Friday, November 29, 2013

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- ४ (राजपूत और भविष्य)

भाग - ३ से आगे
'जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता-शासन' एक आकर्षक वाक्य अवश्य है पर यह कल्पना वस्तुस्थिति से कोसों दूर है. इस व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्र का भाग्य बुद्धिमान, नि:स्वार्थ और सच्चे जन-भक्तों के हाथों में न आकर उन अवसरवादी लोगों के हाथों में आ जाता है जो साधन-संपन्न, मिथ्या-भाषी, प्रचार-पट्टू और येन-केन-प्रकारेण जनता को मुर्ख बनाने की कला में अधिक निपुण होते हैं. वास्तव में पेशेवर राजनीतिज्ञ और राजनैतिक गुण्डे इसमें अधिक सफल होते हैं. इस व्यवस्था के अंतर्गत बहुमत-प्राप्त दल को ही राज्य-संचालन का भार दिया जाता है. जिन लोगों के मतों से बहुमत का निर्माण होता है, वे वास्तव में समझते ही नहीं कि राज्य-संचालन क्रिया एक कला और बुद्धिमतापूर्ण कार्य है और जिनको वे मत देने जा रहे हैं वे इस कला को जानते हैं अथवा नहीं। वास्तव में प्रजातन्त्रवाद जनता के अज्ञान का दुरूपयोग है. बहुमत सदैव नारों, अभद्र उपायों और सामयिक घटनाओं से ही प्रभावित रहता है. वह कभी भी दूरदर्शी, चिंतनशील और बुद्धिमान नहीं हो सकता। इस व्यवस्था के अंतर्गत धारासभाओं और संसद के बहुमत-प्राप्त दलों के अधिकांश धरासाभाई और संसद-सदस्य या तो शासन-संचालन के मूल सिद्धांतों को समझते ही नहीं या संस्थान अनुशासन और ऐसे ही अन्य कारणो से उदासीन होकर केवल सत्तारूढ़-मंत्रिमंडल की हाँ में हाँ मिलाते रहते हैं. वास्तविक रूप से मंत्रिमंडल के सदस्य और विशेषतः प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ही वास्तविक शासक होता है. इस प्रकार यह शासन जनता द्वारा न होकर अंतिम रूप से एक या कुछ व्यक्तियों द्वारा ही होता है, उसी बहुमत-प्रधान वर्ग, जाति अथवा संप्रदाय के हितों को संरक्षण और प्रोत्साहन देने वाले कानून ही धारा-सभाओं आदि में बनाये जाते हैं. वे कानून अन्य वर्गों अथवा जातियों को चाहे समूल नष्ट करने वाले हों तो भी सत्तारूढ़ दल इसकी चिन्ता नहीं करता। इस प्रकार यह व्यवस्था जनता के लिए न होकर सदैव उन लोगों के लिए होती है जिनके मतों से एक दल सत्तारूढ़ होता है|

प्रजातन्त्रवाद में सिद्धांतत: सत्तारूढ़ दल सम्पूर्ण जनता अथवा मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होता है, पर जनता का कोई एक व्यक्तित्व, प्रतिनिधि नहीं होता और न वह जनता एक मस्तिष्क से सोच और समझ ही सकती है. जनता के प्रति जिम्मेवारी का अर्थ है किसी के भी प्रति जिम्मेवारी नहीं। यही कारण है कि सत्तारूढ़ दल सदैव अनियंत्रित, निरंकुश और गैर-जिम्मेवार होता है. वह सदैव एकपक्षीय और दलगत स्वार्थपूर्ति के कार्यों का कानूनों द्वारा वैधीकरण करता रहता है.

