फिर भी मैं सत्य प्रतीत होने वाले मिथ्यावादों की और उन्मुख होता गया | मैंने उदघोष किया-
" ये धर्म-शास्त्र मिथ्या है;- यह समाज-विधान रूढी ग्रस्त है ; - यह परम्परा विज्ञानं-सम्मत और पूर्ण नहीं है |"
प्रतिक्षण नवीनता की खोज में मैं पूर्णता से अपूर्णता की और खिंचता ही गया | कारण समझने की चेष्टा की तो ज्ञात हुआ मैं उस श्रद्धा और विश्वास को बहुत पहले ही खो चूका था जिनका सहारा लेकर ज्ञान स्थायित्व के दृढ आसन पर आरूढ़ होता था |
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