अधिक सच्ची, अटूट, गहरी और स्थाई हो सकती है| अत: भारत राष्ट्र के लिए जितना हिन्दू स्वत: त्याग कर सकते है उतना दूसरी जातियां नहीं कर सकती|
हिन्दुओं में भी राजपूतों का भारत के साथ जितना गहरा रागात्मक सम्बन्ध है उतना किसी अन्य वर्ण का नहीं| भारत की चप्पा चप्पा भूमि राजपूतों के रक्त से भीगी हुई है| भारत को राष्ट्र बनाने में, रक्षित और समृद्धशाली करने में जितना परिश्रम, त्याग और बलिदान राजपूतों ने किया है, उतना किसी भी एक जाति ने नहीं किया| भारत भूमि के प्रत्येक अंश के साथ राजपूतों का सम्बन्ध है, अतएव राजपूतों के लिए भारत अत्यधिक पवित्र और पूजनीय है| इसलिए भारत के प्रति जितनी श्रद्धा और भक्ति राजपूतों की हो सकती है, उतनी अन्य वर्णों की नहीं| इस राष्ट्र के प्रति उनकी हजारों जिम्मेवारियां जुड़ी हुई है| राष्ट्र के भावी निर्माण के प्रति उदासीन और तटस्थ रहना राष्ट्र के प्रति विश्वासघात है| हमें राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेवारियों को अनुभव करना चाहिये और राष्ट्र के भावी स्वरूप के निर्माण में अधिकारपूर्वक भाग लेना चाहिये| हमें यह भूलना कदापि नहीं चाहिए कि आज के राष्ट्र के भाग्य-विधाताओं से कहीं अधिक हमारी जिम्मेवारी राष्ट्र के प्रति है| हिन्दुओं की जातियों में भी भारत राष्ट्र के साथ जो भावनात्मक सम्बन्ध है उसका आधार भी भिन्न भिन्न है| ब्राह्मणों का भारत की ज्ञान-परम्परा और आध्यात्मिकता के साथ जो संबंध है वैसा सम्बन्ध किसी अन्य जाति का नहीं हो सकता| ब्राह्मण की राष्ट्र-भक्ति का सच्चा और वास्तविक स्वरूप भारत की ज्ञान-परम्परा और आध्यात्मिकता के प्रति भक्ति के रूप में ही देखा जा सकता है| यदि ब्राह्मण आज अपने इस स्वाभाविक गुण और सम्बन्ध को छोड़कर राष्ट्र की अन्य व्यवस्थाओं के प्रति नमनशील और श्रद्धालु बनते है तो उनकी इस प्रकार की राष्ट्र-भक्ति में वास्तविकता का अंश बहुत कम समझना चाहिए|
इसी भांति क्षत्रियों की राष्ट्र-बहती का आधार राष्ट्र के राजनैतिक स्वामित्व की भावना है| ब्राह्मण राष्ट्र की आध्यात्मिक थातियों का अपने को स्वामी समझता है और उसकी राष्ट्र भक्ति का सच्चा स्वरूप उन थातियों के प्रति सच्चा, ईमानदार और शुभचिंतक रहने में है| इसी प्रकार क्षत्रियों की सच्ची और वास्तविक राष्ट्र-भक्ति राष्ट्र के शासनतंत्र पर आधिपत्य कर उसे स्वतंत्र और सुरक्षित रखने में है| जो क्षत्रिय राष्ट्र और उसके शासन तंत्र पर से स्वामित्त्व और शासन की जिम्मेवारियों को समाप्त करके राष्ट्र के शासन को दूसरों के हाथों में हस्तांतरित कर देता है, वह वास्तव में राष्ट्र के प्रति गद्दारी ही करता है| उसकी सच्ची राष्ट्र भक्ति का स्वरूप राष्ट्र का स्वामी बनकर रहने में है| यह उसका स्वभाविक, जन्मजात और ईश्वरप्रदत कर्तव्य है| इस कर्तव्य के साथ राष्ट्र के प्रति उसकी असंख्य जिम्मेदारियां रहती है| राष्ट्र के स्वामित्व अथवा शासन तंत्र को दूसरों के हाथों में सौंपने का अर्थ है उन ईश्वर-प्रदत जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ना और इस प्रकार कर्तव्य-भ्रष्ट होना| राष्ट्र के इसी स्वामित्त्व की रक्षा का तात्पर्य उसकी स्वतंत्रता और अन्य शक्तियों की रक्षा करना है| यदि क्षत्रिय राष्ट्र के स्वामित्त्व की रक्षा नहीं कर सकता तो वह उसकी स्वतंत्रता की भी रक्षा नहीं कर सकता| यदि राजपूतों का राष्ट्र अथवा उसके किसी भी भूखण्ड पर राजनैतिक प्रभुत्त्व नहीं है तो राष्ट्र भक्ति की उनकी भावना में सदैव कृत्रिमता और अवास्तविकता रहेगी| सत्य तो यही है कि उनमें सच्ची राष्ट्र-भक्ति का कभी विकास ही नहीं हो सकेगा|
इसी भांति एक वैश्य की राष्ट्र-भक्ति का आधार देश का आर्थिक जीवन और उसकी समृद्धि है| यदि राष्ट्र के आर्थिक उत्पादन, समृद्धि और तत्सम्बन्धी समस्त व्यवस्थाओं में वैश्यों का सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाता है तो उनके लिए व्यावहारिक रूप से राष्ट्र भक्ति का कोई महत्त्व नहीं रहता है| केवल राष्ट्र के जड़ और स्थूल अवयवों के प्रति भक्ति रखने को किसी को विवश करना राष्ट्र-भक्ति का सच्चा विकास कदापि नहीं कहा जा सकता|
क्रमश:....