इस व्यवस्था के अंतर्गत दलगत राजनीति के पनपने के कारण कभी भी पक्षपातरहित कार्य नहीं हो सकता। सत्तारूढ़ दल सदैव अपने दल और दल के व्यक्तियों को लाभ पहुँचाने कि योजनायें क्रियान्वित करता रहता है. जनहित अथवा देशहित की भावना की अपेक्षा उसके सामने अपने दल और दलविशेष को आगामी चुनावों में सफल बनाने की भावना अधिक कार्य करती रहती है। आज हम जन कल्याण के लिए जितने भी कार्यक्रम देख रहे हैं वे वास्तव में जन कल्याण के कार्यक्रम न होकर मुख्या रूप से सत्तारूढ़ दल द्वारा चुनाव जीतने के व्यवस्थित उपाय मात्र हैं।

व्यवस्थापिका सभा (Legislative Functions) का और कार्यपालिका(Executive Functions) का कार्य एक ही दल के हाथों में होने के कारण सदैव राजकीय सत्ता का दुरूपयोग होता रहता है। सत्तारूढ़ दल पूर्ण निरंकुश और सर्वाधिकार-संपन्न होने के कारण अपनी इच्छाओं और मान्यताओं को कानून बना कर देश पल बलात लादा करता है. बहुमत-प्राप्त दल में भी बहुमत तो अज्ञानियों और मूर्खों का होता है, अतएव थोड़े से बुद्धिजीवी लोग अपनी इच्छाओं और मान्यताओं को कानून द्वारा सम्पूर्ण देश पर लादा करते हैं और उस दल के बहुमत का निर्माण करने वाले सदस्य प्रलोभन, मूर्खता अथवा दलगत अनुशासन के कारण चन्द बुद्धिजीवियों का प्रकट रूप से विरोध करने का साहस नहीं कर सकते। इस प्रकार प्रजातन्त्रवाद में एक दो व्यक्तियों की इच्छायें और मान्यतायें सम्पूर्ण देश कि इच्छा और मान्यता बना दी जाती हैं तथा विधि-निर्माण और विधि का प्रयोग एक ही दल के हाथों में होने के कारण प्रशासन के दोनों ही अंग निरंकुश और कालांतर में भ्रस्ट बन जाते हैं।

जिस देश में राजनैतीक संस्थायें अधिक होती हैं, उस देश में तो स्पष्ट रूप से प्रजातन्त्रवाद के अंतर्गत जनता के अल्पमत का ही शासन होता है। इसी भाँती यदि सत्तारूढ़ दल में भी परस्पर गुटबाज़ी हुई तो भी शासन अल्पमत का ही होता है, क्योंकि बहुमत के अंदर बहुमत का तात्पर्य सदैव अल्पमत ही हुआ करता है।

प्रजातन्त्रवाद में अल्पमत के सामने केवल तीन ही मार्ग होते हैं. या तो वह अपने सिद्धांतों को छोड़कर बहुमत या सत्तारूढ़ दल में मिल जाय, या अपने अल्पमत को शनै: शनै: बहुमत में रूपांतरित कर दे, या सदैव कुण्ठित होकर बहुमत की दासता करता रहे। सैद्धांतिक अल्पमत को विविशत: तीसरा ही मार्ग अपनाना पड़ता है। इस प्रकार सिद्धांतों के ऊपर आधारित अल्प-संख्यकों के लिए सैद्धांति उन्नती का कुछ भी अवसर नहीं रहता। अन्य शासन-प्रणालियों की भाँति प्रजातन्त्रवाद अप्राकृतिक, अधिक खर्चीली, अयोग्य और भ्रस्ट शासन-व्यवस्था है. मितव्ययिता, प्रशासनिक दक्षता, क्षिप्रता, ईमानदारी आदि से यह व्यवस्था कोसों दूर रहती है।

न्यायपालिका (Judiciary) को कार्यपालिका से स्वतंत्र रखने का सिद्धांत आज सर्वमान्य सा हो गया है, पर भारत में हम न्यायपालिका को पूर्ण स्वतंत्र नहीं कह सकते। उच्चन्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनका पृथक्करण सत्तारूढ़ दल के ही हाथों में है। इसके अतिरिक्त कई आयोगों आदि का न्यायाधीशों को अध्यक्ष बनाना तथा अवकाश के उपरांत उन्हें अन्य प्रलोभनों के पद देने की नीति ने आज अधिकांश न्यायाधीशों को केवल सत्तारूढ़ डाक का कृपाकांक्षी मात्र बना रखा है। न्यायपालिका तभी स्वतंत्र कही जा सकती है जब निर्धारित योग्यता और अनुभव वाले व्यक्तियों ला न्यायाधीशों के रूप में जनता द्वारा चुनाव हो और उनके कार्यकाल की अवधि निश्चित हो। इस प्रकार भारत में आज एक ही दल कानून बनता है, वही कानून को कार्यान्वित करता है और उसी के द्वारा नियंत्रित न्याय-व्यवस्था कानूनों के अंतर्गत न्याय करती है। यह सम्पूर्ण प्रणाली दोषपूर्ण है। इस प्रकार की प्रणाली में विरोधी पक्षों और विचारों को निष्पक्ष न्याय मिला दुर्लभ है।

भारतीय प्रजातंत्र के नाम पर जनता की पिछली ग़ुलामी की प्रतिक्रिया का लाभ उठा कर बुद्धिजीवी-वर्ग आज सर्वे-सर्व बन बैठा है. थोड़े से मनचले बुद्धिजीवी तत्वों की स्वार्थपूर्ति का साधन होने के कारन आज लोगों की इस प्रणाली में श्रद्धा कम होती जा रही है। देश का चेतन मस्तिष्क इसका अब बहिष्कार करने लग गया है। वह इस व्यवस्था से यहाँ तक उब गया है कि अन्य कोई भी स्पष्ट व्यवस्था उसके सामने न होने के कारण वह इससे कहीं अधिक निकृष्ट साम्यवादी व्यवस्था तक को अपनाने के लिए तैयार हो गया है। पूर्व और दक्षिण का साम्यवादी अभ्युदय इसी सत्य की और इंगित करता है। इस प्रणाली के अंतर्गत जितना व्यय और परिश्रम, प्रदर्शन और प्रचार किया जाता है उतना यदि वास्तविक रूप से जनहितकारी योजना पर किया जाय तो बहुत कुछ कल्याण हो सकता है।

इसी भांति आज की समाजवादी व्यवस्था भी एक विदेशी कल्पना और भारतीय वातावरण के सर्वथा विपरीत विचारधारा है। इस व्यवस्था के अंतर्गत अर्थोपार्जन के समस्त बड़े साधनों पर राज्य का अधिकार हो जाने अथवा उनका राष्ट्रीयकरण हो जाने के कारण सत्तारूढ़ दल और भी अधिक शक्ति-संपन्न और निरंकुश हो जाता है। ऐसी व्यवस्था में निरंकुश सत्तारूढ़ दल को पदच्युत करने का जनता के पास कोई भी साधन नहीं रहता। चुनाव-प्रणाली अधिक खर्चीली होने के कारण जनता के सच्चे और ईमानदार सेवक न तो चुनावों द्वारा ही सर्व-साधन-संपन्न सत्तारूढ़ दल को पृथक कर सकते हैं और न किसी अन्य साधन द्वारा ही उसे हटाया जा सकता है। यही कारण है कि एक बार सता हाथ आ जाने के उपरांत प्रत्येक महत्वाकांक्षी सतारूढ़ दल अपने प्रभाव को अक्षुष्ण रखने के लिए सदैव समाजवादी व्यवस्था की स्थापना किया करता है। समाजवादी व्यवस्था प्रजातन्त्रवाद के अंतर्गत सामान्य व्यवस्था से कहीं अधिक कठोर और जन-जीवन को अधिक नियंत्रित और प्रभावित करने वाली व्यवस्था है। इसमें दलगत अधिनायकवाद के पनपने की बहुत सम्भावना रहती है. इस प्रकार के प्रजातंत्रीय समाजवाद अथवा अधिनायकवाद में चुनाव आदि होते अवश्य हैं पर वे केवल प्रदर्शन और संसार के अन्य देशों को भुलावे में डालने के लिए ही होते हैं। इस प्रकार के उपायों को काम में लिया जाता है जिससे प्रत्येक बार सतारूढ़ दल ही विजयी होता है। हमें भय है कि आज का भारतीय प्रजातंत्री समाजवाद भी यही रूप न धारण कर ले।

क्रमश :......

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- ३ (राजपूत और भविष्य)

भाग -२ से आगे
वर्ण-व्यवस्था का आधार, मनुष्य की जन्मजात प्रवर्ति और प्रकर्ति होने के कारण, इसके अनुसार कार्य का विभाजन अत्यंत ही मनोवैज्ञानिक रूप से हुआ है. वंशानुगत, परम्परागत और स्वभाव के अनुकूल होने के कारण मनुष्य शीघ्र ही अपने-अपने कार्यों में निपुणता प्राप्त कर लेते हैं. न समाज में बेकारी की समस्या रहती है और न वर्ग-द्वेष ही. सबके सामने जन्म से ही धंधा रहता है. इसीलिए किसी को भी अपने पैतृक अधिकारों से च्युत करने कि आश्यकता नहीं रहती। प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ती की इसमें गारंटी रहती है। शिक्षा का आधार प्रकर्ति, स्वभाव और सहज प्रवर्तियों को मान कर मनोवैज्ञानिक रूप से शिक्षा और काम देने के कारण प्रत्येक उन्नत राष्ट्र आज ज्ञात अथवा अज्ञात रूप से वर्ण-व्यवस्था कि वैज्ञानिकता को अपना रहा है, पर आश्चर्य इस बात का है कि इस व्यवस्था का आदि स्रष्टा भारत इस व्यवस्था से दिनोदिन दूर हटता जा रहा है।

वर्ण-व्यवस्था की व्यवहारिकता, सरलता, वैज्ञानिकता और सर्वहितकारिता तब तक समझ नहीं आ सकती, जब तक हम आर्य-धर्म के अंतर्गत कर्मवाद को अच्छी प्रकार से समझ नहीं लेते। आर्य-दर्शन के अनुसार कर्म मनुष्य को ईश्वर द्वारा दिया गया दायित्व है. यदि मनुष्य अपने इस दायित्व को कुशलतापूर्वक पूर्ण कर देता है, तो वह अपने अस्तित्व की सार्थकता को पूर्ण कर लेता है. मनुष्य को ईश्वर द्वारा दिये गये इस दायित्व के अंतर्गत ही उसके इस लोक और परलोक सम्बन्धी सब कर्म और कर्त्तव्य आ जाते हैं. शेष उसके लिए करने को कुछ भी नहीं रहता। इस दायित्व को पूरा करने अथवा न करने, इससे त्यागने या अपनाने में मनुष्य स्वतंत्र अवश्य रहता है पर अपने कर्मो का फल वह अपनी इच्छा के अनुरूप ही प्राप्त करे, यह उसके वश की बात नहीं होती। वह फल भोगने में परतंत्र रहता है. अतएव जिस फल रुपी वस्तु पर उसका कोई अधिकार ही नहीं, उसकी चिंता किये बिना ईश्वर द्वारा सोंपे हुए कार्य को कर्त्तव्य समझ कर करते रहना ही निष्काम-कर्मयोग का सिद्धांत है। इस सिद्धांत से दो बातें प्रतिपादित होती हैं-प्रथम यह कि यह कार्य ईश्वरप्रदत्त कार्य है. अतएव इसको करना हमारा परम कर्त्तव्य है. जब एक मनुष्य किसी उच्चाधिकारी या मालिक द्वारा बताये हुए कार्य को उसे खुश करने के लिए पूर्ण मनोयोग, शक्ति और चतुराई से करता है तब वह सर्वशक्तिमान परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए उसका कार्य क्यों नहीं पूर्ण मनोयोग, शक्ति और चतुराई से करेगा। नेपोलियन के वीर सिपाहियों कि यह तीर्व इच्छा रहती थी कि एक बार वह उनकी और देख ले, फिर तो वे धधकती हुई अग्नि में भी कूद पड़ेंगे - एक बार नेपोलियन उन्हें नाम से सम्बोधित करके आज्ञा दे दे, फिर तो वे काल से भीड़ जायेंगे। जब नेपोलियन के सिपाही अपने लौकिक मालिक के प्रति इतने सच्चे और कर्त्तव्यशील थे तब हम अपने सर्वशक्तिमान मालिक के प्रति क्यों नहीं सच्चे और कर्त्तव्यशील हों. इस प्रकार कर्म को ईश्वरीय आदेश समझ कर, ईश्वरीय इच्छा की पूर्ती के निमित पूर्ण करने से किसी भी प्रकार की रुकावट, अव्यवहारिकता, बेईमानी और बहानेबाजी सामने नहीं आ सकती। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य द्वारा सौंपे गए दायित्व से तो छिप कर अथवा झूठ बोल कर बच सकता है पर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी ईश्वर द्वारा दिए गए दायित्व से वह कैसे बचेगा? कर्मवाद में जो दूसरी बात प्रतिपादित होती है वह है फल भोगने में परतंत्रता। जो हम कार्य करते हैं उनका फल मिलेगा तो अवश्य, पर वह फल हमारी इच्छा के अनुरूप ही होगा, यह आवश्यक नहीं है. इस सिद्धांत को हृदयंगम कर लेने से पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, छीना-झपटी और वर्ग-संघर्ष आदि कभी भी नहीं होंगे। मनुष्य जो कर्म करता है, उसके लिए जो कुछ फल उसे ईश्वरीय विधान के अंतर्गत मिलता हो, वह मिल कर रहता है. इस प्रकार कि सांसारिक धारणा बना लेने के उपरांत असंतोष नाम की कोई वास्तु नहीं रहती। असंतोष ही दुःख है.

कर्मवाद के ये ही दो पहलु वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक कार्य और प्रणाली को नियन्त्रित और परिचालित करते रहते हैं. इन सिद्धांतो को मानकर नहीं चलने से वर्ण-व्यवस्था या अन्य कोई भी व्यवस्था सफल, व्यावहारिक और स्थाई नहीं हो सकती। वर्त्तमान समाज-गठन उसके संस्कार और वातावरण इस व्यवस्था को प्रचलित करने के लिए उपर्युक्त नहीं है. इस व्यवस्था को प्रचलित करने के पूर्व वर्षों पर्यन्त अनुकूल सामाजिक संस्कारों का निर्माण करना पड़ेगा। शिक्षा, संस्कारों और विधि-नियमों द्वारा मनुष्यों के नैतिक और चारित्रिक स्तर को इस धरातल तक उठाना पड़ेगा, योजनाबद्ध रूप से एक सामाजिक क्रांति का आह्वान और आयोजन करना पड़ेगा, वर्त्तमान पीढ़ी के विकृत संस्कारों और मानसिक धरातल को सुधार कर तथा विकसित करके नवीन साँचे में ढालना होगा और नई पीढ़ी को मनोवैज्ञानिक रूप से नई व्यवस्था के लिए तैयार करना पड़ेगा। तभी जाकर इस व्यवस्था के अंतर्गत कार्य करने की क्षमता और कौशल का प्रादुर्भाव हो सकेगा।

वर्ण-व्यवस्था और उसके द्वारा कार्य संचालन की तुलना में आज का प्रजातन्त्रवाद अत्यंत ही अभावग्रस्त एवं अपूर्ण व्यवस्था है. वास्तव में प्रजातन्त्रवाद को मूर्खवाद कहना चाहिए, क्योंकि यह बहुमत का शासन होता है और बहुमत बहुधा मूर्खों का ही हुआ करता है. भारतीय प्रजातन्त्रवाद को तो हम निश्चित रूप से मूर्खवाद कह सकते हैं. राज्यों की धारासभाओं और संसद में ऐसे व्यक्तियों का बाहुल्य है जो विधान अथवा कानूनी बारीकियों को लेशमात्र भी नहीं समझ सकते। जिन पर कानून द्वारा देश का भाग्य-निर्माण करने का दायित्व हो वे यदि कानून के प्रारंभिक ज्ञान के प्रारंभिक सिद्धांतों से ही शुन्य हो तो यह देश के लिए कितने दुर्भाग्य की बात है. कुछ मनचले बुद्धिजीवी लोग इस प्रकार के अज्ञानी और स्वार्थी लोगों को आगे करके स्वार्थों की सदैव पूर्ति किया करते हैं. भारतीय जनता का अस्सी प्रतिशत अंग ऐसा है जो स्वयं राजनैतिक दृष्टि से उचितानुचित का निर्णय नहीं कर सकता। वह प्रलोभन, भय, अज्ञान और दबाव के कारण सदैव से ही पथ-भ्रस्ट होते आया है. साधन-संपन्न, प्रचार-पट्टू, पेशेवर, बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों का गिरोह इसी प्रकार की निर्धन, भोली, अज्ञानी, भावुक और कर्त्तव्या-कर्त्तव्य के प्रति अचेत जनता से अधिक मत प्राप्त कर लेते हैं और इसी बहुमत के आधार पर वे केंद्र और प्रांतों में सरकारें बनाकर देश के पूर्ण भाग्य-विधाता बन बैठते हैं.

इसी प्रकार की स्थिति से अनैतिकता और अनाचरण कि सृष्टि होती है. भारत में वर्त्तमान समय में प्रचलित चुनाव-प्रणाली अनैतिकता और भ्रस्टाचार का एक ठोस और ज्वलंत उदाहरण है. सत्तारूढ़ दल द्वारा भय, प्रलोभन, दबाव, और हथकंडों से अशिक्षित, गरीब, रूढ़िवादी और उदासीन जनता से मत प्राप्त करना सरल अवश्य है, पर इससे मतदाताओं का नैतिक स्तर जिस सीमा तक गिरता जा रहा है, वह चिन्तनीय है. एक और मतदान होने जा रहा है, दूसरी और सत्तारूढ़ दल द्वारा जलबोर्ड के रूपये बाँटे जाते हैं, पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत सड़कों का काम शुरू कराया जाता है, पंचों और मुखियाओं को तकाबी के रूपये दिए जाते हैं और इसी प्रकार विकास और तरक्की के नाम पर मतदाताओं को प्रलोभन दिया जाता है. पंचवर्षीय योजना, निर्माण और विकास के कार्यों पर जितना धन आम चुनाव अथवा ज़िला बोर्ड, तहसील आदि चुनावों के कुछ महीने पहले से और उन चुनावों के समय खर्च किया जाता है उतना धन कदाचित कुछ स्थायी योजनाओं के अतिरिक्त पूरे पाँच वर्षों में भी खर्च नहीं किया जाता। देश के बुद्धिमान लोगों की दृष्टि में पंचवर्षीय योजना आज चुनाव जीतने का एक हथकंडा मात्र समझी जेन लगी है. विकास और निर्माण की योजनाओं में और अन्य सभी प्रकार से खर्च होने वाला धन भारत के समस्त नागरिकों का है. उसे केवल एक संस्था विशेष को सत्तारूढ़ करने के लिए खर्च करना एक और जहाँ सत्ता का दुरूपयोग है दूसरी और वह भारत के समस्त करदाताओं के साथ विश्वासघात भी है. ठीक इसी समय विरोधी दृष्टिकोण रखने वाले मतदाताओं और उमीदवारों पर मुकदमों और कुर्की का भूत सवार किया जाता है.

कानून में एक उमीदवार द्वारा चुनावों में खर्च की जाने वाली धन राशि सीमित है, पर संस्था द्वारा किसी एक व्यक्ति के धरा-सभा के चुनाव के लिए यदि एक लाख (या फिर करोड़ों) भी खर्च कर दिए जाते हैं तो उसे चुनौती नहीं दी जा सकती। आज की सत्तारूढ़ संस्था भ्रस्टाचार और अनैतिकता का खुल्लम-खुल्ला अड्डा है. वह पूंजीपतियों, व्यवसाइयों, राजा-महाराजाओं और उन सबसे जो सत्ता का सहारा पाकर अनुचित रूप से मालामाल हो रहे हैं, लाखों रूपये चंदे के रूप में वसूल करती है. पूंजी-पतियों को चुनाव के टिकट बेचे जाते हैं. यह अतुल धन-राशि चुनावों के समय अपनी संस्था को सत्तारूढ़ करने के लिए खर्च की जाती है. एक-एक कांग्रेसी धारासभाई उमीदवार चुनाव के समय 10 - 15 (आज 100 -200) मोटर-गाड़ियों का प्रबंध और 50-60(आज कल करोड़ों) हज़ार तक रूपये खर्च कर देता है. बेचारे विरोधी उम्मीदवारों के पास इससे शतांश भी सुविधायें नहीं रहती। जितने रूपये एक व्यक्ति द्वारा चुनाव जीतने के लिए खर्च किये जाते हैं, उससे कई गुणा अधिक सत्तारूढ़ होने के उपरांत कमा लिये जाते हैं। यह कमाई खून-पसीने की न होकर नि:संदेह बेईमानी और भ्रस्टाचार की होती है. कांग्रेसी उम्मीदवारों द्वारा आम-चुनावों में इस प्रकार अन्धाधुन्ध खर्च करने के कारण प्रत्येक मतदाता अपने मत को बेचना चाहता है. गांवों के भोले लोग जो कुछ वर्ष पहले रिश्वत देना और लेना एक नैतिक अपराध समझते थे, वे अब प्रत्यक्षतः रिश्वत लेकर वोट देने के अतिरिक्त अब दूसरी भाषा में बोलते भी नहीं हैं. चुनाव अब इस प्रकार के मतदाताओं के लिए कमाई का एक उपाय बन गया है. इससे देशव्यापी अनैतिकता और भ्रस्टाचार को जो प्रोत्साहन मिलता है, वह अकथनीय है। जो संस्था चंदे आदि के रूप में दूसरों से रिश्वत लेकर उसे अनैतिक ढंग से खर्च करती है वह अपने सदस्यों को रिश्वत लेने और अनैतिकता से चुनाव जीतने से रोक भी कैसे सकती है. इसी भाँती सरकारी कर्मचारियों के दबाव और प्रभाव को जिस रूप में काम में लिया जाता है, वह भी कम अशोभनीय नहीं है. आज से दस वर्ष पूर्व भारत का सामान्य नागरिक यह कल्पना भी नहीं करता था कि सत्य और नैतिकता के पुजारी गाँधीजी और नेहरूजी की कांग्रेस सत्ता-प्राप्ति के लिए इतने निम्नस्तर तक उतर आवेगी। इसे प्रजातन्त्रवाद कि अपूर्णता कहा जाय अथवा उसका दुर्भाग्य?

जो व्यक्ति केवल प्रजातन्त्रवाद के आकर्षक सिद्धांतों की परिधि में ही सोचते हैं और उसके व्यावहारिक स्वरुप का चिंतन नहीं करते उनके लिए प्रजातन्त्रवाद शासन-प्रणाली सर्वश्रेष्ट हो सकती है, पर प्रजातंत्र के लुभावने सिद्धांतों के व्यावहारिक स्वरुप को देख लेने के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रह सकते कि प्रजातंत्र के सिद्धांत या तो व्यावहारिक सत्य का बाना पहन ही नहीं सकते या व्यावहारिक सत्य तक पहुँचते-पहुँचते वे अपना मौलिक स्वरुप स्थिर न रख सकने के कारण अत्यंत ही विकृत और दूषित हो जाते हैं. सिद्धांतत: यह शासन-प्रणाली उत्तम कही जा सकती है पर व्यवहारत:इसमें कई दोषों का पनप जाना अवश्यम्भावी है.

क्रमश :........